ग़ज़ल 114 [22 A] ओके
एक ग़ज़ल : आदमी से कीमती हैं कुर्सियां
2122-----------2122---------212-
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलुन
आदमी से कीमती हैं कुर्सियाँ
कर रहे टी0वी0 पे मातम हैं मियाँ
आग नफ़रत की लगा कर आजकल
सेंकते सब अपनी अपनी रोटियाँ
मौसम-ए-गुल आएगा कैसे भला
जब तलक दिल में रहेंगी तल्खियाँ
धार ख़ंज़र की नहीं पहचानती
किसकी हड्डी और किसकी पसलियाँ
दे रहें हैं धन वो राहत कोष से
जो जला आए हमारी बस्तियाँ
आदमी की लाश गिन गिन कर वही
गिन रहें संसद भवन की सीढ़ियाँ
आजतक हम कर्ज़ ’आनन’ भर रहे
एक पल की जो हुई थी ग़लतियाँ
-आनन्द.पाठक-
[सं 09-04-19]
2122-----------2122---------212-
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलुन
आदमी से कीमती हैं कुर्सियाँ
कर रहे टी0वी0 पे मातम हैं मियाँ
आग नफ़रत की लगा कर आजकल
सेंकते सब अपनी अपनी रोटियाँ
मौसम-ए-गुल आएगा कैसे भला
जब तलक दिल में रहेंगी तल्खियाँ
धार ख़ंज़र की नहीं पहचानती
किसकी हड्डी और किसकी पसलियाँ
दे रहें हैं धन वो राहत कोष से
जो जला आए हमारी बस्तियाँ
आदमी की लाश गिन गिन कर वही
गिन रहें संसद भवन की सीढ़ियाँ
आजतक हम कर्ज़ ’आनन’ भर रहे
एक पल की जो हुई थी ग़लतियाँ
-आनन्द.पाठक-
[सं 09-04-19]
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