एक ग़ज़ल 116[25 A] : ओके
वो रोशनी के नाम से --
221----2121----1221-----212
वो रोशनी के नाम से डरता है आजतक
जुल्मत की हर गली से जो गुज़रा है आजतक
बढ़ने को बढ़ गया है किसी ताड़ की तरह
बौना वो दूसरों को समझता है आजतक
इनसान भीड़ तन्त्र का हिस्सा हैबन चुका
"इन्सानियत’ ही भीड़ में तनहा है आजतक
हर पाँच साल पे वो नया ख़्वाब बेचता
जनता को बेवक़ूफ़ बनाता है आजतक
वो रोशनी में तीरगी ही ढूँढता रहा
सच को हमेशा झूठ बताता है आजतक
वैसे तमाम और मसाइल थे सामने
’कुर्सी’ की बात सिर्फ़ वो करता है आजतक
हर रोज़ हर मुक़ाम पे खंज़र के वार हैं
’आनन’ ख़ुदा का शुक्र है ज़िन्दा है आजतक
-आनन्द पाठक-
[सं 14-04-19]
वो रोशनी के नाम से डरता है आजतक
जुल्मत की हर गली से जो गुज़रा है आजतक
बढ़ने को बढ़ गया है किसी ताड़ की तरह
बौना वो दूसरों को समझता है आजतक
इनसान भीड़ तन्त्र का हिस्सा हैबन चुका
"इन्सानियत’ ही भीड़ में तनहा है आजतक
हर पाँच साल पे वो नया ख़्वाब बेचता
जनता को बेवक़ूफ़ बनाता है आजतक
वो रोशनी में तीरगी ही ढूँढता रहा
सच को हमेशा झूठ बताता है आजतक
वैसे तमाम और मसाइल थे सामने
’कुर्सी’ की बात सिर्फ़ वो करता है आजतक
हर रोज़ हर मुक़ाम पे खंज़र के वार हैं
’आनन’ ख़ुदा का शुक्र है ज़िन्दा है आजतक
-आनन्द पाठक-
[सं 14-04-19]
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