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बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम
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एक ग़ज़ल 127[99D]
सब को अपनी अपनी पड़ी है
हर आँगन दीवार खड़ी है
अच्छे दिन कैसे आएँगे ?
सत्ता ही जब ख़ुद लँगड़ी है
राहनुमाई क्या करता वह
नाक़ाबिल है ,सोच सड़ी है
कैसे उतरे चाँद गगन से ?
राहू-छाया द्वार खड़ी है
बिन व्याही बेटी के बापू
गिरवी में रख्खी पगड़ी है
झूठे वादों से न बुझेगी
आग उदर की, भूख बड़ी है
सच पर पहरेदारी ’आनन’
पाँवों में जंजीर पड़ी है
-आनन्द.पाठक-
प्र
बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़्बूज़ सालिम
-----------
एक ग़ज़ल 127[99D]
सब को अपनी अपनी पड़ी है
हर आँगन दीवार खड़ी है
अच्छे दिन कैसे आएँगे ?
सत्ता ही जब ख़ुद लँगड़ी है
राहनुमाई क्या करता वह
नाक़ाबिल है ,सोच सड़ी है
कैसे उतरे चाँद गगन से ?
राहू-छाया द्वार खड़ी है
बिन व्याही बेटी के बापू
गिरवी में रख्खी पगड़ी है
झूठे वादों से न बुझेगी
आग उदर की, भूख बड़ी है
सच पर पहरेदारी ’आनन’
पाँवों में जंजीर पड़ी है
-आनन्द.पाठक-
प्र
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