ग़ज़ल 136
1222---1222---1222---1222
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तुम्हारे हुस्न से जलतीं हैं ,कुछ हूरें भी जन्नत में,
ये रश्क़-ए-माह-ए-कामिल है,फ़लक जलता अदावत में ।
तेरी उल्फ़त ज़ियादा तो मेरी उलफ़त है क्या कमतर ?
ज़ियादा कम का मसला तो नहीं होता है उल्फ़त में ।
पहाडों से चली नदियाँ बना कर रास्ता अपना ,
तो डरना क्या ,फ़ना होना है जब राह-ए-मुहब्बत में ।
वही आदत पुरानी है तुम्हारी आज तक ,जानम !
गँवाया वक़्त मिलने का ,गिला शिकवा शिकायत में ।
चिराग़ों को मिला करती हवाओं से सदा धमकी ,
नहीं डरते, नहीं बुझते, ये शामिल उनकी आदत में ।
उन्हें भी रोशनी देगी जो थक कर हार कर बैठे ,
मेरा जब ज़िक्र आयेगा ज़माने की हिकायत में ।
जहाँ सर झुक गया ’आनन’ वहीं काबा,वहीं काशी ,
वो चलकर खुद ही आएँगे बड़ी ताक़त मुहब्बत में ।
-आनन्द.पाठक-
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