रविवार, 17 जनवरी 2021

ग़ज़ल158 :ज़माने से जमी है बर्फ़---

 1222---1222---1222--1222
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम 
मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन
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ग़ज़ल 158 : ज़माने से जमी है बर्फ़--

जमाने से जमी है बर्फ़ रिश्तों पर, पिघलने दो
निकलती राह कोई है नई, तो फिर निकलने दो

हवाएँ छू के आती हैं तुम्हारा जब कभी आँचल
बदल जाता इधर मौसम, उधर तुम भी बदलने दो

ख़याल-ओ-ख़्वाब हैं, तसवीर है, यादें तुम्हारी हैं
इन्हीं से दिल बहलता है मेरे जानम ! बहलने दो

पता कुछ भी नहीं मुझको किधर यह ले के जाएगा
अगर दिल चल पड़ा राह-ए-मुहब्बत पे,तो चलने दो

वो कह कर तो गया था शाम ढलते लौट आएगा
मुडेरे पर रखा दीया अभी कुछ देर जलने दो

तुम्हारे दर पे आऊँगा सुनाने दास्ताँ अपनी
अभी हूँ वक़्त का मारा ज़रा मुझको सँभलने दो

यक़ीनन कुछ कमी होगी तुम्हारे इश्क़ में ’आनन’
अगर दिल में हवस हो या हसद, उनको निकलने दो

-आनन्द.पाठक--