रविवार, 6 फ़रवरी 2022

ग़ज़ल 213[15 A] : वह बार बार काठ की हंडी चढ़ा रहा

ग़ज़ल 213 [ 15 A]


221---2121---1221---212


वह बार बार काठ की   हंडी चढ़ा रहा

क्या क्या न राजनीति में खिचड़ी पका रहा


पाँवों तले ज़मीन तो उस की खिसक चुकी

जाने ख़ुदा कि पाँव पे कैसे टिका रहा ?


शब्दों के जाल बुन रहा था पाँच साल से

आया है जब चुनाव तो मुझको फँसा रहा


थाना है उसके हाथ में , आदिल भी जेब में

क़ानून की किताब का तकिया लगा रहा


भारत का ’संविधान’ तो ’बुधना’ के लिए है

ख़ुद ही वह ’संविधान ’ है सबको बता रहा


इक पाँव कठघरे में हैं ,इक पाँव जेल में

लीडर नया है , क़ौम को रस्ता दिखा रहा


’दिल्ली’ चला गया है वो नज़रें बदल गईं

’आनन’ चुनाव बाद तू किसको बुला रहा


-आनन्द.पाठक-


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