रविवार, 6 फ़रवरी 2022

ग़ज़ल 214 [27 A] : दीवार खोखली है बुनियाद लापता है

 ग़ज़ल [-27 A] ओके


221--2122  // 221--2122

 ग़ज़ल 214[27]


दीवार खोखली है,  बुनियाद लापता है

वह सोचता है खुद को, दुनिया से वह बड़ा है


मझधार में पड़ा है , लेकिन ख़बर न उसको

कहता है ’मुख्यधारा’ के साथ बह रहा  है


आतिश ज़ुबान उसकी, है चाल कजरवी भी

अपने गुमान में है, कुरसी का यह नशा है


देखे भी वो ये दुनिया अपनी नज़र से कैसे

जब भाट-चारणॊं से दिन-रात ही घिरा है 


ग़ैरों की भी ज़ुबाँ है, उसकी ज़ुबाँ में शामिल

जितनी भरी थी चाबी उतना ही वह चला है


वह ख़ून की शहादत में ढूँढता  सियासत

जाने वो खून की क्यों पहचान माँगता है ?


ग़मलों में कब उगे हैं बरगद के पेड़ ’आनन’

लेकिन उसे भरम है क्या सोच में रखा है ।


-आनन्द.पाठक-