शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

ग़ज़ल 215 [81]: दूर जब रोशनी नज़र आई

 ग़ज़ल 215 [81]

2122---1212---22


दूर जब रोशनी नज़र आई

’तूर’ की याद क्यॊं उभर आई ?


लाख रोका, नहीं रुके जब तुम

वक़्त-ए-रुख़सत ये आँख भर आई


ज़िन्दगी के तमाम पहलू थे

राह-ए-उलफ़त ही क्यॊं नज़र आई ?


सर्द रिश्ते पिघलने वाले हैं

धूप आँगन में है उतर आई


तेरे दर पर हम आ गए, गोया

ज़िन्दगी, ज़िन्दगी के घर आई


उम्र अब तो गुज़र गई अपनी

शादमानी न लौट कर आई


दिल तेरा क्यों धड़क रहा ’आनन’

उनके आने की क्या ख़बर आई ?


-आनन्द.पाठक-


कोई टिप्पणी नहीं: