ग़ज़ल 215 [81]
2122---1212---22
दूर जब रोशनी नज़र आई
’तूर’ की याद क्यॊं उभर आई ?
लाख रोका, नहीं रुके जब तुम
वक़्त-ए-रुख़सत ये आँख भर आई
ज़िन्दगी के तमाम पहलू थे
राह-ए-उलफ़त ही क्यॊं नज़र आई ?
सर्द रिश्ते पिघलने वाले हैं
धूप आँगन में है उतर आई
तेरे दर पर हम आ गए, गोया
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी के घर आई
उम्र अब तो गुज़र गई अपनी
शादमानी न लौट कर आई
दिल तेरा क्यों धड़क रहा ’आनन’
उनके आने की क्या ख़बर आई ?
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें