रविवार, 18 फ़रवरी 2024

ग़ज़ल 354/29 : तुम से मैने कभी कुछ कहा ही नहीं --

 


ग़ज़ल 354/29

212---212---212---212--// 212--212--212--212


मैने तुम से कभी कुछ कहा ही नहीं , बेनियाज़ी का ये सिलसिला किसलिए ?

तुमने जो भी कहा मैने माना सभी , फिर भी रहती हो मुझसे ख़फ़ा किसलिए ?


उम्र भर मै तुम्हारा रहा मुन्तज़िर, राह देखा किए आख़िरी साँस तक ,

आजमाना ही था जब मुझे ऎ सनम !बारहा फिर इशारा किया किसलिए।


जानता हूँ न आना, न आओगी तुमसौ बहानों से वाक़िफ़ रहा मेरा दिल

क्या करें दिल है नादान समझा नहींउम्र भर राह देखा किया किसलिए ।


जानता हूँ तुम्हारी मैं मजबूरियाँचाह कर भी न तुम कुछ भी कह पाओगी

इस जमाने का यह कौन सा है करमहाथ में ले के पत्थर खड़ा किसलिए ।


क्या छुपा है जो तुमसे छुपाऊँगा मैं और क्या है जो तुमको न मालूम हो

इक भरम का था परदा रहा उम्र भर, सच उसे मानता मैं रहा किसलिए ?


ज़िंदगी का सफ़र इतना आसाँ नहीं , हर क़दम दर क़दम पर मिले पेच-ओ-ख़म

जो मिला है उसे ही नियति मान लें, जो न हासिल उसे सोचना किसलिए !


तुम रफ़ीक़ों की बातों में फिर आ गई,कान भरना था उनको , भरे चल दिए

तुमने मेरी सफ़ाई सुनी ही कहाँ , बिन सुने ही दिया फिर सज़ा  किसलिए ?


उसकी मुट्ठी खुली तो दिखी, खाक थी, कहते थकता नहीं था कि है लाख की

क्या हक़ीक़त थी सबको तो मालूम था,वह मुख़ौटे चढ़ाए रहा किसलिए ?


तुम भी ’आनन’ कहाँ किस ज़माने के हो,कौन मिलता यहाँ बेसबब बेग़रज़

जिसको समझा किया उम्र भर मोतबर, फेर कर मुंह वही चल दिया किसलिए ?


-आनन्द.पाठक-

मुन्तज़िर = प्रतीक्षक

बारहा = बार बार

मोतबर = विश्वसनीय

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