मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

ग़ज़ल 355/30 : दिल का बयान करते

 


ग़ज़ल 355/30


221---2122  // 221-2122


दिल का बयान करते ये आइने ग़ज़ल के

माजी के है मुशाहिद, नाज़िर हैं आजकल के


एहसास-ए-ज़िंदगी हूँ, जज़्बा भी हूँ, ग़ज़ल हूँ

हर दौर में हूँ निखरी, अहल-ए-ज़ुबाँ में ढल के


अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू है नाज़-ओ-नियाज़ भी है

तहज़ीब ,सादगी भी आदाब हैं ग़ज़ल के 


आती समझ में उसको कब रोशनी की बातें

वो तीरगी से बाहर आता नही निकल के ।


सीने की आग से जो ये खूँ उबल रहा है 

इन बाजुओं से रख दे दुनिया का रुख़ बदल के


हर बार ख़ुद ही जल कर देती सबूत शम्मा’

उलफ़त के ये नताइज़ कहती पिघल पिघल के


जंग-ओ-जदल से कुछ भी हासिल न होगा’आनन’ 

पैग़ाम-ए-इश्क़ सबको मिलकर सुनाएँ चल के ।


-आनन्द.पाठक-


नताइज़ = नतीज़े

मुशाहिद,नाज़िर = प्रेक्षक, observer,गवाह

जंग ओ जदल = लड़ाई झगड़ा युद्ध

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