बुधवार, 8 मई 2024

ग़ज़ल 363/ 28A : गर बन न सका फूल तो--

 



ग़ज़ल 364/28 

221---1221--1221---122-

गर बन न सका फूल तो काँटा न बना कर

चलते हुए राही को  न बेबात चुभा कर  ।


क्या कह रही है प्यार की बहती हुई नदी

रोको न रवानी को मेरे बाँध बना कर ।


झुकने को तो झुक जाएगा दुर्गम ये हिमालय

चलना है अगर चल तो नई राह बना कर ।


मत भूल की वापस तुझे आना है ज़मीं पर

उडना है गगन में भले जितना भी उड़ा कर ।


बालू का घरौंदा है समझता है जिसे घर

चाहे जो समझ ले तू इसे घर न कहा कर ।


वैसे तो मेरे दिल में है इक प्यार का दर्या

गाता है मुहब्बत का सदा गीत, सुना कर।


खाली है मेरे हाथ तो किस बात का है ग़म

आ पास मेरे बैठ इधर , तू भी दुआ कर ।


किस रूप में मिल जायेगा इन्सां में फ़रिश्ता

’आनन’ तू यही सोच के दुनिया से मिला कर ।



-आनन्द.पाठक--


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