रविवार, 23 मई 2021

ग़ज़ल 171 : आँकड़ों से हक़ीक़त छुपाना भी क्या !

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ग़ज़ल 171 

आँकड़ों से हक़ीक़त छुपाना भी क्या
रोज़ रंगीन सपने  दिखाना भी क्या !

सोच में जब भरा  हो  धुआँ ही धुआँ
उनका सुनना भी क्या और सुनाना भी क्या !


वो जमीं के मसाइल न हल कर सके
चाँद पर फिर महल का बनाना भी क्या !

बस्तियाँ जल के जब ख़ाक हो ही गईं
बाद जलने के आना न आना भी क्या !

अब सियासत में बस गालियाँ रह गईं
ऎसी तहजीब को आजमाना भी क्या !

चोर भी सर उठा कर चले आ रहें
उनको क़ानून का ताज़ियाना भी क्या !

लाख दावे वो करते रहे साल भर
उनके दावों का सच अब बताना भी क्या !

इस व्यवस्था में ’आनन’ कहाँ तू खड़ा ,
बस ख़यालों में परचम उठाना भी क्या !

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 
मसाइल = समस्यायें .मसले
ताज़ियाना = चाबुक ,कोड़े

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7 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

क्या बात ..... बहुत धार दार ग़ज़ल .... सियासत पर हर शेर भारी .....

बेहतरीन

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आपकी लिखी  रचना  सोमवार  24 मई  2021 को साझा की गई है ,
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।संगीता स्वरूप 

कविता रावत ने कहा…

व्यवस्था पर तगड़ा प्रहार

Meena sharma ने कहा…

बस्तियाँ जल के जब ख़ाक हो ही गईं
बाद जलने के आना न आना भी क्या !
सच को उजागर करती ग़ज़ल।

रेणु ने कहा…

अब सियासत बस गालियाँ रह गईं
ऎसी तहजीब को आजमाना भी क्या !
चोर भी सर उठा कर चले आ रहें
उनको क़ानून का ताज़ियाना भी क्या !////
सम सामयिक सार्थक रचना आनंद जी | हार्दिक शुभकामनाएं|

Sudha Devrani ने कहा…

वो जमीं के मसाइल न हल कर सके
चाँद पर फिर महल का बनाना भी क्या !
वाह!!!
क्या बात...
बहुत ही लाजवाब।

आनन्द पाठक ने कहा…

आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद---सादर