ग़ज़ल 446[ 20-जी] : लोग अपने आप पर
2122---2122---2122
लोग अपने आप पर इतरा रहे हैं
एक झूठी शान पर इठला रहे हैं ।
उम्र भर दरबार में जो सर झुकाए,
मान क्या, सम्मान क्या, समझा रहे हैं ।
जो जुगाड़ी तन्त्र से पहुँचें यहाँ तक
ठोक सीना वो हुनर बतला रहे हैं ।
ख़ुदसिताई का लगा जब रोग उनको
इक ’सनद’ सौ-सौ जगह चिपका रहे हैं।
मजहबी दीवार जिनको तोड़ना था
नफ़रतें हर शहर में फैला रहे हैं ।
यह जहालत है, हिमाकत है कि जुरअत
दम फ़रेबी का वो भरते जा रहे हैं ।
हैफ़ ! उनको क्या कहें अब और ’आनन’
रोशनी को तीरगी बतला रहे हैं ।
-आनन्द पाठक ’आनन’
हैफ़ = अफ़सोस
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