रविवार, 12 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल 446 [ 20-जी] : लोग अपने आप पर इतरा रहे हैं

 ग़ज़ल 446[ 20-जी] : लोग अपने आप पर


2122---2122---2122

लोग अपने आप पर इतरा रहे हैं
एक झूठी शान पर इठला रहे  हैं ।

उम्र भर दरबार में जो सर झुकाए,
मान क्या, सम्मान क्या, समझा रहे हैं ।

जो जुगाड़ी तन्त्र से पहुँचें यहाँ तक
ठोक सीना वो हुनर बतला रहे हैं ।

ख़ुदसिताई का लगा जब रोग उनको
इक ’सनद’ सौ-सौ जगह चिपका रहे हैं।

मजहबी दीवार जिनको तोड़ना था 
नफ़रतें हर शहर में फैला रहे हैं ।

यह जहालत है, हिमाकत है कि जुरअत
दम फ़रेबी का वो भरते जा रहे हैं ।

हैफ़ ! उनको क्या कहें अब और ’आनन’
रोशनी को तीरगी बतला रहे हैं ।

-आनन्द पाठक ’आनन’

हैफ़ = अफ़सोस


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