मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल 448 [22-जी] : तुम्हारे झूठ का हम ऎतबार क्या करते--

 ग़ज़ल 448 [22-जी] : तुम्हारे झूठ का हम ऎतबार क्या करते--

1212---1122---1212---22

तुम्हारे झूठ का हम ऐतबार क्या करते

न कहना सच है तुम्हें, इन्तज़ार क्या करते।


न सुननी बात हमारी, न दर्द ही सुनना ,

गुहार आप से हम बार बार क्या करते।


ज़ुबान दे के भी तुमको मुकर ही जाना है

तुम्ही बता दो कि तुमसे क़रार क्या करते।


वो साज़िशों में ही दिन रात मुब्तिला रहता,

बना के अपना उसे राज़दार क्या करते ।


हज़ार बार बताए उन्हें न वो समझे ,

न उनको ख़ुद पे रहा इख्तियार क्या करते।


मक़ाम सब का यहाँ एक ही है जब आख़िर

दिल.ए.ग़रीब को हम सोगवार करते ।


सँभाल कर ये पैरहन न रख सके ’आनन’

मज़ीद इसको भला तार तार क्या करते ।



-आनन्द पाठक ’आनन’




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