रविवार, 19 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल 447 [21-जी] : बाग़ मेरा न यूँ लुटा होता

 ग़ज़ल 447[21-जी] : बाग़ मेरा यूँ न लुटा होता

2122---1212---22

बाग़ मेरा न यूँ लुटा होता

बाग़बाँ जो जगा रहा होता ।


हाल ग़ैरों से ही सुना तुमने ,

हाल-ए-दिल मुझसे कुछ सुना होता ।


सर उठा कर जो हम नहीं चलते

सर हमारा कटा नहीं होता ।


राह तेरी अलग नई होती

अपनी शर्तों पे जो जिया होता।


द्वार दिल का जो तुम खुला रखते

लौट कर वह नहीं गया होता ।


वक़्त भरता नहीं अगर मेरा

जख़्म-ए-दिल अब तलक हरा होता।



हुस्न और इश्क़ ग़र न हो ’आनन’

ज़िंदगी का जवाज़ क्या होता ?


-आनन्द.पाठक ’आनन’-

जवाज़ = औचित्य




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