ग़ज़ल 447[21-जी] : बाग़ मेरा यूँ न लुटा होता
2122---1212---22
बाग़ मेरा न यूँ लुटा होता
बाग़बाँ जो जगा रहा होता ।
हाल ग़ैरों से ही सुना तुमने ,
हाल-ए-दिल मुझसे कुछ सुना होता ।
सर उठा कर जो हम नहीं चलते
सर हमारा कटा नहीं होता ।
राह तेरी अलग नई होती
अपनी शर्तों पे जो जिया होता।
द्वार दिल का जो तुम खुला रखते
लौट कर वह नहीं गया होता ।
वक़्त भरता नहीं अगर मेरा
जख़्म-ए-दिल अब तलक हरा होता।
हुस्न और इश्क़ ग़र न हो ’आनन’
ज़िंदगी का जवाज़ क्या होता ?
-आनन्द.पाठक ’आनन’-
जवाज़ = औचित्य
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