बुधवार, 24 मई 2017

एक ग़ज़ल 87 [33]: मेरे भी फ़ेसबुक पे-- [ मज़ाहिया ]


221----2121------1221-----212
मज़ारिअ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु----फ़ाइलातु--- मफ़ाईलु---फ़ाइलुन
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एक [मज़ाहिका ]ग़ज़ल :-



मज़ाहिया ग़ज़ल 
221--2121--1221--212

मेरे भी ’फ़ेसबुक’ पे कदरदान हैं बहुत 
ख़ातून भी, हसीन मेहरबान हैं बहुत   ।

’रिक्वेस्ट फ़्रेंडशिप’ पे हसीना ने यह कहा
" लटके हैं पाँव कब्र में , अरमान हैं बहुत" ।

’अंकल न प्लीज बोलिए, ऎ मेरी नाज़नीन !
’अंकल’ भी आजकल के ये शैतान हैं बहुत ।

बुर्के की खींच ’सेल्फ़ियाँ’ दे के कह उठीं
’इतने ही आप के लिए सामान हैं बहुत ।

’ह्वाट्स’ पे सुबह शाम गुटरगूँ को देख कर
टपकाए लार शेख़ , परेशान हैं बहुत ।

बेगम ने जब ग़ज़ल सुनी , बेलन उठा, कहा
आवारगी के तेरी समाधान हैं बहुत ।

आदत नहीं गई है ’रिटायर’ के बाद भी 
’आनन’ पिटेगा तू कभी इमकान हैं बहुत ।

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टकले से मेरे गाल पे हुस्ना, न जाइयो
पिचके हों भले गाल, मेरी शान हैं बहुत।

पहलू में आ के भी तो जरा बैठिए हुज़ूर !
बाक़ी मेरे इमान मे भी जान है  बहुत ।

-आनन्द पाठक-
इमकान = संभावनाएँ


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