लेकर चलती हो
गुरुवार, 17 जुलाई 2025
चंद माहिए 110/20
लेकर चलती हो
चन्द माहिये: 109/19
चंद माहिए : क़िस्त 109/19
:1:
बदरा बरसै रिमझिम
आग लगाता है
तन में मद्धिम मद्धिम ।
:2:
जल प्लावन कर जाता
बादल जब फटता
मन अपना डर जाता ।
:3:
उड़ता तेरा आँचल
नील गगन में ज्यों
उड़ता रहता बादल ।
:4:
कुछ भी ना कहती हो
अन्दर ही अन्दर
बस घुटती रहती हो ।
:5:
क्या तुम को सुनानी है
जैसे सबकी है
अपनी भी कहानी है ।
-आनन्द.पाठक-
शनिवार, 12 जुलाई 2025
चन्द माहिए 108/18 : सावन पर
क़िस्त: 108/18
:1:
शिव भक्तों के दम से
गूँज रहीं राहें
जय भोले बम बम से ।
2
सावन में मन निर्मल
काँवड़िए निकले
ले ले कर पावन जल ।
:3:
सावन में पावन काम
काँवड़ ले जाना
भोले बाबा के धाम ।
:4:
जय जय बाबा भोले
गूँज उठा मंदिर
जब मिल कर सब बोले ।
:5:
लेकर अपना काँवर
आया हूँ मैं भी
भोले बाबा के घर ।
-आनन्द.पाठक-
यहाँ सुने-
कविता 031: एक आदमी सड़क पर
[ स्व0] कवि धूमिल जी की प्रेरणा से और क्षमा याचना सहित ]
कविता 031: एक आदमी सड़क पर---
दूसरे आदमी को पीट रहा है।
एक तीसरा आदमी भी है
जो न पीट रहा है, न पिट रहा है
न रोक रहा है।
वह मोबाइल से *रील* बना रहा है चैन से।
मैं पूछता हूँ वह तीसरा आदमी कौन है?
समाज इस पर मौन है ।
-आनन्द.पाठक-
शुक्रवार, 11 जुलाई 2025
चन्द माहिए 107/17
चन्द माहिए : 107 /17
:1:
लेकिन मन भी क्या
उतना ही सच्चा है ?
सोमवार, 7 जुलाई 2025
ग़ज़ल 442 [16-G) : आदमी में शौक़-ए-उल्फ़त --
ग़ज़ल 442[16-जी] : आदमी में शौक़-ए-उलफ़त
2122---2122---2122---212
सोच में हो सादगी, दिल में दियानत चाहिए ।
साँस ले ले कर ही जीना ज़िंदगी काफी नहीं
ज़िंदगी के रंग में कुछ और रंगत चाहिए ।
अह्ल-ए-दुनिया आप की बातें सुनेगे एक दिन
आप की आवाज़ में कुछ और ताक़त चाहिए ।
जब कि चेहरे पर तुम्हारे गर्द भी है दाग़ भी
सामने जब आईना , फिर क्या वज़ाहत चाहिए ।
कश्ती-ए-हस्ती हमारी और तूफ़ाँ सामने
ख़ौफ़ क्या, बस आप की नज़र-ए-इनायत चाहिए।
जानता हूँ ज़िंदगी की राह मुशकिल, पुरख़तर
आप की बस मेहरबानी ता कयामत चाहिए ।
ढूँढता हर एक दिल ’आनन’ सहारा , हमनशीं
मौज-ए-दर्या को भी साहिल की कराबत चाहिए ।
-आनन्द.पाठक-
बुधवार, 2 जुलाई 2025
ग़ज़ल 441-[15-जी ]: उनको अना ग़ुरूर का ऐसा चढ़ा--
ग़ज़ल 441[15-G] :
221---2121---1221---212
उनको अना, गुरूर का ऐसा चढ़ा नशा
ख़ुद को वो मानने लगे हैं आजकल ख़ुदा ।
हर दौर के उरूज़ का हासिल यही रहा
परचम बुलंद था जो कभी खाक में मिला ।
रुकता नहीं है वक़्त किसी शख़्स के लिए
तुम कौन तीसमार हो औरों से जो जुदा ।
जिसकी क़लम बिकी हो, ज़ुबाँ भी बिकी हुई
सत्ता के सामने वो भला कब हुआ खड़ा ।
जो सामने सवाल है उसका न ज़िक्र है
बातें इधर उधर की वो कब से सुना रहा ।
क़ायम है ऎतिमाद तो क़ायम है राह-ओ-रब्त
वरना तो आदमी न किसी काम का हुआ ।
’आनन’ ज़रा तू सोच में रद्द-ओ-बदल तो कर
फिर देख ज़िंदगी कभी होती नहीं सज़ा ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
उरूज़ = उत्त्थान, विकास
ऎतिमाद = विश्वास , भरोसा
राह-ओ-रब्त = मेल जोल, मेल मिलाप, दोस्ती