शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल

122---122---122---122

जिन्हें कुछ न करना, न दुख ही जताना
ग़म.ए.दिल फिर अपना उन्हें क्या सुनाना

अँधेरों की ही वह हिमायत है करता
कभी रोशनी के वह म'आनी न जाना

जिसे सरफिरा कह के ख़ारिज़ किया है
बदल देगा इक दिन वही यह जमाना

वो कहता है कुछ और कुछ सोचता है
पलट जाने का वह खिलाड़ी पुराना ।

वो परचम लिए झूठ का चल रहा है
वही चंद बेजान नारे लगाना ।

सियासत में उसको सभी लगता जायज़
लहू हो बहाना कि बस्ती जलाना ।

तकारीर उनकी तो कुछ और 'आनन'
हक़ीक़त में उनको अमल में न लाना ।

-आनन-

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

ग़जल

2122  --1212--22
रोज़ सपनें नए दिखाता है
जाने क्या क्या हमें बताता है

यह हुनर है कमाल है उसका
वो हवा में महल बनाता है

आग-सा वह बयान दे दे कर
बारहा वह हमें डराता है ।

जब तलक 'वोट' की ज़रूरत है
दर पे आकर वह सर झुकाता है

छोड़िए बात क्या करें उसकी
खु़द की गैरत जो बेच खाता है

साज़िशों मे रहा मुलव्वस वह
खुद को मासूम-सा दिखाता है

खुद गरज हो गया है वो, 'आनन'
खुद से आगे न देख पाता है ।

-आनन-