ग़ज़ल 162 [ 01 E]
212---212---212---212
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन
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एक ग़ज़ल 162 [01E]
212---212---212---212
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन
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एक ग़ज़ल 162 [01E]
212---212--212--212
हर जगह झूठ ही झूठ की है ख़बर
पूछता कौन है अब कि सच है किधर?
पूछता कौन है अब कि सच है किधर?
इस कलम को खुदा इतनी तौफीक़ दे
हक़ पे लड़ती रहे बेधड़क उम्र भर
बात ज़ुल्मात से जिनको लड़ने की थी
बेच कर आ गए वो नसीब-ए-सहर
जो कहूँ मैं, वो कह,जो सुनाऊँ वो सुन
या क़लम बेच दे, या ज़ुबाँ बन्द कर
उँगलियाँ ग़ैर पर तुम उठाते तो हो
अपने अन्दर न देखा कभी झाँक कर
तेरी ग़ैरत है ज़िन्दा तो ज़िन्दा है तू
ज़र्ब आने न दे अपनी दस्तार पर
एक उम्मीद बाक़ी है ’आनन’ अभी
रात बीतेगी होगी नई इक सहर ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ -
ज़ुल्मात से = अँधेरों से
सहर = सुबह
दस्तार पर = पगड़ी पर, इज्जत पर
प्र0 27-09-22
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