212---212---212---212
ग़ज़ल 163 [36D]
इश्क़ की राह पर चल दिए हो, अगर
ख़ौफ़ क्यों हो ,भले रास्ता पुरख़तर ?
इत्तिफ़ाक़न कभी आप आएँ इधर
देखिए ज़ौक़-ए-दिल, मेरा ज़ौक़-ए-नज़र
फिर न आये कभी उम्र भर होश में
देख ले आप को जो कोई भर नज़र
इश्क़ में डूब कर आप भी देखिए
कौन कहता है यह बेसबब दर्द-ए-सर
ये अलग बात है वो न अपना हुआ
उम्र भर जिसको समझा था लख़्त-ए-जिगर
खुद ही चल कर वो आयेंगे दर पर मेरे
मेरी आहों का होगा अगर पुरअसर
तुमने ’आनन’ को देखा, न जाना कभी
उसका सोज़-ए-दुरूँ और रक्स-ए-शरर
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
पुरख़तर = ख़तरों से भरा हुआ
ज़ौक़-ए-दिल = दिल की अभिरुचि
ज़ौक़-ए-नज़र = प्रेम भरी दॄष्टि
लख़्त-ए-जिगर - जिगर का टुकड़ा
सोज़-ए-दुरुँ = दिल की आग [प्रेम की]
रक्स-ए-शरर = [प्रेम की] चिंगारियों का नाच
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें