ग़ज़ल 164
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़
2122---1212---22
फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन-- फ़अ’ लुन
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जब कभी सच फ़लकसे उतरा है,
झूठ को नागवार गुज़रा है।
बाँटता कौन है चिराग़ों को ,
रोशनी पर लगा के पहरा है?
ख़ौफ़ आँखों के हैं गवाही में,
हर्फ़-ए-नफ़रत हवा में बिखरा है।
आग लगती कहीं, धुआँ है कहीं !
राज़ यह भी अजीब गहरा है ।
खिड़कियाँ बन्द अब नहीं खुलतीं,
जब उजाला गली में उतरा है ।
दौर-ए-हाज़िर की यह हवा कैसी?
सच भी बोलूँ तो जाँ पे ख़तरा है ।
आज किस पर यकीं करे ’आनन’
कौन अपनी ज़ुबाँ पे ठहरा है ?
-आनन्द.पाठक-
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