बुधवार, 14 जुलाई 2021

ग़ज़ल 183 : सौगंध संविधान की --

 ग़ज़ल 183: सौगंध संविधान की

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सौगंध  संविधान की खाता है आजकल
’जयचन्द’ से भी हाथ मिलाता है आजकल

नाकामियों का ठीकरा औरो पे फोड़ता
मासूम सी वह शक्ल बनाता है आजकल

जब बाजुओं पे उसको भरोसा नहीं रहा
’तोते’ को अपना हाथ दिखाता है आजकल

नाआशना वो इश्क से ,महरूम प्यार से
नफ़रत जगा के आग लगाता है आजकल

वह दिन हवा हुए कि चमन में बहार थी
पंछी भी कोई अब नहीं गाता है आजकल

करता है संविधान की बातें बड़ी बड़ी
अब नाख़ुदा भी नाव डुबाता है आजकल

दुनिया की बात और है ’आनन’ की बात और
अपनी वो राह खुद ही बनाता है आजकल


-आनन्द.पाठक-


1 टिप्पणी:

अनीता सैनी ने कहा…

वाह!क्या ख़ूब कहा।
सादर