ग़ज़ल 225 [89 D]
1222-----1222-----1222----1222
मुलव्विस हूँ हमेशा मै, गुनाहों में, ख़ताओं में
मगर वो याद रखता है, मुझे अपनी दुआओं मे
रहूँ या ना रहूँ कल मैं ग़ज़ल मेरी मगर होगी
जो ख़ुशबू बन के फैलेगी ज़माने की हवाओं में
नजूमी तो नहीं हूँ मैं मगर इतना तो कह सकता
सुनाऊँ दास्ताँ अपनी तो गूँजेंगी फ़िज़ाओं में
कभी शे’र-ओ-सुख़न मेंरे सुनोगे जो अकेले में
छ्लक आएँगे दो आँसू तुम्हारी भी निगाहों में
रफ़ाक़त अब नहीं वैसी कि पहले थी कभी जैसी
मगर शामिल रहोगी तुम सदा मेरी दुआओं में
नज़ाक़त भी, तबस्सुम भी, लताफ़त भी, क़यामत भी
कहीं मैं खो नहीं जाऊँ तुम्हारी इन अदाओं में
खला में बारहा तुमको पुकारा नाम ले ’आनन’
सदा आती है किसकी लौट कर आती सदाओं में।
-आनन्द.पाठक-
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