1222--1222--1222-1222
ग़ज़ल 229 [40 D]
अगर सच से न घबराते, तो मंज़र और कुछ होता
गुनाहों से जो बाज़ आते, तो मंज़र और कुछ होता
गुनाहों से जो बाज़ आते, तो मंज़र और कुछ होता
तुम्हारे हाथ में माचिस, चिराग़ों को जलाते तुम
उजाला दिल में फैलाते, तो मंज़र और कुछ होता
बना कर सीढ़ियाँ तुमको, वो तख़्त-ओ-ताज तक पहुँचे
अगर तुम बिक नहीं जाते, तो मंज़र और कुछ होता
बना ली दूरियाँ तुमने, इन आक़ाओं के कहने पर
न कहने में अगर आते , तो मंज़र और कुछ होता
डराते हैं तुम्हे हर दिन, कहीं यह ’वोट’ ना फिसले
अगर तुम डर नहीं जाते, तो मंज़र और कुछ होता
ग़रज उनकी जो होती है, तुम्हे मोहरा बनाते है
न आपस में वो लड़वाते, तो मंज़र और कुछ होता
यहाँ पर कौन है किसका, सभी मतलब के हैं ’आनन’
कभी तुम बेग़रज़ आते, तो मंज़र और कुछ होता
-आनन्द.पाठक-
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