ग़ज़ल 230 [94 D]
1222---1222---1222---1222
ख़ुदाया ! काश वह मेरा कभी जो हमनवा होता
उसी की याद में जीता, उसी पर दिल फ़ना होता
कभी तुम भी चले आते जो मयख़ाने में ऎ ज़ाहिद !
ग़लत क्या है, सही क्या है, बहस में कुछ मज़ा होता
किसी के दिल में उलफ़त का दिया जो तुम जला देते
कि ताक़त रोशनी की क्या ! अँधेरों को पता होता
उन्हीं से आशनाई भी , उन्हीं से है शिकायत भी
करम उनका नहीं होता तो हमसे क्या हुआ होता
नज़र तो वो नहीं आता, मगर रखता ख़बर सब की
जो आँखें बन्द करके देखता, शायद दिखा होता
वो आया था बुलाने पर, वो पहलू में भी था बैठा
निगाहेबद नहीं होती , न मुझसे वो ख़फ़ा होता
निहाँ होना, अयाँ होना, पस-ए-पर्दा छुपे रहना
वो बेपरदा चले आते समय भी रुक गया होता
हसीनों की निगाहों में बहुत बदनाम है ’आनन’
हसीना रुख बदल लेतीं, कभी जब सामना होता
-आनन्द.पाठक-
पोस्टॆड 30-04-22
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