ग़ज़ल 228 [92 D]
1222--1222---1222--1222
सबक़ उलफ़त का पढ़ आते ,नज़ारा और कुछ होता
अगर नफ़रत न फैलाते , नज़ारा और कुछ होता ।
जहाँ पत्थर थे बरसाए, जहाँ तलवार लहराए
वहाँ गर फूल बरसाते ,नज़ारा और कुछ होता ।
जलाते जा रहे हो बस्तियाँ, दूकाँ ,मकाँ ,छप्पर
ज़हानत पर उतर आते, नज़ारा और कुछ होता ।
अगर तुम क़ैद ना करते चमन के रंग, ख़ुशबू तो
सुमन हर डाल खिल जाते, नज़ारा और कुछ होता ।
फ़रेबी रहनुमाओं के जो चालों में न तुम फँसते
निकल बाहर चले आते, नज़ारा और कुछ होता ।
सियासत भी है मज़हब में, बने हैं क़ौम के लीडर
इरादे जो समझ जाते ,नज़ारा और कुछ होता ।
इधर भी सरफ़िरे कुछ हैं उधर भी सरफ़िरे ;आनन’
तराने प्यार के गाते, नज़ारा और कुछ होता ।
आनन्द.पाठक
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