शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

गीत 74 : कहने को तो शिल्पी हैं

  गीत 74


कहने को तो शिल्पी हैं कुछ शब्द रचा करते हैं

लेकिन कितने भाव है कि अव्यक्त रहा करते हैं


शब्द अगर हों अस्त-व्यस्त तो भाव कहाँ तक ठहरे

सही शब्द हो सही जगह पर अर्थ हुए हैं गहरे

आँसू की हर एक बूँद है कहती एक कहानी ,

बाँधू कैसे शब्दों में जब अक्षर अक्षर  बिखरे ।


जब तक पारस परस न हो तो शब्द नहीं खिल पाते

शब्द कोश में पड़े पड़े अभिशप्त  रहा करते हैं ।


पत्थर तो पत्थर ही रहता शिल्पकार ना मिलता

अनगढ़ पत्थर में जब तक वह रंग-प्राण ना भरता

अपने कौशल कला शक्ति से ऐसे शैल तराशे

बोल उठा करती हैं प्रतिमा जब जब पत्थर गढ़ता


भाषा नहीं कला की कोई भाव-भंगिमा होती

जब जब बातें करती, हम आसक्त रहा करते हैं


माँ की ममता का शब्दों से कैसे थाल सजाऊँ ?

या विरहिन के आँसू का मैं दर्द कहाँ कह पाऊँ ?

कल कल करती नदिया बहती रहती अपनी धुन में

उसी राग में उसी लहर पर कैसे गीत सुनाऊँ ?


गूंगे के गुड़-सी अनुभूति व्यक्त कहाँ हो पाती ?

जितना संभव गाते हैं , आश्वस्त रहा करते हैं ।


-आनन्द.पाठक-


2 टिप्‍पणियां:

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

सुन्दर रचना

आनन्द पाठक ने कहा…

आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद--सादर