ग़ज़ल 194
221---1222 // 221-1222
ख़ामोश रहोगे तुम, दुनिया तो ये पूछेगी
कल तुम भी रहे शामिल, क्या आग लगाने में ?
तू लाख गवाही दे, सच ला के खड़ा कर दे
आदिल ही लगा जब ख़ुद, क़ातिल को बचाने में
मसरूफ़ बहुत हो तुम, मसरूफ़ इधर हम भी
नाकाम रहे दोनो, इक पल को चुराने में
इमदाद तो करता है, एहसाँ भी जताता है
ग़ैरत है जगी अपनी, दस्तार बचाने में
दो-चार क़दम पर था, दर तेरा मेरे दर से
तय हो न सका वह भी, ता उम्र ज़माने में
सुनने में लगे आसाँ, यह इश्क़ इबादत है
हो जाती फ़ना साँसे, इक प्यार निभाने में
वो ज़िक्र न आयेगा, उन वस्ल की रातों का
क्या ढूँढ रही हो तुम, ’आनन’ के फ़साने में
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें