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फ़ाइलुन-फ़ाइलुन-फ़ाइलुन-फ़अ’
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन महजूज़
ग़ज़ल 197
वह अँधेरे में इक रोशनी है
एक उम्मीद है, ज़िन्दगी है
एक दरिया है और एक मैं हूँ
उम्र भर की मेरी तिश्नगी है
नाप सकते हैं हम आसमाँ भी
हौसलों में कहाँ कुछ कमी है
ज़िक्र मेरा न हो आशिक़ी में
यह कहानी किसी और की है
लौट कर फिर वहीं आ गए हो
राहबर ! क्या यही रहबरी है ?
सर झुका कर ज़ुबाँ बन्द रखना
यह शराफ़त नहीं बेबसी है
आजकल क्या हुआ तुझ को ’आनन’
अब ज़ुबाँ ना तेरी आतशी है ।
-आनन्द.पाठक-
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