2212---1212---1212--12
ग़ज़ल 195
जो शख़्स पढ़ रहा था ख़ुशगवार आँकड़े
वह शख़्स मर गया कतार में खड़े खड़े
पूछा किसी ने हाल मेरी ज़िंदगी का जब
दो बूँद आँसुओं के बारहा निकल पड़े
गुमनामियों में खो गए किसी को क्या ख़बर
तारीकियॊं से जो तमाम उम्र थे लड़े
कालीन-सा वो बिछ गए बस एक ’फोन’ पर
जिनसे उमीद थी कि लेंगे फ़ैसले कड़े
पुतले थे बीस फ़ुट के शह्र में लगे हुए
बौनी थी जिनकी शख़्सियत, थे नाम के बड़े
रहबर तुम्हारी रहबरी में शक तो कुछ नहीं
जाने को था किधर कि तुम किधर को चल पड़े
’आनन’ तुम्हारी बात में न वो तपिश रही
दरबारियों के साथ जब से तुम हुए खड़े
-आनन्द.पाठक-
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