ग़ज़ल 196
122----122-----122------122
किसी से वफाई किसी से ख़फ़ा हूँ
किया जो नहीं जुर्म उसकी सज़ा हूँ
किसी के लिए एक बदनाम शायर
किसी के लिए एक दस्त-ए-दुआ हूँ
कहीं भी रहो ढूँढ लेंगी निगाहें,
भले तुम छुपे, मैं न तुमसे छुपा हूँ
ज़रा आसमाँ से उतर कर तो देखो
तुम्हारे लिए क्या से क्या हो गया हूँ
भरी बज़्म में ज़िक्र तेरा न आया
वो महफ़िल वहीं छोड़ कर आ गया हूँ
मुझे क्या है लेना कलीसा हरम से
मुहब्बत में तेरी हुआ मुबतिला हूँ
अगर तुम ज़ुबाँ से सुनाना न चाहो
निगाहों से अपनी तुम्हें पढ़ रहा हूँ
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ ।
-आनन्द.पाठक-
1 टिप्पणी:
ग़ज़ल का हर एक शेर बेमिसाल है पर मक़्ता ज़बरदस्त हुआ है।
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