रविवार, 17 मई 2009

एक कविता 03 : प्यासी धरती प्यासे लोग ....

कविता 03

प्यासी धरती प्यासे लोग !

इस छोर तक आते-आते
सूख गई हैं कितनी नदियाँ
दूर-दूर तक रह जाती है
बंजर धरती ,रेत, रेतीले टीले
उगती है बस झाड़-झाडियाँ
पेड़ बबूल के तीखे और कँटीले
हाथों में बन्दूक लिए ए०के० सैतालिस
साए में भी धूप लगे है

'बुधना' की दोआँखे नीरव
 प्यास भरी है
सुना कहीं से
'दिल्ली' से चल चुकी नदी है
आयेगी  उसके भी गाँव
ताल-तलैया भर जायेंगे
हरियाली फ़िर हो जायेगी
हो जायेगी धरती सधवा

लेकिन कितना भोला 'बुधना'
नदियाँ इधर नहीं आती हैं
उधर खड़े हैं बीच-बिचौलिए
'अगस्त्य-पान' करने वाले
मुड़ जाती है बीच कहीं से
कुछ लोगों के घर-आँगन में
शयन कक्ष में
वर्ष -वर्ष तक जल-प्लावन है

कहते हैं वह भी प्यासे
प्यासे वह भी,प्यासे हम भी
दोनों की क्या प्यास एक है?
"परिभाषा में शब्द-भेद है "

-आनन्द.पाठक-
[सं 08-07-18]
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3 टिप्‍पणियां:

Alpana Verma ने कहा…

'दिल्ली' से नदियाँ चलती है
आयेगी उसके भी गाँव
ताल-तलैया भर जायेंगे
'jal-samsya 'ke madhym se apni baat ko bhali bhaanti abhivyakt karti teeno rachnaye achchee hain.

आनन्द पाठक ने कहा…

प्रिय अल्पना जी !
'दिल्ली' से नदियाँ चलती है’- -- से मेर आशय था कि गरीबो के लिए योजनाए तो बहुत बनती है "दिल्ली" मे मगर फ़ायदा बहुत कम ही मिलता है गावो को
"वैसे तो योजनाए ’हिम-खण्ड’ की तरह
पिघली तो भाप बन कर जाने किधर गई

हम बून्द बून्द तरसे मेरी नियति रही
बरसी घटा भी उनके आगन बरस गई

Alpana Verma ने कहा…

jee haan ,jee haan Anand ji :),
kavita main samjh gayi thi ,
isee liye main ne comment mein likha tha--
--'ki aapne kavita mein 'jal -samsya 'ke madhym se[indirectly] 'apni baat' ko bhali bhaanti abhivyakt kiya hai...'


ab prati tippani mein aap ne 'apni baat' ki vyakhya de di hai.

-bahut samayik aur sarthak rachna hai.

abhaar.