ग़ज़ल 451 [ ] ज़ुबाँ दे कर किसी को --
1222---1222-----1222-
ज़ुबाँ देकर किसी को, फिर मुकर जाना
मगर उसने इसे अपना हुनर माना ।
मुहब्बत में फ़ना की बार करता है
न आता इश्क़ में जिसको तड़प जाना ।
पढ़ा वो भी जो लिख्खा था नहीं तुमने ,
उभर आया था ख़ुद ही हर्फ़-ए-अफ़साना ।
तुम्हारी बेनियाज़ी बेरुखी का भी--
नहीं उनका कभी मैने बुरा माना ।
तलाश-ए-हक़ में मुद्दत से भटकता हूँ
तलाश-ए-हक़ में मुद्दत से भटकता हूँ
जो अंदर है उसे अबतक न पहचाना ।
तुम्हारी बात भी सुन लेंगे ऎ ज़ाहिद!
अभी चलते हैं दोनों साथ मयख़ाना ।
यही इक आरज़ू है आख़िरी ’आनन’
निकलता दम हो जब मेरी, चले आना ।
-आनन्द.पाठक ’आनन’-
यही इक आरज़ू है आख़िरी ’आनन’
निकलता दम हो जब मेरी, चले आना ।
-आनन्द.पाठक ’आनन’-
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