ग़ज़ल 458 [32-जी] : वह आदमी है ऐसा,
221---2122-// 221--2122
वह आदमी है ऐसा, ख़ुद को बड़ा दिखाता
बैठा जहाँ घड़ी भर, अपना ही गीत गाता ।
सब को बता रहा है, ख़ुद को वो इन्क़्लाबी
सत्ता की सीढ़ियों पर जो पूँछ है हिलाता ।
मैने ये तीर मारा , मैने वो तीर मारा
शेखी बघारता है, किस्सा वो जब सुनाता ।
वह बाँटता फिरे है, सौगात हर ’इलेक्शन’
जुमले नए नए गढ़, फिर ख़्वाब है दिखाता ।
खुद को समझ रहा है , सबसे बड़ा वो ज्ञानी
हर मामले में अपनी , बस टाँग है अड़ाता ।
बाते तमाम उसकी होती हवा हवाई -
कैसे करें भरोसा क्या सच कि वह बताता ।
’आनन’ बचाना ख़ुद को, बस दूर ही से मिलना
सुनते है उसका काटा, पानी न माँगता है ।
-आनन्द पाठक ’आनन’-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें