रविवार, 14 दिसंबर 2025

ग़ज़ल 453 [ 27-जी] : नहीं छुपती छुपाने से

 ग़ज़ल 453 [ 27-जी] : नहीं छुपती मुहब्बत है जमाने में
1222---1222---1222---1222-

नहीं छुपती मुहब्बत है जमाने में छुपाने से  ।
बयां सब राज़ हो जाते निगाहों के झुकाने से ॥

समझ जाती है दुनिया यह, सही क्या है ग़लत क्या है
निगाहों की बयानी से, ज़ुबाँ के लड़खड़ाने से ।

हवा में गूँजती रहती, मुहब्बत के हैं अफ़साने
नहीं मरती कभी यादें किसी के दूर जाने से ।

मनाज़िल और भी तो हैं नहीं बस एक ही मंज़िल
उमीदे जाग जाती हैं ज़रा हिम्मत जगाने से ।

निकाब-ए-रुख उठा कर वह कभी आएँगे इस जानिब
इसी उम्मीद में बैठा हुआ हूँ, इक ज़माने से ।

मरासिम अब नहीं वैसे कि जैसे थे कभी पहले
कि दिल गुलज़ार था अपना तुम्हारे आने जाने से ।

अगर दिल पाक हो ’आनन’ अना की क़ैद ना हो तो
नहीं कुछ दूसरा बढ़ कर मुहब्बत के ख़ज़ाने से।

-आनन्द.पाठक ’आनन’--



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