ग़ज़ल 456 [30-जी] : अब न मिलता कोई शख़्स है--
212---212---212---212
212---212---212---212
अब न मिलता कोई शख़्स है मोतबर
जिस पे कर लूँ भरोसा मैं दिल खोल कर
तुमको खुशबू मिले जो कभी राह में
सोचना यह थी उनकी कभी रहगुज़र
सोचना यह थी उनकी कभी रहगुज़र
तुम मिले क्या मुझे दिल ये रोशन हुआ
इक अंँधेरे में जैसे हो शम्स-ओ-क़मर
वक़्त ने क्या न ढाए हैं मुझ पर सितम
फिर भी बिखरा नहीं हूँ अभी टूट कर
तेरी चाहत जिधर ले क चल तू मुझे
तू ही रस्ता दिखा ऎ मेरे राहबर ।
ढूँढता ही रहा , गो न हासिल हुआ
ख़्वाब में एक चेहरा रहा उम्र भर
चल दिए हो जो ’आनन’ रह-ए-इश्क़ में
कू-ए-जानाँ से आना नहीं लौट कर ।
कू-ए-जानाँ से आना नहीं लौट कर ।
-आनन्द पाठक ’आनन’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें