ग़ज़ल 457 [31-जी]
212---212---212---212
212---212---212---212
ख़्वाब में जब से देखा है अक्स-ए-क़मर
जुस्तजू बस उसी का रहा उम्र भर ।
दिल जो होने लगा आरिफ़ाना अगर
तो समझना कि होने को है इक सहर ।
ख़ुशनुमा एक एहसास होता तो है
वह भले ही न आता कहीं हो नज़र ।
जब तलक लौ लगी थी नहीं आप से
मन भटकता रहा बस इधर से उधर ।
बात कैसे सुनोगे, वह क्या कह रहा
दिल पे ग़ालिब तुम्हारे है जब शोर-ओ-सर ।
यूँ ही सजदे में रहने से क्या फ़ायदा
सर तो सजदे में है और तू बाख़बर ।
आख़िरत से तू ’आनन’ परेशान क्यों
राह-ए-हक़ में अगर है तो क्या ख़ौफ़ डर ।
-आनन्द पाठक ’आनन’-
अक्स-ए-क़मर = चाँद की छवि
ग़ालिब = प्रभाव
शोर-ओ-सर = कोलाहल
आख़िरत से = परलोक से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें