सोमवार, 17 जनवरी 2022

कविता 12 : गिद्ध नहीं वह

 कविता 12 


गिद्ध नहीं वो

दॄष्टि मगर है गिद्धों जैसी

और सोच भी उनकी वैसी ।

हमें लूटते कड़ी धूप में 

खद्दरधारी टोपी पहने ।

रंग रंग की कई टोपियाँ

श्वेत-श्याम हैं और गुलाबी

नीली, पीली, लाल ,हरी हैं

’कुरसी’ पर जब नज़र गड़ी है

’जनता’ की कब किसे पड़ी है

ढूँढ रही हैं ज़िन्दा लाशें

पाँच बरस की ”सत्ता’ जी लें


ऊँची ऊँची बातें करना

हर चुनाव में घातें करना

हवा-हवाई महल बनाना

शुष्क नदी में नाव चलाना

झूठे सपने दिखा दिखा कर 

दिल बहलाना, मन भरमाना

संदिग्ध नहीं वो

सोच मगर संदिग्धों जैसी

गिद्ध नहीं वो 

दॄष्टि मगर है गिद्धों जैसी ।


-आनन्द.पाठक-


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