रविवार, 30 जनवरी 2022

ग़ज़ल 211 [17] : दो-चार गाम रह गया था

 ग़ज़ल 211[17]


2212----1212---1212--1212

बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम मख्बून 


दो चार-गाम रह गया था मंज़िलों का फ़ासिला

गुमराह कर दिया है मेरे राहबर ने क़ाफ़िला


उम्मीद रहबरी से थी. यक़ीन जिस पे था मुझे

झूठे सपन दिखा दिखा दिखा के रहजनों से जा मिला


कुछ हादिसों से सामना कुछ और साजिशें रहीं

इस तरह से चल रहा था ज़िन्दगी का सिलसिला


कुछ ख़ास प्रश्न यक्ष के, सवाल ज़िन्दगी के भी

लेकिन जवाब आदमी से कब सही सही मिला


जब चन्द साँस मर गया तो एक साँस जी सका

दो चार दिन हँसी ख़ुशी फिर आँसुओं का सिलसिला


फ़ुरसत कभी मिली नहीं कि  खुद से ख़ुद जो मिल सकूँ

तेरे ख़याल-ओ-ख़्वाब में ये दिल मेरा था मुबतिला


दुनिया हसीन है, अगर तू प्यार की नज़र से देख

’आनन’ कभी किसी के दिल में फूल प्यार का खिला


-आनन्द.पाठक-


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