ग़ज़ल 209[57 A] :
मूल बह्र
21--121--121--121---122 =20
’’
’कथनी’ में क्या क्या न कहा करते हैं
’करनी’ पर मुँह फेर लिया करते हैं
घोटालों में जीने मरने वाले
ऊपर
से ही पाक दिखा करते हैं
आँसू उतने क्षार नहीं हैं मेरे
जितने उनके हास लगा करते हैं
सोच रहे है वो कि दुनिया मुठ्ठी में
किस दुनिया में लोग रहा करते हैं
नफ़रत हिंसा आग लगाने वाले
माचिस अपने साथ रखा
करते हैं
देश भरा है जब तक गद्दारों से
किस भारत की बात किया करते हैं
हम
गमलों के पौध नहीं हैं ,’आनन’
धूप
कड़ी हो तो भी जिया करते हैं
-आनन्द.पाठक-
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