शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

अनुभूतियाँ 173/60

689
साथ अगर ना तुम होते तो
कैसे कठिन सफर यह कटता
प्राण वायु ही जब ना हो तो
इस तन का फिर क्या मैं करता

690
नदिया की यह चंचल लहरें
साहिल से क्या क्या बतियाती
चाहे हों पथरीली राहें -
गीत मिलन के गाती जाती

691
मै कैसे यह खुद बतलाता
पूछा तुमने, बात बता दी
बदन तुम्हारा संग़़-ए-मरमर
ओठ गुलाबी, नैन शराबी

692
मन के अंदर द्वंद बहुत है
ग्रंथ कहे कुछ मन कुछ कहता
तेरे घर की राह अनेको
ज्ञानी भी उलझन मे रहता 

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 172/59

 अनुभूतियाँ 172/59

685

बंजारों-सा यह जीवन है

साथ चला करती है माया

साथ साँस जैसे  चलती है

जहाँ जहाँ चलती है काया


686

समय कहाँ रुकता है, प्यारे !

धीरे धीरे चलता रहता ।

अपने कर्मों का जो फ़ल हो

इसी जनम में मिलता रहता ।


687

प्यास मिलन की क्या होती है

भला पूछना क्या आक़िल से 

वक़्त मिले तो कभी पूछना 

किसी तड़पते प्यासे दिल से । 


688

मन का जब दरपन ही धुँधला

खुद को कैसे पहचानोगे ?

राह ग़लत क्या, राह सही क्या

आजीवन कैसे जानोगे ?


-आनन्द.पाठ्क-

[ आक़िल = अक्ल वाला ]


गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

अनुभूतियाँ 171/58

 अनुभूतियां~ 171/58

681

जीवन चलता रहता अविरल

कहीं कठिन पथ, कहीं सरल है

जीवन इक अनबूझ पहेली

कभी शान्त मन ,कभी विकल है ।

682

सोन चिरैया रोज़ सुनाती

अपनी बीती नई कहानी

कभी सुनाती खुल कर हँस कर

कभी आँख में भर कर पानी ।


683

जब से तुम वापस लौटी हो

लौटी साथ बहारें भी हैं ।

चाँद गगन में अब हँसता है

साथ हँस रहे तारे भी हैं ।


684

अगर समझ में कमी रही तो

कब तक रिश्ते बने रहेंगे

स्वार्थ अगर मिल जाए इसमे

कब तक रिश्ते बचे रहेंगे ।


-आनन्द.पाठक-

रविवार, 23 फ़रवरी 2025

विविध 09 : अजय अज्ञात जी से एक मुलाक़ात 23-02-25

विविध 09 : अजय अज्ञात जी से एक मुलाक़ात 23-02-25

मित्रो ! \

अजय कुमार शर्मा "अज्ञात ’सोशल मीडिया, साहित्यिक मंचों का एक जाना पहचाना नाम है । आप एक साहित्यिक संस्था ; परवाज-ए-ग़ज़ल’ के संस्थापक है ।एक साहित्य- प्रेमी, एक ग़ज़लकार है और कई साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित भी हो चुके हैं। आप लगभग एक दर्जन साझा-संकलन का सम्पादन कर चुके हैंऔर आप के स्वयं के  कई गज़ल संग्रह/ काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

आप द्वारा संपादित नवीनतम साझा ग़ज़ल संग्रह -"हरियाणा के शायरों की प्रतिनिधि ग़ज़लें-मंज़र-ए-आम हो चुकी है जिसमें हरियाणा के गण्यमान/उदीयमान गज़लकारों के गज़लें संग्रहित है । यह उनका प्रेम ही कहिए कि इस संग्रह में इस हक़ीर की भी एक ग़ज़ल संकलित है।

  आज दिनांक 23-02-2025 को अजय ’अज्ञात ’ जी स्वयं चल कर मेरे निवास स्थान ’ गुड़गाँव’ पर पधारे और "हरियाणा के शायरों की प्रतिनिधि ग़ज़लें" एक प्रति  अपने हाथों से मुझे भेंट की।  साथ ही अपनी दो और किताबे--हमराह [ ग़ज़ल संग्रह] और गुहर-ए-नायाब [ सह-स्म्पादित]भी भेट की।

निश्चय ही यह मेरे लिए गौरव और सम्मान का क्षण था। एक विशेष गौरवानुभूति हुई।

  इन संग्रहो को फ़ुरसत में विस्तार से पढ़ूँगा और अपनी  राय  भी दूंगा। प्रथम दॄष्टया यह तो स्पष्ट है कि यह कार्य इतना आसान नहीं होता जितना देखने में लगता हैइससे आप की लगन ,गहराई, निस्वार्थ परिश्रम, अभिरुचि का परिचय मिलता है। आप ऐसे ही साहित्य जगत की निस्वार्थ सेवा करते रहें, मेरी शुभकामना है।

आप की संस्था-परवाज़-ए-ग़ज़ल [जो ग़ज़ल विधा की पूर्णतया समर्पित संस्था है ] उत्तरोत्तर प्रगति पर अग्रसरित रहे और परवाज की बुलंदिया हासिल करती रहे यही मेरी कामना है।

  इस संक्षिप्त मुलाकात में ग़ज़ल लेखन के दशा-दिशा की चर्चा के साथ साथ अन्य विषयों पर भी चर्चा हुई ख़ास तौर पर अरूज़ पर।

इन मुलाक़ात के क्षणॊं के कुछ चित्र लगा रहा हूँ

-आनन्द.पाठक-







शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

ग़ज़ल 430 [04G ] : यह झूठ की दुनिया ,मियां !

 ग़ज़ल 430 [04-G)


2212---2212

यह झूठ् की दुनिया ,मियाँ !

सच है यहाँ बे आशियाँ ।


क्यों दो दिलों के बीच की

घटती नहीं है दूरियाँ ।


बस ख़्वाब ही मिलते इधर

मिलती नहीं हैं रोटियाँ ।


इस ज़िंदगी के सामने

क्या क्या नहीं दुशवारियाँ ।


हर रोज़ अब उठने लगीं

दीवार दिल के दरमियाँ ।


तुम चंद सिक्कों के लिए

क्यों बेचते आज़ादियाँ ।


किसको पड़ी देखें कभी

’आनन’ तुम्हारी खूबियाँ ।


-आनन्द.पाठक-

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

अनुभूतियाँ 170/57

अनुभूतियाँ 170/57

677
तुम क्या जानो विरह वेदना
जिसने देखी नहीं जुदाई
होठो पर हो हास भले ही
आँख विरह मे तो भर आई

678
बहुत दिनों के बाद मिली हो
लौट के आया है यह शुभ दिन
भला बुरा जो भी हो कहना
कह लेना फिर और किसी दिन

679
छोड़ो जाने दो, रहने दो
वही दिखावा, वही बहाना
अपने ही दिल की बस सुनना
मेरे दिल को कब पहचाना 

680
तुम गमलों में पली हुई हो
तुम्हे सदा मिलती है छाया
नंगे पाँव चला हूँ अबतक
मैं तपते सहरा से आया ।

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 169/56

 अनुभूतियाँ 169/56


673

ऐसे भी कुछ लोग मिलेंगे

ख़ुद को ख़ुदा समझते रहते

आँखों पर हैं पट्टी बाँधे

अँधियारों में चलते रहते ।


674

दिल जो कहता, कह लेने दो

कहने से मत रोको साथी !

दीपक अभी जला रहने दो

रात अभी ढलने को बाक़ी


675

माना राह बहुत लम्बी है

हमको तो बस चलना साथी

जो रस्मे हों राह रोकती

मिल कर उन्हे बदलना साथी


676

नीड बनाना कितना मुश्किल

उससे मुश्किल उसे बचाना

साध रही है दुनिया कब से

ना जाने कब लगे निशाना ।

-आनन्द पाठक-

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

अनुभूतियाँ 168/55

 अनुभूतियाँ 168/55

669

मुक्त हंसी  जब हँसती हो तुम

हँस उठता है उपवन मधुवन

कोयल भी गाने लगती है 

और हवाएँ छेड़े सरगम ।


670

मछली जाल बचा कर निकले

लेकिन कब तक बच पाती है

प्यास अगर दिल में जग जाए

स्वयं जाल में  फँस जाती है ।


671

अवसरवादी लोग जहाँ हों

ढूँढा करते रहते अवसर

स्वार्थ प्रबल उनके हो जाते

धोखा देते रह्ते  अकसर


672

कितनी बार लड़े, झगड़े हम

रूठे और मनाए भी हैं ।

विरह वेदना में रोए तो

गीत खुशी के गाए भी हैं।


-आनन्द.पाठक-


रविवार, 16 फ़रवरी 2025

गीत 90: बादलों के पंख पर

 गीत 90 : बादलों के पंख पर ---

2122---2122---2122---2122


बादलों के पंख पर मैं जब प्रणय के गीत लिखता

काल की निष्ठुर हवाएँ, क्यों मिटा देती हैं हँस कर


अब तो यादें शेष हैं बस, उन सुखद बीते दिनों की

जब कभी हम-तुम मिला करते थे मधुमय चाँदनी में

पूछती हैं अब लताएँ जो कभी साक्षी बनी थी 

" क्या हुई थी बात तुमसे उन दिनों की यामिनी में ?"


आशियाने पर ही मेरे क्यॊ गिरा करती है बिजली

हादिसे क्यों साथ मेरे ही हुआ करते हैं अकसर ।


क्यों नहीं भाता जगत को प्रेम की भाषा मनोहर

क्यों हमेशा देखता है प्रेम को दूषित नयन से ।

डाल पर बैठे हुए जब दो विहग दुख बाँटते हैं

सोचने लगती है दुनिया क्या न क्या अपने ही मन से


आँधियों से जूझ कर जब आ गई कश्ती किनारे

लोग साहिल पर खड़े क्यों हाथ में ले ईंट-पत्थर ।


छोड़ कर जब से गई तुम कुछ कहे बिन, कुछ सुने बिन

फिर न उसके बाद कोई स्वप्न जागा, चाह जागी

शून्य में जब ढूँढता हूँ मैं कभी चेहरा तुम्हारा

दूर तक जाती नज़र है, लौट कर आती अभागी ।


रात की तनहाइयों में जब कभी तुमको पुकारा

साथ देने आ गए तब चाँद-तारे भी उतर कर ।

बादलों के पंख पर जब----


-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

अनुभूतियाँ 167/54

 अनुभूतियाँ 167/54

665

लोग समझते रहे हमेशा

अपनी अपनी ही नज़रों से

तौल रहे है प्रेम हमारा

काम-वासना के पलड़ों से।


666

नहीं भुलाने वाली बातें

तुम्ही बता दो कैसे भूलें ?

माना हाथ हमारे बौने

चाह मगर थी, तुमको छू लें।


667

ऊषा की तुम प्रथम किरण बन

आती हो जब द्वार हमारे ,

खुशबू से भर जाता आँगन

खिल जाते हैं सपने सारे ।


668

आशा और निराशा के संग

 तुमने जितना पिया अँधेरा

एक अटल विश्वास प्रबल था

तब जा कर यह हुआ सवेरा ।


-आनन्द.पाठक--




ग़ज़ल 429[03G] : ज़िंदगी इक रंज़-ओ-ग़म का सिलसिला है

 ग़ज़ल 429 [03 G]

2122---2122---2122-

फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन

बह्र-ए-रमल मुसद्दस सालिम

-----  ---   --- 

ज़िंदगी इक रंज़-ओ-ग़म का सिलसि्ला है्

यह किसी के चाहने से कब रुका है ?


वक़्त अपना वक़्त लेता है यक़ीनन

वक़्त आने पर सुनाता फ़ैसला है ।


कौन सा पल हो किसी का आख़िरी पल

हर बशर ग़ाफ़िल यहाँ , किसको पता है ।


कारवाँ का अब तो मालिक बस ख़ुदा ही

राहबर जब रहजनों से जा मिला है ।


रोशनी का नाम देकर् हर गली ,वो

अंध भक्तों को अँधेरा बेचता है ।


आप की अपनी सियासत, आप जाने

क्या हक़ीक़त है, ज़माना जानता है ।


वह अना की क़ैद से बाहर न आया

 इसलिए ख़ुद से अभी नाआशना है 


वक़्त हो तो सोचना फ़ुरसत में ’आनन’

मजहबी इन नफ़रतों से क्या मिला है ।


-आनन्द.पाठक-