गुरुवार, 22 सितंबर 2022

अनुभूतियाँ : किस्त 20

 

77

मेरे मन की इक दुनिया में

एक तुम्हारी भी दुनिया थी

आज वहाँ बस राख बची है

जहाँ कभी अपनी बगिया थी ।

 

78

सौ सौ जतन किए थे मैने

फिर भी रोक न पाया तुम को

आख़िर तुम ने वही किया जो

ग़ैरों ने समझाया तुम को ।

 

79

क्या तुम भी तारे गिनती हो

सूनी सूनी सी रातों में,

जाओ तुम भी सो जाओ अब

क्यों उलझी हो उन बातों में ।

 

80

काल-चक्र को चलना ही है

कोई गिरता, उठता कोई ,

जीवन और मरण का सच है

कोई सोता, जगता कोई ।  


 

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