77
मेरे मन की इक दुनिया में
एक तुम्हारी भी दुनिया थी
आज वहाँ बस राख बची है
जहाँ कभी अपनी बगिया थी ।
78
सौ सौ जतन किए थे मैने
फिर भी रोक न पाया तुम को
आख़िर तुम ने वही किया जो
ग़ैरों ने समझाया तुम को ।
79
क्या तुम भी तारे गिनती हो
सूनी सूनी सी रातों में,
जाओ तुम भी सो जाओ अब
क्यों उलझी हो उन बातों में ।
80
काल-चक्र को चलना ही है
कोई गिरता, उठता कोई ,
जीवन और मरण का सच है
कोई सोता, जगता कोई ।
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