शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

ग़ज़ल 266 [ 31 E] : उड़ता है बिन परों के ही वो आसमान में--

 ग़ज़ल 266 [31 E ]


221---2121---1221---212


उड़ता है बिन परों के ही वो आसमान में

खुद ही क़सीदा पढ़ने लगा खुद की शान में


मैं जानता हूँ क्या है हक़ीक़त ज़मीन की

बतला रहा कुछ और ही वह तर्ज़ुमान में


अपना बयान तो है उसे ’मन्त्र’-सा लगे

दिखते तमाम खोट हैं मेरे बयान में


माया, फ़रेब, झूठ जहाँ, आप ही दिखे

शुहरत बड़ी है आप की दुनिया-जहान में


आया था इन्क़लाब का परचम लिए हुए

वो बात अब कहाँ रही उसकी जुबान में 


जादू है, मोजिज़ा है, हुनर है, कमाल है ?

उड़ता बिना ही पंख खुले आसमान में


लिख्खा गया हो शौक़ से, पढ़ता न हो कोई

’आनन’ को ढूँढिएगा उसी दास्तान में 


-आनन्द पाठक-


शब्दार्थ

अना = अहं. अहंकार

मोजिज़ा = चमत्कार

कोई टिप्पणी नहीं: