[नोट : यह आलेख फ़ेसबुक से देवमणि पाण्डेय जी के वाल से साभार लिया गया है ]--
आदाब साथियो
आदरणीय Sunil Tripathi जी की पोस्ट से प्रेरित एक साभार आलेख………
◆#ग़ज़ल_यानी_दूसरों_की_ज़मीन_पर_अपनी_खेती◆
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ग़ज़ल दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती है। बतौर शायर आप भले ही दावा करें कि आपने नई ज़मीन ईजाद की है मगर सच यही है कि आप दूसरों की ज़मीन पर ही शायरी की फ़सल उगाते हैं। कोई ऐसा क़ाफ़िया, रदीफ़ या बहर बाक़ी नहीं है जिसका इस्तेमाल शायरी में न हुआ हो। कोई-कोई ज़मीन तो ऐसी है जिसका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हो चुका है और लगातार होता रहेगा। मसलन शायद ही कोई ऐसा शायर हो जिसने मोमिन साहब की इस ज़मीन पर ग़ज़ल की फ़सल न उगाई हो-
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तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता.
तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता.
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आज़ादी से पहले लखनऊ में एक शायर हुए अर्सी लखनवी। मुशायरों में उनका एक शेर काफ़ी मक़बूल हुआ था-
कफ़न दाबे बगल में घर से मैं निकला हूँ ऐ अर्सी,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.
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डॉ.बशीर बद्र ने फ़न का कमाल दिखाया। ऊपर का मिसरा हटाया और बड़ी ख़ूबसूरती से अपना मिसरा लगाया। आप जानते ही हैं कि यही ख़ूबसूरत शेर आगे चलकर शायर बशीर बद्र का पहचान पत्र बन गया-
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.
मैंने डॉ बशीर बद्र से व्यक्तिगत रूप से पूछा था कि क्या आपने जानबूझकर अर्शी लखनवी का यह मिसरा उठाया है। उन्होंने जवाब दिया- "जी हां हमारी यह रिवायत है। ये तो देखिए कि मैं ने एक मिसरा बदलकर इस शेर को कितना ख़ूबसूरत बना दिया।"
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भोपाल के मशहूर शायर शेरी भोपाली की एक ग़ज़ल मुशायरों में बहुत पसंद की जाती थी। उसका एक शेर है-
अभी जो दिल में हल्की सी ख़लिश महसूस होती है,
बहुत मुमकिन है कल इसका मुहब्बत नाम हो जाए.
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अब भोपाल के ही शायर डॉ बशीर बद्र का एक मशहूर शेर देखिए-
वो मेरा नाम सुनकर कुछ ज़रा शर्मा से जाते हैं
बहुत मुमकिन है कल इसका मुहब्बत नाम हो जाए
डॉ बशीर बद्र से सीनियर थे शेरी भोपाली। हो सकता है कि बशीर बद्र ने उनके मिसरे पर तरही ग़ज़ल कही हो।
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मुझे लगता है कि ख़याल की सरहदें नहीं होतीं। यानी दुनिया में कोई भी दो शायर एक जैसा सोच सकते हैं। जाने-अनजाने दो फ़नकार शायरी की एक ही ज़मीन पर एक जैसी फ़सल उगा सकते हैं। मैंने सन् 1975 में किसी की पंक्तियाँ सुनी थीं जो अब तक मुझे याद है-
भीग जाती हैं जो पलकें कभी तनहाई में
काँप उठता हूँ कोई जान न ले.
ये भी डरता हूँ मेरी आँखों में
तुझे देख के कोई पहचान न ले.
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पाकिस्तान की मशहूर शायरा परवीन शाकिर का भी इसी ख़याल पर एक शेर नज़र आया –
काँप उठती हूँ मैं ये सोचके तनहाई में,
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई.
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ख़यालों की ये समानता इशारा करती है कि सोच की सरहदें इंसान द्वारा बनाई गई मुल्क की सरहदों से अलग होती हैं। शायर कैफ़ी आज़मी ने नौजवानी के दिनों में एक ग़ज़ल कही थी। वो इस तरह है-
मैं ढूँढ़ता जिसे हूँ वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिससे हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का इस पर निशां नहीं मिलता
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निदा फ़ाज़ली साहब जवान हुए तो उन्होंने कैफ़ी साहब के सिलसिले को इस तरह आगे बढ़ाया-
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कभी ज़मी तो कभी आसमां नहीं मिलता
फ़िल्म ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ में शामिल निदा साहब की यह ग़ज़ल भूपिंदर सिंह की आवाज़ में इतनी ज्यादा पसंद की गई कि लोग कैफ़ी साहब की ग़ज़ल भूल गए।
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मुशायरे के मंच पर भी दिलचस्प प्रयोग मिलते हैं। कभी-कभी दो शायर एक दूसरे की मौजूदगी में एक ही ज़मीन में एक जैसा नज़र आने वाले शेर पढ़ते हैं। श्रोता ऐसी शायरी का बड़ा लुत्फ़ उठाते हैं। शायर मुनव्वर राना का एक शेर इस तरह मुशायरों में सामने आया-
उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं.
क़द में छोटे हैं मगर लोग बड़े रहते हैं.
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डॉ.राहत इंदौरी ने अपने निराले अंदाज़ में अपना परचम इस तरह लहराया-
ये अलग बात कि ख़ामोश खड़े रहते हैं.
फिर भी जो लोग बड़े हैं वो बड़े रहते हैं.
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दोनों शायरों को मुबारकबाद दीजिए कि उन्होंने अपने इल्मो-हुनर से लोगों को बड़ा बनाया। मुंबई में मुशायरे के मंच पर सबसे पहले हसन कमाल ने ये कलाम सुनाया-
ग़ुरूर टूट गया है, ग़ुमान बाक़ी है.
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है.
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इसी ज़मीन पर शुजाउद्दीन शाहिद का एक शेर सामने आया-
घरों पे छत न रही सायबान बाक़ी है.
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है.
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इस पर डॉ.राहत इंदौरी ने फ़ैसला सुनाया-
वो बेवकूफ़ ज़मीं बाँटकर बहुत ख़ुश है,
उसे कहो कि अभी आसमान बाक़ी है.
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इसके बाद राजेश रेड्डी के तरन्नुम ने कमाल दिखाया-
जितनी बँटनी थी बँट गई ये ज़मीं,
अब तो बस आसमान बाक़ी है.
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राजेश रेड्डी बा-कमाल शायर हैं। उनके बारे में मशहूर है कि वे बड़ी पुरानी ज़मीन में बड़ा नया शेर कह लेते हैं। मसलन जोश मल्सियानी का शेर है-
बुत को लाए हैं इल्तिजा करके.
कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा करके.
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राजेश रेड्डी ने इस पुरानी ज़मीन में नई फ़सल उगाने का ऐसा कमाल दिखाया कि उनके फ़न को जगजीत सिंह जैसे मक़बूल सिंगर ने अपने सुर से सजाया-
घर से निकले थे हौसला करके,
लौट आए ख़ुदा ख़ुदा करके,
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"आसमान बाक़ी है"... अभी तक ये तय नहीं हो पाया है कि इस ज़मीन का असली मालिक कौन है। मैंने शायर निदा फ़ाज़ली से इसका ज़िक्र किया। वे मुस्कराए- 'अभी तक इन…..को पता ही नहीं है कि आसमान बँट चुका है। इनको एक हवाई जहाज़ में बिठाकर कहो कि बिना परमीशन लिए किसी दूसरे मुल्क में दाख़िल होकर दिखाएं। फ़ौरन पता चल जाएगा कि आसमान बँटा है या नहीं।
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नौजवान शायर आलोक श्रीवास्तव का ‘माँ’ पर एक शेर है जो उनके काव्य संकलन 'आमीन' में प्रकाशित एक ग़ज़ल में शामिल है-
बाबू जी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुई तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा.
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माँ पर शायर मुनव्वर राना का एक मतला है जिसे असीमित लोकप्रियता हासिल हुई-
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आयी.
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी.
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मुझे नहीं पता कि इस पर राना साहब का कमेंट क्या है मगर आलोकजी का दावा है कि उनके शेर के पाँच साल बाद राना जी का मतला नज़र आया।
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सदियों से ग़ज़ल के क्षेत्र में हमेशा कुछ न कुछ रोचक प्रयोग होते रहते हैं । कभी शायरों के ख़याल टकरा जाते हैं तो कभी मिसरे। ख़ुदा-ए-सुख़न मीर ने लिखा था –
बेख़ुदी ले गई कहाँ हमको,
देर से इंतज़ार है अपना.
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इसी ख़याल को ग़ालिब साहब ने अपने अंदाज़ में आगे बढ़ाया-
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी,
ख़ुद हमारी ख़बर नहीं आती.
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मुझे लगता है कि 'ख़ुदाए-सुख़न मीर' से मिर्ज़ा ग़ालिब काफ़ी प्रभावित थे। उनपर मीर का यह असर साफ़-साफ़ दिखाई देता है। मिसाल के तौर पर दोनों के दो-दो शेर देखिए-
तेज़ यूँ ही न थी शब आतिशे-शौक़,
थी ख़बर गर्म उनके आने की.-मीर तकी मीर
थी ख़बर गर्म उनके आने की,
आज ही घर में बोरिया न हुआ.-मिर्ज़ा ग़ालिब
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होता है याँ जहां में हर रोज़ो-शब तमाशा.
देखा जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा.-मीर
बाज़ी-चा-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे.
होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे.-मिर्ज़ा ग़ालिब
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फ़िल्म उमराव जान में ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित शायर शहरयार की ग़ज़ल का मतला है-
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये.
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये.
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इस ग़ज़ल ने शहरयार को रातों-रात लोकप्रियता की बुलंदी पर पहुँचा दिया। इस मतले के दोनों मिसरे बिहार के शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी की एक ग़ज़ल से वाबस्ता हैं। उनकी उस ग़ज़ल के शेर देखिए-
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दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये.
ख़ंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये.
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बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात,
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये.
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मर जायेंगे मिट जायेंगे हम कौम के लिए,
मिटने न देंगे मुल्क, ये ऐलान लीजिये.
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बिस्मिल अज़ीमाबादी का एक और शेर है-
'बिस्मिल' ऐ वतन तेरी इस राह-ए-मुहब्बत में
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
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इसी ज़मीन पर जिगर मुरादाबादी का भी मशहूर शेर है-
ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
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मुझे नहीं पता कि दोनों शायरों में से किसने पहले ये शेर कहा और किसने तरही ग़ज़ल कही। मशहूर शायर-सिने गीतकार शकील बदायूंनी ने भी दूसरों के मिसरे उठाने में हर्ज़ नहीं समझा। उनका एक मशहूर फ़िल्मी गीत है-
ख़ुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं
जहां बजती है शहनाई वहाँ मातम भी होते हैं...(बाबुल)
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अब शायर दाग़ देहलवी का ये शेर देखिए-
ख़ुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं
जहां बजते हैं नागाड़े वहाँ मातम भी होते हैं
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"ऐ मेरे वतन के लोगो" फेम गीतकार पं. प्रदीप से एक बार मैंने पूछा था कि अगर दो रचनाकारों के ख़याल आपस में टकराते हैं तो क्या ये ग़ल़त बात है ? उन्होंने जवाब दिया कि कभी-कभी एक रचनाकार की रचना में शामिल सोच दूसरे रचनाकार को इतनी ज़्यादा अच्छी लगती है कि वह सोच के इस सिलसिले को आगे बढ़ाना चाहता है। यानी वह अपने पहले के रचनाकार की बेहतर सोच का सम्मान करना चाहता है। चरक दर्शन का सूत्र है- चरैवेति चरैवेति, यानी चलो रे…चलो रे…। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने इस ख़याल को आगे बढ़ाया- 'इकला चलो रे।' लोगों को और मुझे भी अकेले चलने का ख़याल बहुत पसंद आया। मैंने इस ख़याल का सम्मान करते हुए एक गीत लिखा और मेरा गीत भी बहुत पसंद किया गया-
चल अकेला… चल अकेला… चल अकेला,
तेरा मेला पीछे छूटा साथी चल अकेला…
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एक कहावत है- 'साहित्य से ही साहित्य उपजता है।' मित्रो ! 'भावों की भिड़न्त' का आरोप तो महाकवि निराला पर भी लग चुका है। मेरे ख़याल से अगर कोई शायर किसी दूसरे शायर का मिसरा उठाता है तो उसे उसका ज़िक्र कर देना चाहिए। मिर्ज़ा गालिब के बाद ऐसा लगता था कि ग़ज़ल में अब कुछ नया लिखने को बाक़ी नहीं रह गया है। लेकिन उनके बाद भी कही गई ज़मीन पर, कही गई बहर में और भी बहुत कुछ नया कहा गया। सब ने अपने-अपने अंदाज़ में अपनी बात कहने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती करने का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। लोग अपनी मर्ज़ी से अपनी मनचाही ज़मीन पर मनमाफ़िक फ़सल उगाते रहेंगे।
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साभार
- Devmani Pandey