मंगलवार, 27 सितंबर 2022

ग़ज़ल 270 [35 E] : तू उतना ही चलेगा---

 1222---1222--1222---1222
मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
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ग़ज़ल 270 [35 E]

तू उतना ही चलेगा , वह तुम्हें जितना चलाएगा
भरेगा चाबियाँ उतनी तू जितना नाच पाएगा ।

हक़ीक़त जानता है वह, हक़ीक़त जानते हम भी
वतन ख़ुशहाल है अपना, वो टी0वी0 पर दिखाएगा

उजालों से इधर बातें ,अँधेरों से उधर यारी
खुदा जाने है क्या दिल में, नही वह सच बताएगा।

 ख़रीदेगा वो पैसों से, अगर बिकने पे तुम राजी
तुम्हें वह "पंच तारा" होटलों मे क्या छुपाएगा

ज़ुबाँ होगी तुम्हारी और उसकी बात बोलेगी
तुम्हें कहना वही होगा तुम्हें वह जो बताएगा

निगाहों में अगर खुद को नहीं ज़िंदा रखोगे तुम
ज़माना उँगलियों पर ही सदा तुमको नचाएगा

जो सुन कर भी नहीं सुनते, जो अंधे बन गए’आनन’
जगाने से नहीं जगते, उन्हें कब तक जगाएगा

-आनन्द.पाठक-

 



शनिवार, 24 सितंबर 2022

ग़ज़ल 269 [34 E]: आप की बात में वो रवानी लगी

 


ग़ज़ल 269 / 34 E


212---212---212---212


आप की बात में वो रवानी लगी

एक नदिया की जैसे कहानी लगी


आप जब से हुए हैं मेरे हमसफ़र

ग़मजदा ज़िंदगी भी सुहानी लगी


आप की साफ़गोई, अदा, गुफ़तगू

कुछ नई भी लगी कुछ पुरानी लगी


छोड़ कर वो गया करते शिकवा भी क्या

उसको शायद वही शादमानी लगी


झूठ के साथ सोते हैं जगते हैं वो

सच भी बोलें कभी लन्तरानी लगी


राह सबकी अलग, सबके मज़हब अलग

एक जैसी सभी की कहानी लगी


यह फ़रेब-ए-नज़र या हक़ीक़त कहूँ

ज़िंदगी दर्द की तरज़ुमानी लगी


एक तू ही तो ’आनन’ है तनहा नहीं

राह-ए-उलफ़त जिसे राह-ए-फ़ानी लगी


-आनन्द पाठक - 


गुरुवार, 22 सितंबर 2022

अनुभूतियाँ : किस्त 025

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 025 ओके

97
दो दिन की उस मुलाकात में
जीवन भर के सपने देखे,
पागल था दिल दीवाना था
औक़ात नहीं अपने देखे ।
  
98
टूट चुका है दिल अन्दर से
तुमको नहीं दिखाई देगा,
अन्दर अन्दर ही रोता है
तुमको नहीं सुनाई देगा ।
 
99
ऎ दिल ! क्यों सर पीट रहा है
बात ये क्या मालूम नहीं थी ?
जितना उसको समझ रहा था
वो उतनी मासूम नहीं थी ।
 
100
 हँस कर मिलना जुलना मेरा
दुनिया ने कमजोरी समझा,
मेरी ख़ामोशी को अकसर,
लोगों ने मजबूरी समझा  
 
 

अनुभूतियाँ : किस्त 024

 अनुभूतियाँ 024 ओके
93
गुलशन गुलशन ख़ुशबू महके
और हवाएँ हों आवारा ,
जितना जीना जी ले, प्यारे !
कब मिलता जीवन दोबारा !
 
94
बोझ अगर है इन कंधों पर
सिर्फ़ तेरे जाने का ग़म है
वरना तो दिल बहलाने को
यादें हैं, आँखें पुरनम है ।  
 
95
दान नहीं, सौगात नहीं यह
खुद है सँवारा जीवन अपना,
भला बुरा या चाहे जैसा
मेरा जीवन, मधुवन अपना
 
96
उन बातों को दुहराना क्या
घुमा-फिरा कर बात वही है,
व्यर्थ बहस अब क्या करना है
कौन ग़लत था, कौन सही है ।
 
x

अनुभूतियाँ : किस्त 023

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 023 ओके
89
ईद हमारी आज हुई है
चाँद जो लौटा घर को अपने,
एक झलक पाने की ख़ातिर
रोज़ा रखा माह भर हमने ।
 
90
इतनी दूर आ गए हम तुम
लौट के अब जाना नामुमकिन
और कहाँ तक साथ चलोगी
प्रश्न वही है अब भी लेकिन।
91
हाथ न रख्खो इन कंधों पर
आँसू हैं इनको बहने दो,
 मैने इनको पाल रखा है
दर्द हमारे संग रहने दो ।
92
होली का मौसम आया है,
फ़गुनहटा’ आँचल सरकाए,
मादक हुई हवाएँ, प्रियतम !
रह रह कर है मन भटकाए ।

अनुभूतियाँ : किस्त 022

 
अनुभूतियाँ : क़िस्त 022 ओके
85
कल तुमने की नई शरारत,
दिल में अभी हरारत सी है
ख़्वाब हमारे जाग उठे फिर
राहत और शिकायत भी है
 
86
जब तुम को था दिल बहलाना
पहले ही यह बतला देते
लोग बहुत तुम को मिल जाते,
चाँद सितारे भी ला देते ।
 
87
मधुर कल्पना मधुमय सपनें
कर्ज़ तुम्हारा है, भरना है,
जीवन की तपती रेती पर
नंगे पाँव  सफ़र करना है ।
 
88
मत पूछो यह कैसे तुम बिन
विरहा के दिन, कठिन ढले हैं ,
आज मिली तो लगता ऐसे
जनम जनम के बाद मिले हैं ।
 
x

अनुभूतियाँ : किस्त 021

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 021 ओके
81
सच क्या बस उतना होता है
जितना हम तुम देखा करते ?,
 कुछ ऐसा भी सच होता है
अनुभव कर के सोचा करते
 
82
क्या कहना है अब सब छोड़ो
क्या दिल ने चाहा, क्या पाया
मेरे जीवन में चौराहा-
कितनी बार सफ़र में आया ।
83
नए वर्ष के प्रथम दिवस पर
सब के थे संदेश, बधाई,
दिन भर रहा प्रतीक्षारत मैं
कोई ख़बर न तेरी आई ?
 
84
सोच रही क्यों अलग राह की?
ऐसा तो व्यक्तित्व नहीं है ,
चाँद-चाँदनी एक साथ हैं
अलग अलग अस्तित्व नहीं है ।

अनुभूतियाँ : किस्त 020

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 20 ओके
77
मेरे मन की इक दुनिया में
एक तुम्हारी भी दुनिया थी
आज वहाँ बस राख बची है
जहाँ कभी अपनी बगिया थी ।
 
78
सौ सौ जतन किए थे मैने
फिर भी रोक न पाया तुम को
आख़िर तुम ने वही किया जो
ग़ैरों ने समझाया तुम को ।
 
79
क्या तुम भी तारे गिनती हो
सूनी सूनी सी रातों में,
जाओ तुम भी सो जाओ अब
क्यों उलझी हो उन बातों में ।
 
80
काल-चक्र को चलना ही है
कोई गिरता, उठता कोई ,
जीवन और मरण का सच है
कोई सोता, जगता कोई ।  
 

अनुभूतियाँ : किस्त 019

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 019 ओके
73
कोई बची न चाहत मन में
और न मन में कुछ दुविधा है
प्यार-मुहब्बत लगता ऐसे
पल दो पल की नई विधा है ।
 
74
एक समय था वह भी जब तुम
मेरी ग़ज़ल हुआ करती थी,
साथ रहेगा जीवन भर का-
बार बार तुम दम भरती थी ।
 
75
सुबह सुबह ही उठ कर तुम ने
अल्हड़ सी जब ली अँगड़ाई,
टूट गया दरपन शरमा कर
खुद से खुद तुम भी शरमाई ।
 
76
सोच रही हो अब क्या, मुझमें
क्या है कमियाँ, क्या अच्छा  है
नेक चलन, बदनाम है ’आनन’
इन बातों में क्या रख्खा  है !
 

अनुभूतियाँ : किस्त 018

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 018 ओके
69
 वह निर्णय था स्वयं तुम्हारा
 ग़लत किया या सही किया था
 अब पछताने से क्या होगा
 दिल ने तुम से, सही कहा था ।
 
70
इतना कर न भरोसा, पगले !
उड़ते बादल का न ठिकाना
आज यहाँ, कल और कहीं हो
उसको क्या हमराज़ बनाना ।
 
71
झूठे सपने मत देखा कर
इन आँखों से जगते-सोते
तू भी जान रहा है, प्यारे!
सपने हैं ,कब पूरे होते ।
 
72
छुप छुप कर बातें करतीं थी
यादें तेरी तनहाई में
कितने स्वप्न बुना करती थी
जीवन की नव तरूणाई में ।
 
x

अनुभूतियाँ : किस्त 017

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 017 ओके
65
प्यार किसी का ठुकराने में
कितना वक़्त लगा करता है
लेकिन जिसकी चाहत हो तुम
सारी उम्र जगा करता है ।
 
66
बादल बरसा कर जल अपने
मन हल्का निर्मल कर लेते,
आँसू मेरे बरस न पाते -
मन बोझिल बोझिल कर देते ।
67
एक सहारा बन कर आई
तुम जो गई तो गया सहारा
जिसको छोड़ दिया हो तुम ने
 उसे मिला फिर कहाँ किनारा ।
 
68
आशाएँ ज़िन्दा रहती हैं
उम्मीदें कुछ अब तक बाक़ी
जिस घर को तुम छोड़ गई हो
 आज अभी तक खाली खाली ।  
 

बुधवार, 21 सितंबर 2022

ग़ज़ल 268(33E) : ये बात और थी ---

 ग़ज़ल 268(33E)


1212--1122---1212--22


 ये बात और थी वो पास मेरे आ न सका

ख़याल-ओ-ख़्वाब से उसको कभी भुला न सका


तमाम उम्र सदा हासिला रखा उसने

न जाने कौन सी दीवार थी, ढहा न सका


दयार-ए-यार से गुज़रा हूँ बारहा यूँ तो

वो रूबरू भी हुआ मैं नज़र मिला न सका


चला था शौक़ से राह-ए-तलब में ख़्वाब लिए

जो रस्म-ओ-राह थी उल्फ़त की मैं निभा न सका


बहुत हूँ दूर मगर राबिता वही अब भी

अक़ीदा आज भी दिल में वही, भुला न सका


ज़रा सी बात थी इतनी बड़ी सजा ,या रब !

जो बात आप से कहनी थी वो बता न सका


अज़ाब वक़्त के क्या क्या नहीं सहे ,’आनन’

भले ही टूट गया था, मैं सर झुका न सका


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

दयार-ए-यार से = यार के इलाके से  

रस्म-ओ-राह = ढंग तरीक़ा

अक़ीदा = श्रद्धा विश्वास

राबिता = सम्पर्क

अज़ाब = यातना कष्ट

  


रविवार, 18 सितंबर 2022

ग़ज़ल 267[32E] : उजालों को तुमने न आने दिया

 ग़ज़ल 267 [32E]


ग़ज़ल 267

122---122---122--122


उजालों को तुमने न आने दिया है

तो कहते हो फिर क्यों अँधेरा घना है


कभी बन्द कमरे से बाहर निकलते

तो फिर देखते कैसी रंगीं फ़िज़ा है


ख़ुदा जाने क्या तुमने मज़हब से सीखा

कि आज आदमी आदमी से डरा है


अना में रहे जब तलक मुब्तिला तुम

तुम्हे खुद से आगे न कुछ भी दिखा है


भरी भीड़ है आदमी हैं हज़ारों-

मगर ’आदमीयत’ हुई लापता है


कहाँ की थीं बातें, कहाँ ले गए तुम

अजब यह तुम्हारा तरीका नया है


सदाक़त की बातें जो करता हूँ ’आनन’

इसी बात पर यह ज़माना ख़फ़ा है


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ


अना = अहं 

सदाक़त = सच्चाई 


शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

ग़ज़ल 266 [ 31 E] : उड़ता है बिन परों के ही वो आसमान में--

 ग़ज़ल 266 [31 E ]


221---2121---1221---212


उड़ता है बिन परों के ही वो आसमान में

खुद ही क़सीदा पढ़ने लगा खुद की शान में


मैं जानता हूँ क्या है हक़ीक़त ज़मीन की

बतला रहा कुछ और ही वह तर्ज़ुमान में


अपना बयान तो है उसे ’मन्त्र’-सा लगे

दिखते तमाम खोट हैं मेरे बयान में


माया, फ़रेब, झूठ जहाँ, आप ही दिखे

शुहरत बड़ी है आप की दुनिया-जहान में


आया था इन्क़लाब का परचम लिए हुए

वो बात अब कहाँ रही उसकी जुबान में 


जादू है, मोजिज़ा है, हुनर है, कमाल है ?

उड़ता बिना ही पंख खुले आसमान में


लिख्खा गया हो शौक़ से, पढ़ता न हो कोई

’आनन’ को ढूँढिएगा उसी दास्तान में 


-आनन्द पाठक-


शब्दार्थ

अना = अहं. अहंकार

मोजिज़ा = चमत्कार

मंगलवार, 13 सितंबर 2022

ग़ज़ल 265 (30E) : उनकी इशरत शादमानी

 


ग़ज़ल 265(30E)

2122---2122--212


उनकी इशरत शादमानी और है

मेरे ज़ख़्मों की निशानी और है


उनकी ग़ज़लें और ही कुछ कह रहीं 

आइने की तर्ज़ुमानी और है


जो पढ़ा इतिहास क्या है सच वही

वक़्त की अपनी कहानी और है


रोटियों की बात पर ख़ामोश हैं

झूठ की जादूबयानी और है


बात वैसे आप की तो ठीक है

दिल की लेकिन हक़-बयानी और है


जर्द पत्ते शाख़ से टूटे हुए

दर बदर की ज़िंदगानी और है


नींद क्यों तुमको अभी आने लगी 

दास्तां सुननी सुनानी और है

 

आप ’आनन’ से कभी मिलिए ज़रा

शौक़ मेरा, मेज़बानी और है।


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

हक़बयानी - सच्ची बात




सोमवार, 12 सितंबर 2022

ग़ज़ल 264 [29 E]: आप से हाल-ए-दिल छुपा है क्या

 ग़ज़ल 264 [29 E]

2122---1212---22


 आप से हाल-ए-दिल छुपा है क्या

अर्ज़ करना कोई ख़ता है क्या ।


आप ही जब न हमसफ़र मेरे

फिर सफ़र में भला रखा है क्या


सामने हो के मुँह  घुमा लेना

ये तुम्हारी नई अदा है क्या


दर्द उठता है बेनियाजी पर

दर्द पारीन है नया है क्या


गर्मी-ए-शौक़ तो जगा दिल में

देख जीने में फिर मज़ा है क्या


छोड़ कर सब यहाँ से जाना है

साथ लेकर कोई गया है क्या


तुम तो ऐसे न थे कभी 'आनन'

आजकल तुम को हो गया है क्या


-आनन्द.पाठक-


दर्द-ए-पारीन = पुराना दर्द



रविवार, 11 सितंबर 2022

ग़ज़ल 263 [28 E]: बात दिल की सुना करे कोई

 ग़ज़ल 263 [28E]


2122--1212--112/22


बात दिल की सुना करे कोई 

ख़ुद से ख़ुद ज्यों  मिला करे कोई


राह सच की मुझे दिखाता है

मेरे दिल में रहा करे कोई


कौन है वो मैं जानता भी नहीं

मुझको मुझसे जुदा करे कोई


राह-ए-उल्फ़त तवील है इतना

कौन कितना चला करे कोई 


दर्द-ए-दिल का न हो शिफ़ाख़ाना

दर्द की क्या दवा करे कोई


जान कर भी हक़ीक़त-ए-दुनिया

मान ले सच तो क्या करे कोई


चन्द रोज़ां की ज़िन्दगी ’आनन’ 

क्यों न हँस कर जिया करे कोई 


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

शिफ़ाख़ाना = अस्पताल. चिकित्सालय


गुरुवार, 8 सितंबर 2022

ग़ज़ल 262 [27 E ]: कोई दर्द अपना छुपा कर हँसा है

 ग़ज़ल 262 [27 E]

122---122---122---122

कोई दर्द अपना छुपा कर हँसा है

कि क्या ग़म उसे है किसे ये पता है


वो क़स्में, वो वादे हैं कहने की बातें

कहाँ कौन किसके लिए कब मरा है


कभी तुमको फ़ुरसत मिले ग़ौर करना

तुम्हारी ख़ता थी  कि मेरी ख़ता है ।


मरासिम नहीं है तो क्या हो गया अब

अभी याद का इक बचा सिलसिला है


तुम्हीं ने चुना था ये राह-ए-मुहब्बत

पता क्या नहीं था ये राह-ए-फ़ना है ?


न आती है हिचकी, न कागा ही बोले

ख़ुदा जाने क्यों आजकल वो ख़फ़ा है


न मेरे हुए तुम अलग बात है ये

मगर दिल मेरा आज भी बावफा है


बची उम्र भर यूँ ही तड़पोगे ’आनन’

तुम्हारे किए की यही इक सज़ा है ।


-आनन्द.पाठक-

मरासिम = संबंध ,Relations

ग़ज़ल 261[26 E] : इश्क़ तो दिल का ठिकाना ढूँढता है--

 ग़ज़ल 261 [26 E]

2122---2122---2122


इश्क तो दिल का ठिकाना ढूँढता है

रास्ता यह सूफियाना ढूँढता है


झूठ को जब सच बता कर बेचना हो

आदमी क्या क्या बहाना ढूँढता  है 


हादिसा क्या रह गया बाक़ी कोई अब ?

क्यों मेरा ही  आशियाना ढूँढता  है ?


लौट कर आता नहीं बचपन किसी का

क्यों अबस फिर दिन पुराना ढूँढता  है 


रोशनी अब तक नहीं उतरी जो दिल मे

फिर क्यों मौसम आशिक़ाना ढूँढता  है 


जिस फ़साने में जहाँ हो ज़िक्र उनका

दिल हमेशा वह फ़साना ढूँढता  है 


जब कभी बेचैन होता दिल ये ’आनन’

आप ही का आस्ताना ढूँढता  है 


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ


मसाइल = मसले, समस्यायें

आस्ताना = ड्योढ़ी ,चौखट ,दर


बुधवार, 7 सितंबर 2022

ग़ज़ल 260 [25 E] : कुछ और सफ़ाई में ---

 ग़ज़ल 260 [25 इ]


221--1222--//221--1222


कुछ और सफ़ाई में कहता भी तो क्या कहता

दुनिया ने जो समझा है, तुमने भी वही समझा 


इलज़ाम लगाना तो आसान बहुत सबको

 उँगली तो उठाते हो, अपना न तुम्हें दिखता


करना है तुझे जो कुछ, कर अपने भरोसे पर

दुनिया की फ़क़त बातें, बातों में है क्यों उलझा


तड़्पूँ जो इधर मैं तो, वो भी न तड़प जाए

हर बार मेरे दिल में रहता है यही खटका


रखता है नज़र कोई इक ग़ैब के पर्दे  से

छुपना भी अगर चाहूँ. ख़ुद को न छुपा सकता 


माना कि भरम है सब तुम हो तो इधर हम हैं

हम-तुम न अगर होते, दुनिया में है क्या रख्खा


’आनन’ ये ज़मीं अपनी जन्नत से न कम होती।

हर शख़्स मुहब्बत की जो राह चला करता ।


-आनन्द.पाठक-


सोमवार, 5 सितंबर 2022

ग़ज़ल 259 [24E] : ज़ाहिदों की बात में क्यों आ रहा है

 ग़ज़ल 259 [24 E]


2122---2122---2122


ज़ाहिदों की बात में क्यों  आ रहा है ?

गर तू सादिक़ है तो क्यों घबरा रहा है? 


क्यो है नफ़रत? आप समझें, आप जाने

प्यार क्या है? दिल मुझे समझा रहा है


साज़िशें करने लगी है अब हवाएँ-

कौन है जो नफ़रतें भड़का रहा है


आप की तारीफ़ ख़ुद ही आप ,साहिब !

तरबियत अख़लाक़ ही बतला  रहा है 


ख़ाक तेरी ख़ाक बन उड़ जाएगी जब

किस लिबास-ए-जिस्म पे बल खा रहा है


ज़िंदगी तो दी ख़ुदा ने सादगी की

तू हवस का जाल ख़ुद फ़ैला रहा है


रोशनी दिल में नहीं उतरी जब ’आनन’

तू किधर गुमराह हो कर जा रहा  है ।


-आनन्द पाठक-


शब्दार्थ 

ज़ाहिद  = धर्मोपदेशक 

सादिक़  = सच्च न्यायनिष्ठ 

तर्बियत- अख़्लाक़ = संस्कार शिष्ट आचार



शुक्रवार, 2 सितंबर 2022

ग़ज़ल 258[23E] : तुमने जो नाम लेकर मुझको कभी बुलाया

 ग़ज़ल 258 [23E]


221---2122  // 221--2122


तुमने जो नाम लेकर , मुझको कभी बुलाया

सौ काम छोड़ कर मै दौड़ा चला था आया


इस इज़्तराब-ए-दिल की क्या क़ैफ़ियत कहूँ मै

जो प्यार से मिला बस ,अपना उसे बनाया


गुमराह हो गया ख़ुद वो ढूँढता फिरे है

रस्ता तुम्हारे घर का जिसने मुझे बताया

 

रिश्ता ये बाहमी है यह जाविदाँ अज़ल से

उबरा वही है अबतक जिसने इसे निभाया


मेरी इबादतें थी या आप की नवाज़िश 

हर शै में आप ही का चेहरा उभर के आया


हिर्स-ओ-हवस, अना से, निकला कभी जो बाहर

बेलौस साफ़ अपना किरदार रास आया


अपने गुनाह लेकर जाते किधर को जाते

पूछा कभी तो सबने दर आप का बताया


उनकी गली में ’आनन’ जाओगे भी तो कैसे

तुमने चिराग़-ए-उल्फ़त है क्या कभी जलाया ?


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

इज़्तराब-ए-दिल = दिल की बेचैनी/व्याकुलता

बाहमी रिश्ता = परस्पर आपसी रिश्ता

जाविदा      = शाश्वत ,नित्य , अमर

हिर्स-ओ-हवस,अना से = लोभ मोह वासना अहम घमण्ड से

बेलौस साफ़  = पाक बेदाग़ साफ़