मंगलवार, 23 जून 2020

ग़ज़ल 150 फ़ुरसत कभी मिलेगी ---

बह्र 221---2121---1221-----212
बह्र-ए-मुज़ारे  मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मह्ज़ूफ़
मफ़ऊलु---फ़ाइलातु------मफ़ाइलु---फ़ाइलुन
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ग़ज़ल 150 फ़ुरसत कभी मिलेगी ---

फ़ुरसत कभी मिलेगी जो कार-ए-ज़हान से ,
आऊँगा तेरे दर पे कभी इतमिनान  से  ।   

हुस्न-ओ-जमाल का भले दीदार हो न हो ,
ख़ुशबू चलो कि आ रही तेरे मकान  से ।

अपनी अना में ख़ुद ही गिरफ़्तार हो गया ,
निकला भी नहीं था  अभी गर्द-ए-गुमान से ।

ये दर्द बेसबब तो नहीं , जानता है तू  ,
वाक़िफ़ नहीं तू क्या मिरे आह-ओ-फ़ुगान से ?

तौफ़ीक़ दे ख़ुदा कि मैं बाहर निकल सकूँ  ,
हर रोज़ ज़िन्दगी के कड़े  इम्तिहान  से  ।

जो भी है मेरा दर्द  तेरे सामने रहा ,
मैं क्या बयान खुद करूँ अपनी ज़ुबान से ।

बस भाग दौड़ में रहा ’आनन’ तू मुब्तिला ,
बेरब्त हो गया है तू दीन-ओ-इमान  से     ।

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
कार-ए-जहान  से=  दुनिया के कामों से
हुस्न-ओ-जमाल का = रूप सौन्दर्य का
अना = अहम ,घमंड
गर्द-ए-गुमान = ग़लत धारणा के गर्द से
आह-ओ-फ़ुगान  से= आर्तनाद से
त्तौफ़ीक़ दे = शक्ति दे
मुब्तिला      =ग्रस्त
बेरब्त = असंबद्ध

इसी ग़ज़ल को सुनें मेरी आवाज़ में---