क़िस्त 65
1
उलफ़त के हों साए
हँसते गाते बस
यह उम्र गुज़र जाए
2
अपना न कोई होता
तेरे रोने पर
है कौन यहाँ रोता
3
जी हाँ ! मै काफ़िर हूँ
शह्र-ए-बुतां का मैं
बस एक मुसाफ़िर हूँ
4
ये कैसी रवायत है
सच-सच बोलूँ तो
दुनिया को शिकायत है
5
यां सब की आँखें नम
किसको फ़ुरसत है
सुनता जो तुम्हारा ग़म
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