:1:
माली अगर सँवारे गुलशन
प्रेम भाव से मनोयोग से ।
ख़ुशबू फ़ैले दूर दूर तक
डाली डाली के सुयोग से।
बदले कितने रूप शब्द ने
तत्सम से लेकर तदभव तक
कितने क्रम से गुज़रा करतीं
जड़ी बूटियाँ ज्यों आसव तक ॥
ग़ज़ल 448 [22-जी] : तुम्हारे झूठ का हम ऎतबार क्या करते--
तुम्हारे झूठ का हम ऐतबार क्या करते
न बोलना है तुम्हे सच, इन्तज़ार क्या करते।
न सुननी बात हमारी, न दर्द ही सुनना ,
गुहार आप से हम बार बार क्या करते।
ज़ुबान दे के भी तुमको मुकर ही जाना है
तुम्ही बता दो कि तुमसे क़रार क्या करते।
वो साज़िशों में ही दिन रात मुब्तिला रहता,
बना के अपना उसे राज़दार क्या करते ।
हज़ार बार बताए उन्हें न वो समझे ,
न उनको ख़ुद पे रहा इख्तियार क्या करते।
लगा के बैठ गए दाग़ खुद ही दामन पर
यही खयाल चुभा बार बार, क्या करते ।
मक़ाम सब का यहाँ एक ही है जब 'आनन'
दिल.ए.ग़रीब को हम सोगवार करते ।
-आनन्द पाठक ’आनन’
ग़ज़ल 447[21-जी] : बाग़ मेरा यूँ न लुटा होता
2122---1212---22
बाग़ मेरा न यूँ लुटा होता
बाग़बाँ जो जगा रहा होता ।
हाल ग़ैरों से ही सुना तुमने ,
हाल-ए-दिल मुझसे कुछ सुना होता ।
सर उठा कर जो हम नहीं चलते
सर हमारा कटा नहीं होता ।
राह तेरी अलग रही होती
अपनी शर्तों पे जो जिया होता।
द्वार दिल का जो तुम खुला रखते
लौट कर वह नहीं गया होता ।
वक़्त भरता नहीं अगर मेरा
जख़्म-ए-दिल अब तलक हरा होता।
हुस्न और इश्क़ ग़र न हो ’आनन’
ज़िंदगी का जवाज़ क्या होता ?
-आनन्द.पाठक ’आनन’-
जवाज़ = औचित्य
ग़ज़ल 446[ 20-जी] : लोग अपने आप पर
[
मित्रो ! पिछली पोस्ट में मैने लिखा था कि इस संस्करण को मैं द्वितीय संस्करण का
नाम नहीं दे रहा हूँ। क्यों नहीं दे रहा हूँ, इसका स्पष्टीकरण इस भूमिका में कर
दिया हूँ।आप भी पढ़ें।]
अभी
संभावना है -- ग़ज़ल संग्रह की भूमिका से--
==
===== =====
मैं स्वीकार करता हूँ ------
अभी संभावना है- [ गीत ग़ज़ल संग्रह] की यह संशोधित
आवृति आप के हाथों में है। मैं इसे द्वितीय संस्करण का नाम नही दे रहा हूँ अपितु
यह पहली आवॄति की पुनरावृति या अधिक से अधिक इसे परिष्कॄत, परिवर्तित, परिशोधित या
परिवर्धित रूप कह सकते हैं। आप के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मै ऎसा
क्यों कह रहा हूँ या फिर इस आवृति की आवश्यकता ही क्या थी ?
मेरी पहली पुस्तक –शरणम श्रीमती जी-[ व्यंग्य संग्रह] थी जो सन
2005 में प्रकाशित हुई थी। ठीक उसके बाद मेरी दूसरी पुस्तक- अभी संभावना है—[गज़ल
गीत संग्रह] थी जो सन 2007 में प्रकाशित हुई थी और वह मेरा प्रथम ग़ज़ल संग्रह था, जिसमें
मेरी कुल 68 ग़ज़लें, 21 गीत संग्रहित थे।
17-18 साल बाद, आज जब मैं मुड़ कर देखता हूँ तो मैं यह निस्संकोच
स्वीकार करता हूँ –उसमें ग़ज़ल कहाँ थी ? शे’रियत कहाँ थी ,ग़ज़लियत कहाँ थी, तग़ज़्ज़ुल
कहाँ था? बस नाम मात्र की ’तथाकथित’ कुछ ग़ज़लनुमा चीज़ थी मगर वो ग़ज़ल न थी। न
क़ाफ़िया, न रदीफ़, न बह्र, न वज़न, न अर्कान, न अरूज़ । बस कुछ जुमले, कुछ अधकचरी
तुकबंदी-सी कोई चीज़ थी जिन्हें उन दिनों मैं ग़ज़ल समझता था। उस वक़्त मुझे ये सब
इस्तेलाहात [परिभाषाएँ] मालूम न थे। इधर उधर से कुछ पढ़ कर, कुछ लोगो से सुन सुना
कर तुकबंदिया करने लगा था। वह एक मात्र बाल सुलभ-प्रयास था, न ग़ज़लियत, न तगज़्ज़ुल,
न शे’रियत। यह बात मैने पहली आवृति में खुले मन से स्वीकार भी किया और लिखा भी था ।
मुझे आज भी यह सब स्वीकार करने में रंच मात्र भी संकोच नहीं। कारण
उर्दू मेरी मादरी ज़ुबान नहीं। वक्त बीतता गया । अनुभव होता गया। मैं अन्य विधाओं
जैसे व्यंग्य, माहिया, दोहा, गीत अनुभूतियां, मुक्तक, कविता आदि के लेखन में
व्यस्त हो गया। साथ ही अरूज़ का सम्यक अध्ययन भी करने लग गया। स्वयं सर संधान करने
लग गया। शरद तैलंग साहब का एक शे’र है-
सिर्फ़ तुकबन्दियाँ काम
देंगी नहीं
शायरी कीजिए शायरी की तरह
।
- आज
मैं यह स्वीकार करता हूँ कि पुस्तक की पहली आवृति किसी मुस्तनद उस्ताद को दिखा
लेना चाहिए था तो फिर ऐसी नौबत न आती। अफ़सोस ! ऐसा हो न सका। शायरी को शायरी की
तरह न कर सका। आज भी नहीं कर सकता।
शायरी को शायरी की तरह करने के लिए ज़रूरी था कि या तो कोई मुस्तनद [
प्रामाणिक] उस्ताद मिलते या अरूज़ [ ग़ज़ल का व्याकरण] पढ़्ता और समझता। पहला विकल्प
तो हासिल न हो सका। कारण कि किसी ने मुझे ’शागिर्द’ बनाया ही नहीं, न ही मुझे
शागिर्द बनाने के योग्य समझा। न ही किसी ने ’गण्डा’ बाँधा । सो मैने स्वाध्याय पर
ही भरोसा किया।
मगर
इसमें भी एक समस्या थी। अरूज़ की जितनी प्रामाणिक किताबे थी सब उर्दू लिपि [ रस्म
उल ख़त] में थी। फिर भी मैने स्वाध्याय से काम भर या काम चलाऊ उर्दू सीखना शुरु
किया । “आए थे हरि भजन को , ओटन लगे कपास”। अल्हम्द्लल्लाह , ख़ुदा ख़ुदा कर कुछ कुछ
उर्दू, किताबों से पढ़ना सीखा। अरूज़ की किताबों का अध्ययन किया, इन्टर्नेट पर
तत्संबधित सामग्री का मुताअ’ला [ अध्ययन ] किया । अभी बहुत कुछ सीखना है। सीखने का
सफ़र खत्म नहीं होता। निरन्तर चलता रहता है। जितना समझ सका, उतना मैने अपने एक
ब्लाग “उर्दू बह्र पर एक बातचीत “ [www.arooz.co.in] के
नाम से, यकज़ा [ एक जगह ] फ़राहम कर दिया जिससे मेरे वो हिंदीदाँ दोस्त जो शायरी से
ज़ौक-ओ-शौक़ फ़रमाते हैं, लगाव रखते हैं।मुस्तफ़ीद [ लाभान्वित ] हो सकें
इतने के बावज़ूद, मैने कभी खुद को शायर
होने का दावा नहीं किया और न कभी कर सकता हूँ । बस एक अदब आशना हूँ।
न आलिम, न शायर, न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्बत, अदब आशना हूँ ।
ख़ैर, सोचा कि अब वक़्त आ गया है कि अपने उस पहले ग़ज़ल संग्रह -अभी
संभावना है – में जो कमियाँ या ख़ामियाँ रह गई थीं उन्हे यथा संभव अब दुरुस्त
कर दिया जाए। एक विकल्प यह था कि जो हो गया सो हो गया और जैसे है उसे वैसे ही छोड़
दें। As it is, where it is| मगर सारी रचनाएं मेरी ही थीं, मेरा
ही सृजन था, कैसे छोड़ सकता था भला। यथाशक्ति सुधार करना ही बेहतर समझा ।
यह काम इतना आसान भी नहीं था,
मगर नामुमकिन भी नहीं था। अत: उन तमाम [68] ग़ज़लों और गीतों को स्वप्रयास से सुधारना
शुरु किया । ग़ज़लो और गीतों का क्रम भी वही रखा जो पहली आवृति में था। मुझे यक़ीन था
यह काम एक दिन में नहीं होगा, मगर ’एक दिन’ होगा ज़रूर। शनै: शनै: एक दिन यह भी काम
पूर्ण हो गया, जो अब आप लोगों के हाथॊं में है।
अनुभव के आधार पर, एक बात ज़रूर कहना चाहूँगा। । किसी विकृति,
टेढ़े-मेढ़े, जर्जर भवन का जीर्णोंद्धार कर, उसे सही एवं सुकृति भवन बनाने से आसान है नया सृजन ही कर देना। ख़ैर, इस आवृति
में कोशिश यही रही कि पुरानी ग़जलॊ का केन्द्रीय भाव [core structure] यथा संभव वही रहे, मगर बहर में
रहे,वज़न में रहे, कम से कम रदीफ़ तो सही
रहे-क़ाफ़िया तो सही रहे। मूल भावना यही थी कि ग़ज़ल का मयार [स्तर,standard, भावपक्ष] जो
भी हो जैसा भी हो, कम अज कम कलापक्ष, व्याकरण पक्ष, अरूज़ के लिहाज़ से तो सही हो ।
और यही कोशिश यथा संभव मैने इस संशोधित /परिवर्धित आवृति में की है।
मयार/
शे’रियत/ ग़ज़लियत/ तग़ज़्ज़ुल तो ख़ैर हर शायर का अपना अंदाज़-ए-बयाँ होता है,अलग होता
है, मुख़्तलिफ़ होता जो.उसकी क़ाबिलियत. उसके हुनर, उसके फ़न उसके फ़हम उसकी सोच, सोच
की बुलन्दी, तख़य्युल वग़ैरह पर मुन्हसर [ निर्भर] होता है। इस पर मुझे विशेष कुछ
नहीं कहना है। इसके लिए सही अधिकारी आप लोग हैं, पाठकगण हैं।
यह संशोधित संस्करण आप लोगों के हाथों सौंप
रहा हूँ । आप की टिप्पणियों का, सुझावों का, प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।
चलते
चलते एक बात और—
शायरी [ या किसी फ़न] में ’हर्फ़-ए-आख़िर’ कुछ नहीं होता।
सादर
-आनन्द.पाठक
‘आनन’ -
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संजय कुमार
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मुक्तक 22
;1;
मजदूरों की बस्ती साहिब
जान यहाँ है सस्ती साहिब
जब चाहे आकर उजाड़ दें
’बुधना’ की गृहस्थी साहिब
एक सूचना-पुस्तक -प्रकाशन के संदर्भ में
अभी संभावना है
मित्रो
!
आप लोगों को यह सूचित
करते हुए हर्षानुभूति हो रही है कि आप लोगों के आशीर्वाद से और शुभकामनाओं से मेरा
अगली किताब –अभी संभावना है [ ग़ज़ल संग्रह]— प्रकाशित हो कर आ गई है । इसे मै 13TH
पुस्तक तो नहीं कह सकता। वस्तुत: यह मेरे प्रथम ग़ज़ल संग्रह - अभी संभावना है-का
ही संशोधित रूप है। मैं इसे द्वितीय संस्करण का नाम नही दे रहा हूँ अपितु यह पहली
आवॄति की ही पुनरावृति या अधिक से अधिक इसे परिष्कॄत, परिवर्तित, परिशोधित या
परिवर्धित रूप कह सकता हूँ। आप के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मै ऎसा
क्यों कह रहा हूँ या फिर इस आवृति की आवश्यकता क्या थी ? इस प्रश्न का उत्तर मैने
इस संग्रह की भूमिका में विस्तार से लिख दिया है।
इस संग्रह का आशीर्वचन आ0 द्विजेन्द्र ’द्विज’
जी ने लिखा है। द्विज जी स्वयं एक समर्थ ग़ज़लकार है और ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर भी।
। वह एकान्त साहित्य साधक हैं, आत्म मुग्धता से बहुत दूर रहते हैं। वह ग़ज़ल कहते
नहीं अपितु जीते हैं।
यह संशोधित संस्करण आप लोगों के हाथों सौंप रहा हूँ । आप की टिप्पणियों का,
सुझावों का, प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।
दस्तकें देते रहो
तुम हर मकां, हर दर पे ‘आनन’
आदमी में आदमीयत जग उठे संभावना है।’
सादर
-आनन्द.पाठक
‘आनन’ –
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चन्द माहिए : क़िस्त 111/21
:1:
उस पार मेरा माही
टेरेगा जिस दिन
उस दिन तो जाना ही ।
:2:
जब दिल ही नहीं माना
क्या होगा लिख कर
कोई राजीनामा ।
एक सूचना --नए ’यू-ट्यूब ’ चैनेल के बारे में
मित्रो!
अपनी व्यंग्य रचनाओं के लिए मैने अपना एक #youtube_channel# बनाया है - #मुखौटों_की_दुनिया# -
जहाँ आप मेरी व्यंग्य रचनाओं का वाचन सुन सकते हैं और आनन्द उठा सकते हैं।अगर पसंद आए तो subscribe भी कर सकते हैं
www.youtube.com/@333akp
आप ने अगर #subscribe अबतक नहीं किए हों तो कृपया कर दें
सादर
- आनन्द पाठक-
यहाँ क्लिक करें
चंद माहिए : क़िस्त 109/19
:1:
बदरा बरसै रिमझिम
आग लगाता है
तन में मद्धिम मद्धिम ।
:2:
जल प्लावन कर जाता
बादल जब फटता
मन अपना डर जाता ।
:3:
उड़ता तेरा आँचल
नील गगन में ज्यों
उड़ता रहता बादल ।
:4:
कुछ भी ना कहती हो
अन्दर ही अन्दर
बस घुटती रहती हो ।
:5:
क्या तुम को सुनानी है
जैसे सबकी है
अपनी भी कहानी है ।
-आनन्द.पाठक-
[ स्व0] कवि धूमिल जी की प्रेरणा से और क्षमा याचना सहित ]
कविता 031: एक आदमी सड़क पर---
-आनन्द.पाठक-
चन्द माहिए : 107 /17
:1:
ग़ज़ल 442[16-जी] : आदमी में शौक़-ए-उलफ़त
2122---2122---2122---212
साँस ले ले कर ही जीना ज़िंदगी काफी नहीं
ज़िंदगी के रंग में कुछ और रंगत चाहिए ।
अह्ल-ए-दुनिया आप की बातें सुनेगे एक दिन
आप की आवाज़ में कुछ और ताक़त चाहिए ।
जब कि चेहरे पर तुम्हारे गर्द भी है दाग़ भी
सामने जब आईना , फिर क्या वज़ाहत चाहिए ।
कश्ती-ए-हस्ती हमारी और तूफ़ाँ सामने
ख़ौफ़ क्या, बस आप की नज़र-ए-इनायत चाहिए।
जानता हूँ ज़िंदगी की राह मुशकिल, पुरख़तर
आप की बस मेहरबानी ता कयामत चाहिए ।
ढूँढता हर एक दिल ’आनन’ सहारा , हमनशीं
मौज-ए-दर्या को भी साहिल की कराबत चाहिए ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 441[15-G] :
221---2121---1221---212
उनको अना, गुरूर का ऐसा चढ़ा नशा
ख़ुद को वो मानने लगे हैं आजकल ख़ुदा ।
हर दौर के उरूज़ का हासिल यही रहा
परचम बुलंद था जो कभी खाक में मिला ।
रुकता नहीं है वक़्त किसी शख़्स के लिए
तुम कौन तीसमार हो औरों से जो जुदा ।
जिसकी क़लम बिकी हो, ज़ुबाँ भी बिकी हुई
सत्ता के सामने वो भला कब हुआ खड़ा ।
जो सामने सवाल है उसका न ज़िक्र है
बातें इधर उधर की वो कब से सुना रहा ।
क़ायम है ऎतिमाद तो क़ायम है राह-ओ-रब्त
वरना तो आदमी न किसी काम का हुआ ।
’आनन’ ज़रा तू सोच में रद्द-ओ-बदल तो कर
फिर देख ज़िंदगी कभी होती नहीं सज़ा ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
उरूज़ = उत्त्थान, विकास
ऎतिमाद = विश्वास , भरोसा
राह-ओ-रब्त = मेल जोल, मेल मिलाप, दोस्ती
ग़ज़ल 440 [ 14 जी] : एक मुद्दत से वह दुनिया से--
2122---2122---2122
एक मुद्दत से वो दुनिया से ख़फ़ा है ।
मन मुताबिक जब न उसको कुछ मिला है
जख़्म दिल के कर रहे है हक़ बयानी
आदमी हालात से कितना लड़ा है ।
हारने या जीतने से है ज़ियादा
आप का ख़ुद हौसला कितना बड़ा है।
बाज कब आती हवाएँ साज़िशों से
पर चिराग़-ए-इश्क़ कब इन से डरा है।
आदमी की साज़िशो से साफ़ ज़ाहिर
आदमी अख़्लाक़ से कितना गिरा है ।
जोश हो, हिम्मत इरादा हो अगर तो
कौन सा है काम मुश्किल जो रुका है।
ज़िंदगी है इक गुहर नायाब ’आनन’
एक तुहफ़ा है , ख़ुदा ने की अता है ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 439 [13-G]
1222---1222---1222---1222
जो राहें ख़ुद बनाते हैं , उन्हें क्या खौफ़, आफ़त क्या
मुजस्सम ख़ुद विरासत हैं, उधारी की विरासत क्या ।
पले हों ’रेवड़ी’ पर जो, सदा ख़ैरात पर जीते
उन्हें तुम क्यों जगाते हों, करेंगे वो बग़ावत क्या ।
नज़र रहते हुए भी जो, बने कस्दन हैं नाबीना
उन्हें करना नहीं कुछ भी तो फिर शिकवा शिकायत क्या ।
रखूँ उम्मीद क्या उनसे, करेगा वह भला किसका
हवा का रुख़ न पहचाने करेगा वह सियासत क्या ।
मिले वह सामने खुल कर मिलाए हाथ भी हँस कर
नहीं साजिश रचेगा वो, कोई देगा जमानत क्या ।
अगर ना तरबियत सालिम, नहीं अख़्लाक़ ही साबित
बिना बुनियाद के होती कहीं पुख़्ता इमारत क्या ।
करूँ मैं बात क्या ’आनन’, नहीं तहजीब हो जिसमे
पता कुछ भी न हो जिसको, अदब क्या है शराफ़त क्या ।
-आनन्द.पाठक-
-एक सूचना-
मित्रो !
आप लोगों के आशीर्वाद और स्नेह से , मैने अपने यू-ट्यूब चैनेल बनाए हैं। अब तक आप लोगों ने इस मंच पर मेरी काफी रचनाएँ-जैसे गीत ग़ज़लमाहिए-दोहे-कविताएं और व्यंग्य -पढ़ीं और उत्साहवर्धन किया । अब इन्ही रचनाओं का स्वर पाठ, वाचन मेरे चैनेल पर सुनें और आशीर्वाद दें
चूँकि यह मेरे ’एकल और प्रथम प्रयास है-प्रोफ़ेसनलिज्म न मिले । इस प्रयास में बहुत सी कमियाँ भी होंगी ,आशा करता हूँ कि इसमे उत्त्तरोत्तर सुधार होता जाएगा । आप इसे सब्सक्राइब, लाइक और शेयर करें ।
इसमें मेरी काव्यात्मक रचनाऒं [गीत-ग़ज़ल-माहिए-कविताओ आदि] का स्वर पाठ होगा। आप लय-स्वर-सुर पर ध्यान न दीजिएगा-बस भाव पर ध्यान दीजिएगा।
आप की शुभ कामनाओं का आकांक्षी--
सादर
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियाँ 181/68
721
बार बार क्या कहना है अब
समझाना तुमको मुश्किल है
अपनी ज़िद में दिल ये तुम्हारा
सच सुनने के नाक़ाबिल है ।
722
चाँद सितारे दर्या झरना
कहते सबमे झलक उसी की
जिस दिन दिल ने मान लिया तो
फिर न सुनेगा बात किसी की
723
कौन यहाँ है जो न दुखी है
किसके अपने नहीं मसाइल
आशा की जब एक किरन हो
दूर कहाँ फिर रहता साहिल
724
रोज रोज की किचकिच किचकिच
कर देते हैं रिश्ते बोझिल
खुशबू फैले कोने कोने
समझदार जब होते दो दिल
-आनन्द पाठक-
ग़ज़ल 438 [ 12-]
1222---1222---1222---122
हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है
हमारी ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।
गुजरने को गुज़र जाता समय चाहे भी जैसा हो
मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।
सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से
अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।
मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में
तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।
जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो
यहाँ पर कौन है ऐसा जो उम्र-ए-जाविदाँ है ।
सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी
मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।
जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’
तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।
-आनन्द पाठक-
कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है
ग़ज़ल 437 [11-G]
212---212---212---212
यार मेरा कहीं बेवफ़ा तो नहीं
ऐसा मुझको अभी तक लगा तो नहीं
कत्ल मेरा हुआ, जाने कैसे किया ,
हाथ में उसके ख़ंज़र दिखा तो नहीं
बेरुख़ी, बेनियाज़ी, तुम्हारी अदा
ये मुहब्बत है कोई सज़ा तो नहीं
तुम को क्या हो गया, क्यूँ खफा हो गई
मैने तुम से अभी कुछ कहा तो नहीं
रंग चेहरे का उड़ने लगा क्यों अभी
राज़ अबतक तुम्हारा खुला तो नहीं
लाख कोशिश तुम्हारी शुरू से रही
सच दबा ही रहे, पर दबा तो नहीं ।
वक़्त सुनता है ’आनन’ किसी की कहाँ
जैसा चाहा था तुमने, हुआ तो नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
इस ग़ज़ल को आ0 विनोद कुमार उपाध्याय जी [ लखनऊ] की आवाज़ में सुनें
यहाँ सुनें
ग़ज़ल् 436 [10-]
212---212---212---212--
उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी
क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।
तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते
राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?
दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा
कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की
लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ
क्या बिना आग का यह धुआँ है सही
क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे
रोटियाँ ना सिकीं, व्यर्थ है ’लीडरी’
जिसको होता किसी पर भरोसा नहीं
खुद के साए से डरता रहा है वही ।
हम सफर जब नहीं ,हम सुखन भी नहीं
फिर ये 'आनन' है किस काम की जिंदगी
-आनन्द.पाठक-