मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

अनुभूतियाँ 181/68

 अनुभूतियाँ 181/68


721

बार बार क्या कहना है अब

समझाना तुमको मुश्किल है

अपनी ज़िद में दिल ये तुम्हारा

सच सुनने के नाक़ाबिल है ।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

ग़ज़ल 438 [12- G] : हमारी दास्ताँ में ही--

 ग़ज़ल 438 [ 12-]

1222---1222---1222---122


हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है

हमारी ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।


गुजरने को गुज़र जाता समय चाहे भी जैसा हो

मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।


सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से

अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।


मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में

तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।


जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो

यहाँ पर कौन है ऐसा जो उम्र-ए-जाविदाँ है ।


सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी 

मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।


जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’

तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।


-आनन्द पाठक-

कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है


रविवार, 30 मार्च 2025

ग़ज़ल 437S [11-G] : यार मेरा कहीं बेवफ़ा तो नहीं

 ग़ज़ल 437 [11-G]

212---212---212---212


यार मेरा कहीं  बेवफ़ा तो नहीं

 ऐसा मुझको अभी तक लगा तो नहीं


कत्ल मेरा हुआ, जाने कैसे किया ,

हाथ में उसके ख़ंज़र दिखा तो नहीं


बेरुख़ी, बेनियाज़ी, तुम्हारी अदा

ये मुहब्बत है कोई सज़ा तो नहीं


तुम को क्या हो गया, क्यूँ खफा हो गई

मैने तुम से अभी कुछ कहा तो नहीं


रंग चेहरे का उड़ने लगा क्यों अभी 

राज़ अबतक तुम्हारा खुला तो नहीं


लाख कोशिश तुम्हारी शुरू से रही

सच दबा ही रहे, पर दबा तो नहीं ।


वक़्त सुनता है ’आनन’ किसी की कहाँ

जैसा चाहा था तुमने, हुआ तो नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को आ0 विनोद कुमार उपाध्याय जी [ लखनऊ] की आवाज़ में सुनें

यहाँ सुनें

https://www.facebook.com/share/v/1JErAJexTa/

बुधवार, 26 मार्च 2025

ग़ज़ल् 436 [10-G] : उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी

 ग़ज़ल् 436 [10-]

212---212---212---212--


उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी

क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।


तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते

राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?


दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा

कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की


लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ

क्या बिना आग का यह धुआँ है सही


क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे

रोटियाँ ना सिकीं, व्यर्थ है ’लीडरी’


जिसको होता किसी पर भरोसा नहीं

खुद के साए से डरता रहा है वही ।


हम सफर जब नहीं ,हम सुखन भी नहीं

फिर ये 'आनन' है किस काम की जिंदगी

-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 180/67

 अनुभूतियाँ 180/67

717
मुझे ग़लत ही समझा सबने
कभी किसी ने दिया साथ क्या ?
तुमने भी गर समझा ऐसा
तो फिर इसमें नई बात क्या ।

718
साथ निभाने वाली बातें
मैं कब भूला, तुम ही भूली ।
याद दिला कर भी क्या होगा
तुम्हें नही जब करनी पूरी ।

719
कौन तुम्हारे साथ खड़ा था
किसने बना रखी थी दूरी ।
उन्हे परखना, उन्हें समझना
तुमने समझा नही ज़रूरी

720
आँखों के सपनों की ख़ातिर
गिरते, उठते, थकते, चलते
और ज़िंदगी कट जाती है
सुख दुख के साए में पलते

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 25 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 179/66

 अनुभूतियाँ 179/66

713

सत्य कहाँ तक झुठलाओगे

छुपता नहीं, न दब पाएगा ।

ख़ुद को धोखा कब तक दोगे

झूठ कहाँ तक चल पाएगा ।


714

सुख दुख चलते साथ निरन्तर

जबतक जीवन एक सफ़र है

जितना उलझन मन के बाहर

अधिक कहीं मन के अंदर है।


715

वक़्त गुज़रने को गुज़रेगा

भला बुरा या चाहे जैसा

ज़ोर नहीं जो अगर तुम्हारा

ढलना होगा तुमको वैसा


716

क्या करना है तुमको सुन कर

कैसी गुज़र रही है मुझ पर

शायद तुमको खुशी न होगी
ज़िंदा रहता हूँ मर मर कर


-आनन्द.पाठक-


इसी अनुभूतियों कॊ आ0  विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] के स्वर में यहाँ सुनें और आनन्द उठाएँ

https://www.facebook.com/share/v/1CAa5Jw1Ra/



सोमवार, 24 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 178/65

अनुभूतियाँ 178/65

709
हाथ मिलाना हाय! हलो! बस
दिल का दिल से  पर्दादारी
मन से मन ही नही मिला जो
बाक़ी तो बस दुनियादारी ।

710
व्यर्थ विवेचन क्या करना अब
चाकू कहाँ किधर रखना था 
अन्तिम परिणति नियति यही थी
खरबूजे को ही कटना  था ।

711
कण कण में सब देख रहे हैं
सत्ता का विस्तार तुम्हारा ।
ग्यानी-ध्यानी सोच रहे हैं
क्या होगा आकार तुम्हारा ।

712
रंग मंच पर अभिनय तबतक
जब तक पर्दा नहीं गिरा है
कर्म सभी के निर्धारित हैं
जिनको जितना ’रोल’ मिला है


-आनन्द.पाठक-










































शनिवार, 22 मार्च 2025

विविध 10: ज़मीन एक : शायर अनेक

[नोट : यह आलेख  फ़ेसबुक से देवमणि पाण्डेय जी के वाल से साभार लिया गया है ]--

आदाब साथियो

 आदरणीय Sunil Tripathi जी की पोस्ट से प्रेरित एक साभार आलेख………


◆#ग़ज़ल_यानी_दूसरों_की_ज़मीन_पर_अपनी_खेती◆

*************************************

ग़ज़ल दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती है। बतौर शायर आप भले ही दावा करें कि आपने नई ज़मीन ईजाद की है मगर सच यही है कि आप दूसरों की ज़मीन पर ही शायरी की फ़सल उगाते हैं। कोई ऐसा क़ाफ़िया, रदीफ़ या बहर बाक़ी नहीं है जिसका इस्तेमाल शायरी में न हुआ हो। कोई-कोई ज़मीन तो ऐसी है जिसका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हो चुका है और लगातार होता रहेगा। मसलन शायद ही कोई ऐसा शायर हो जिसने मोमिन साहब की इस ज़मीन पर ग़ज़ल की फ़सल न उगाई हो-

तुम मेरे पास होते हो गोया,

जब कोई दूसरा नहीं होता.


तुम हमारे किसी तरह न हुए,

वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता.

आज़ादी से पहले लखनऊ में एक शायर हुए अर्सी लखनवी। मुशायरों में उनका एक शेर काफ़ी मक़बूल हुआ था-


कफ़न दाबे बगल में घर से मैं निकला हूँ ऐ अर्सी,

न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.

डॉ.बशीर बद्र ने फ़न का कमाल दिखाया। ऊपर का मिसरा हटाया और बड़ी ख़ूबसूरती से अपना मिसरा लगाया। आप जानते ही हैं कि यही ख़ूबसूरत शेर आगे चलकर शायर बशीर बद्र का पहचान पत्र बन गया-


उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,

न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.


मैंने डॉ बशीर बद्र से व्यक्तिगत रूप से पूछा था कि क्या आपने जानबूझकर अर्शी लखनवी का यह मिसरा उठाया है। उन्होंने जवाब दिया- "जी हां हमारी यह रिवायत है। ये तो देखिए कि मैं ने एक मिसरा बदलकर इस शेर को कितना ख़ूबसूरत बना दिया।"

भोपाल के मशहूर शायर शेरी भोपाली की एक ग़ज़ल मुशायरों में बहुत पसंद की जाती थी। उसका एक शेर है-


अभी जो दिल में हल्की सी ख़लिश महसूस होती है, 

बहुत मुमकिन है कल इसका मुहब्बत नाम हो जाए.

अब भोपाल के ही शायर डॉ बशीर बद्र का एक मशहूर शेर देखिए-


वो मेरा नाम सुनकर कुछ ज़रा शर्मा से जाते हैं

बहुत मुमकिन है कल इसका मुहब्बत नाम हो जाए


डॉ बशीर बद्र से सीनियर थे शेरी भोपाली। हो सकता है कि बशीर बद्र ने उनके मिसरे पर तरही ग़ज़ल कही हो।

मुझे लगता है कि ख़याल की सरहदें नहीं होतीं। यानी दुनिया में कोई भी दो शायर एक जैसा सोच सकते हैं। जाने-अनजाने दो फ़नकार शायरी की एक ही ज़मीन पर एक जैसी फ़सल उगा सकते हैं। मैंने सन् 1975 में किसी की पंक्तियाँ सुनी थीं जो अब तक मुझे याद है-


भीग जाती हैं जो पलकें कभी तनहाई में

काँप उठता हूँ कोई जान न ले.

ये भी डरता हूँ मेरी आँखों में

तुझे देख के कोई पहचान न ले.

पाकिस्तान की मशहूर शायरा परवीन शाकिर का भी इसी ख़याल पर एक शेर नज़र आया –


काँप उठती हूँ मैं ये सोचके तनहाई में,

मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई.

ख़यालों की ये समानता इशारा करती है कि सोच की सरहदें इंसान द्वारा बनाई गई मुल्क की सरहदों से अलग होती हैं। शायर कैफ़ी आज़मी ने नौजवानी के दिनों में एक ग़ज़ल कही थी। वो इस तरह है-


मैं ढूँढ़ता जिसे हूँ वो जहाँ नहीं मिलता

नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता


वो तेग़ मिल गई जिससे हुआ है क़त्ल मेरा

किसी के हाथ का इस पर निशां नहीं मिलता

निदा फ़ाज़ली साहब जवान हुए तो उन्होंने कैफ़ी साहब के सिलसिले को इस तरह आगे बढ़ाया-


कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता

कभी ज़मी तो कभी आसमां नहीं मिलता


फ़िल्म ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ में शामिल निदा साहब की यह ग़ज़ल भूपिंदर सिंह की आवाज़ में इतनी ज्यादा पसंद की गई कि लोग कैफ़ी साहब की ग़ज़ल भूल गए।

मुशायरे के मंच पर भी दिलचस्प प्रयोग मिलते हैं। कभी-कभी दो शायर एक दूसरे की मौजूदगी में एक ही ज़मीन में एक जैसा नज़र आने वाले शेर पढ़ते हैं। श्रोता ऐसी शायरी का बड़ा लुत्फ़ उठाते हैं। शायर मुनव्वर राना का एक शेर इस तरह मुशायरों में सामने आया-


उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं.

क़द में छोटे हैं मगर लोग बड़े रहते हैं.

डॉ.राहत इंदौरी ने अपने निराले अंदाज़ में अपना परचम इस तरह लहराया-


ये अलग बात कि ख़ामोश खड़े रहते हैं.

फिर भी जो लोग बड़े हैं वो बड़े रहते हैं.

दोनों शायरों को मुबारकबाद दीजिए कि उन्होंने अपने इल्मो-हुनर से लोगों को बड़ा बनाया। मुंबई में मुशायरे के मंच पर सबसे पहले हसन कमाल ने ये कलाम सुनाया-


ग़ुरूर टूट गया है, ग़ुमान बाक़ी है.

हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है.

इसी ज़मीन पर शुजाउद्दीन शाहिद का एक शेर सामने आया- 


घरों पे छत न रही सायबान बाक़ी है. 

हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है.

इस पर डॉ.राहत इंदौरी ने फ़ैसला सुनाया-


वो बेवकूफ़ ज़मीं बाँटकर बहुत ख़ुश है,

उसे कहो कि अभी आसमान बाक़ी है.

इसके बाद राजेश रेड्डी के तरन्नुम ने कमाल दिखाया-


जितनी बँटनी थी बँट गई ये ज़मीं,

अब तो बस आसमान बाक़ी है.

राजेश रेड्डी बा-कमाल शायर हैं। उनके बारे में मशहूर है कि वे बड़ी पुरानी ज़मीन में बड़ा नया शेर कह लेते हैं। मसलन जोश मल्सियानी का शेर है-


बुत को लाए हैं इल्तिजा करके.

कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा करके.

राजेश रेड्डी ने इस पुरानी ज़मीन में नई फ़सल उगाने का ऐसा कमाल दिखाया कि उनके फ़न को जगजीत सिंह जैसे मक़बूल सिंगर ने अपने सुर से सजाया-


घर से निकले थे हौसला करके,

लौट आए ख़ुदा ख़ुदा करके,

"आसमान बाक़ी है"... अभी तक ये तय नहीं हो पाया है कि इस ज़मीन का असली मालिक कौन है। मैंने शायर निदा फ़ाज़ली से इसका ज़िक्र किया। वे मुस्कराए- 'अभी तक इन…..को पता ही नहीं है कि आसमान बँट चुका है। इनको एक हवाई जहाज़ में बिठाकर कहो कि बिना परमीशन लिए किसी दूसरे मुल्क में दाख़िल होकर दिखाएं। फ़ौरन पता चल जाएगा कि आसमान बँटा है या नहीं।

नौजवान शायर आलोक श्रीवास्तव का ‘माँ’ पर एक शेर है जो उनके काव्य संकलन 'आमीन' में प्रकाशित एक ग़ज़ल में शामिल है-


बाबू जी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुई तब-

मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा.

माँ पर शायर मुनव्वर राना का एक मतला है जिसे असीमित लोकप्रियता हासिल हुई-


किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आयी.

मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी.

मुझे नहीं पता कि इस पर राना साहब का कमेंट क्या है मगर आलोकजी का दावा है कि उनके शेर के पाँच साल बाद राना जी का मतला नज़र आया।

सदियों से ग़ज़ल के क्षेत्र में हमेशा कुछ न कुछ रोचक प्रयोग होते रहते हैं । कभी शायरों के ख़याल टकरा जाते हैं तो कभी मिसरे। ख़ुदा-ए-सुख़न मीर ने लिखा था –


बेख़ुदी ले गई कहाँ हमको,

देर से इंतज़ार है अपना.

इसी ख़याल को ग़ालिब साहब ने अपने अंदाज़ में आगे बढ़ाया-


हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी,

ख़ुद हमारी ख़बर नहीं आती.

मुझे लगता है कि 'ख़ुदाए-सुख़न मीर' से मिर्ज़ा ग़ालिब काफ़ी प्रभावित थे। उनपर मीर का यह असर साफ़-साफ़ दिखाई देता है। मिसाल के तौर पर दोनों के दो-दो शेर देखिए-


तेज़ यूँ ही न थी शब आतिशे-शौक़,

थी ख़बर गर्म उनके आने की.-मीर तकी मीर


थी ख़बर गर्म उनके आने की,

आज ही घर में बोरिया न हुआ.-मिर्ज़ा ग़ालिब

होता है याँ जहां में हर रोज़ो-शब तमाशा.

देखा जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा.-मीर 


बाज़ी-चा-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे.

होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे.-मिर्ज़ा ग़ालिब

फ़िल्म उमराव जान में ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित शायर शहरयार की ग़ज़ल का मतला है-


दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये.

बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये.

इस ग़ज़ल ने शहरयार को रातों-रात लोकप्रियता की बुलंदी पर पहुँचा दिया। इस मतले के दोनों मिसरे बिहार के शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी की एक ग़ज़ल से वाबस्ता हैं। उनकी उस ग़ज़ल के शेर देखिए-

दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये.

ख़ंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये.

बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात,

बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये.

मर जायेंगे मिट जायेंगे हम कौम के लिए,

मिटने न देंगे मुल्क, ये ऐलान लीजिये.


बिस्मिल अज़ीमाबादी का एक और शेर है-


'बिस्मिल' ऐ वतन तेरी इस राह-ए-मुहब्बत में

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

 ■

इसी ज़मीन पर जिगर मुरादाबादी का भी मशहूर शेर है-


ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है

मुझे नहीं पता कि दोनों शायरों में से किसने पहले ये शेर कहा और किसने तरही ग़ज़ल कही। मशहूर शायर-सिने गीतकार शकील बदायूंनी ने भी दूसरों के मिसरे उठाने में हर्ज़ नहीं समझा। उनका एक मशहूर फ़िल्मी गीत है-


ख़ुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं

जहां बजती है शहनाई वहाँ मातम भी होते हैं...(बाबुल)

अब शायर दाग़ देहलवी का ये शेर देखिए-


ख़ुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं

जहां बजते हैं नागाड़े वहाँ मातम भी होते हैं

"ऐ मेरे वतन के लोगो" फेम गीतकार पं. प्रदीप से एक बार मैंने पूछा था कि अगर दो रचनाकारों के ख़याल आपस में टकराते हैं तो क्या ये ग़ल़त बात है ? उन्होंने जवाब दिया कि कभी-कभी एक रचनाकार की रचना में शामिल सोच दूसरे रचनाकार को इतनी ज़्यादा अच्छी लगती है कि वह सोच के इस सिलसिले को आगे बढ़ाना चाहता है। यानी वह अपने पहले के रचनाकार की बेहतर सोच का सम्मान करना चाहता है। चरक दर्शन का सूत्र है- चरैवेति चरैवेति, यानी चलो रे…चलो रे…। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने इस ख़याल को आगे बढ़ाया- 'इकला चलो रे।' लोगों को और मुझे भी अकेले चलने का ख़याल बहुत पसंद आया। मैंने इस ख़याल का सम्मान करते हुए एक गीत लिखा और मेरा गीत भी बहुत पसंद किया गया-


चल अकेला… चल अकेला… चल अकेला,

तेरा मेला पीछे छूटा साथी चल अकेला…

एक कहावत है- 'साहित्य से ही साहित्य उपजता है।' मित्रो ! 'भावों की भिड़न्त' का आरोप तो महाकवि निराला पर भी लग चुका है। मेरे ख़याल से अगर कोई शायर किसी दूसरे शायर का मिसरा उठाता है तो उसे उसका ज़िक्र कर देना चाहिए। मिर्ज़ा गालिब के बाद ऐसा लगता था कि ग़ज़ल में अब कुछ नया लिखने को बाक़ी नहीं रह गया है। लेकिन उनके बाद भी कही गई ज़मीन पर, कही गई बहर में और भी बहुत कुछ नया कहा गया। सब ने अपने-अपने अंदाज़ में अपनी बात कहने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती करने का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। लोग अपनी मर्ज़ी से अपनी मनचाही ज़मीन पर मनमाफ़िक फ़सल उगाते रहेंगे।

साभार

- Devmani Pandey

गुरुवार, 20 मार्च 2025

ग़ज़ल 435 [09- G)) लोग क्या क्या नहीं कहा करते

 ग़ज़ल 435 [09-G]

2122---1212---22


लोग क्या क्या नहीं कहा करते ,

हम भी सुन कर केअनसुना करते ।


उनके दिल को सुकून मिलता है

जख़्म वो जब मेरे हरा करते ।


ताज झुकता है, तख़्त झुकता है

इश्क़ वाले कहाँ झुका करते ।


 कर्ज है ज़िंदगी का जो  हम पर

उम्र भर हम उसे अदा करते।


सानिहा दफ्न हो चुका कब का

कब्र क्यों खोद कर नया करते ?


जिनकी गैरत , जमीर मर जाता

चंद टुकड़ो पे वो  पला करते ।


ग़ैर से क्या करें गिला ’आनन’

अब तो अपने भी हैं दग़ा करते


-आनन्द.पाठक-


सोमवार, 17 मार्च 2025

ग़ज़ल 434 [08-G] : कहाँ आसान होता है--

 ग़ज़ल 434 [ 08-G]

1222---1222---1222---1222


कहाँ आसान होता है  किसी को यूँ भुला पाना

वो गुज़रे पल, हसीं मंज़र, वो कस्मे याद आ जाना


पहुँच जाता तुम्हारे दर, झुका देता मैं अपना सर

अगर मिलता न मुझको रास्ते में कोई मयख़ाना


नहीं मालूम क्या तुमको मेरे इस्याँ गुनह क्या हैं

अमलनामा में सब कुछ है मुझे क्या और फ़रमाना


शजर बूढ़ा खड़ा हरदम यही बस सोचता रहता

परिंदे तो गए उड़ कर मगर मुझको कहाँ जाना ।


अजनबी सा लगे परदेश, गर मन भी न लगता हो

वही डाली, वही है घर, वही आँगन, चले आना ।


कमी कुछ तो रही होगी हमारी बुतपरस्ती में

तुम्हारी बेनियाजी को कहाँ मैने बुरा माना ।


मुहब्बत पाक होती है तिजारत तो नहीं होती

हमारी बात पर ’आनन’ कभी तुम ग़ौर फ़रमाना 


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 433 [07-G] : रवायत बोझ हो जाए--

 ग़ज़ल 433 [ 07-G]

1222---1222---1222----122


रवायत बोझ हो जाए उसे कब तक उठाना

अरे क्या सोचना इतना-’कहेगा क्या ज़माना !’


इशारों में कही बातें इशारों में ही अच्छी

ज़ुबां से क्या बयां करना किसी को क्या बताना


किसी के पैर से कब तक चलोगे तुम कहाँ तक

छुपी ताक़त है अपनी क्यों न उसको आजमाना


हमेशा इश्क. को तुम कोसते, नाक़िस बताते

तुम्हारी सोच क्यों होती नहीं है आरिफ़ाना ।


शराफ़त से अगर बोलो तो कोई सुनता कहाँ है

शराफ़त छोड़ कर बोलो सुने सारा ज़माना ।


तकज़ा है यही इन्सानियत का, शख़्सियत का

ज़ुबां दी है किसी को तो लब-ए-दम तक निभाना।


मुहब्बत भी इबादत से नहीं कमतर है ’आनन’

अगर उसमे न धोखा हो, न हो सजदा बहाना ।


-आनन्द पाठक-


रविवार, 16 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 177/64

अनुभूतिया 177/64

705
मेरी कुटिया पर ही केवल
सदा नजर रखती बिजली है
तडक भडक बस करती रहती
कभी नहीं गिरती पगली है ।

706
कल तक थे जो शिखर बिन्दु पर
गिरे पड़े है , खेला यह भी
सिंहासन पर धूल जमी है
एक तमाशा, मेला यह भी

707
महफ़िल सजी रहा करती थी
बजती थी नौबत-शहनाई
रंग महल वीरान हुए अब
ईंट ईंट दे रही गवाही ।

708
लोग तुम्हे तब तक पूछेंगे
जब तक उनको तुमसे मतलब
बाद तुम्हे वो छोड़ चलेंगे
ना जाने किस मोड़ कहाँ कब

-आनन्द.पाठक-

गुरुवार, 6 मार्च 2025

रिपोर्ताज़ 09 : मौसम बदलेगा [ ग़ज़ल संग्रह] -पर - नीरज गोस्वामी द्वारा लिखा आलेख

रिपोर्ताज़  09: मौसम बदलेगा [  ग़ज़ल संग्रह] -पर - नीरज गोस्वामी द्वारा लिखा आलेख


मित्रो ! 

नीरज गोस्वामी साहित्यिक मंचों के  ख़ास तौर पर ग़ज़लो के मंचों के और समीक्षक के रूप में एक  सशक्त हस्ताक्षर -हैं

किसी परिचय के मुहताज नहीं । आप ने मेरे  ग़ज़ल संग्रह -- मौसम बदलेगा --पर अपनी बेबाक़ राय रखी है। आप भी पढ़ें

यह आलेख उनके ब्लाग पर भी पढ़ सकते है  पोस्ट 17-जुलाई-2024 । लिंक नीचे दिया हुआ है।---आनन्द.पाठक-

https://www.facebook.com/neeraj.goswamy.16



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किताब मिली - शुक्रिया - 10 --नीरज गोस्वामी द्वारा लिखा गया आलेख

तुम्हीं ने बनाया तुम्हीं ने मिटाया
मैं जो कुछ भी हूं बस इसी दरमियां हूं
*
उंगली तो उठाना है आसां
पर कौन यहां कब कामिल है
कामिल: पूर्ण, पूरा
*
गुमराह हो गया तू भटक कर इधर-उधर
इक राह ए इश्क़ भी है कभी इख़्तियार कर
*
ऐ शेख! सब्र कर तू नसीहत न कर अभी
आता हूं मैकदे से जरा इंतज़ार कर
*
जब से तुम हमराह हुए हो
साथ हमारे खुद ही मंज़िल
सबसे पहले रुबरु होते हैं हमारे आज के शाइर जनाब *आनन्द पाठक'आनन* साहब के इन विचारों से जिन्हें उन्होंने अपनी ग़ज़लों की किताब *मौसम बदलेगा* के फ्लैप पर प्रकाशित किया है :-
प्रकृति का यही नियम है और यही जीवन दर्शन भी कि मौसम एक सा नहीं रहता। वक्त भी एक सा नहीं रहता।
पतझड़ है तो बहार भी, उम्र भर किसी का इंतज़ार भी, मिलन के लिए बेकरार भी। जीवन में सुख-दुख आशा-निराशा विरह-मिलन का होना, नई आशाओं के साथ सुबह का होना, शाम का ढलना, एक सामान्य क्रम और एक शाश्वत प्रक्रिया है, फिर विचार करना कि जीवन में क्या खोया क्या पाया। दिन भर की भाग दौड़ का क्या हासिल रहा और यही सब हिसाब किताब करते-करते एक दिन आदमी सो जाता है। यही जीवन का क्रम है यही शाश्वत नियम है। बहुत सी बातों पर हमारा आपका अधिकार नहीं होता। सब नियति का खेल है। कोई एक अदृश्य शक्ति है जो हम सबको संचालित करती है।
सुख का मौसम दुख का मौसम, आंधी पानी का हो मौसम
मौसम का आना-जाना है, मौसम है मौसम बदलेगा
दांव पर दांव चलती रही ज़िंदगी
शर्त हारे कभी हम, कभी ज़िंदगी
*
मिलेगी जब कभी फुर्सत तुम्हें रोटी भी दे देंगे
अभी मसरूफ़ हूं तुमको नए सपने दिखाने में
*
'आनन' तू खुशनसीब है दस्तार सर पे है
वरना तो लोग बेच कमाई में आ गए
*
पूछ लेना जमीर ओ ग़ैरत से
पांव पर जब किसी के सर रखना
*
आप जो मिल गए मुझको
आप से और क्या मॉंगू
उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में 31 जुलाई 1955 को जन्मे आनंद पाठक ने सिविल इंजीनियरिंग क्षेत्र में देश के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक आई.आई.टी. रुड़की से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
सन 1978 में ऑल इंडिया इंजीनियरिंग सर्विस में चयनित होने के बाद बिहार, बंगाल, असम, झारखंड, गुजरात एवं राजस्थान राज्यों में योगदान दिया और अंततः जयपुर से मुख्य अभियंता (सिविल) भारत संचार निगम लिमिटेड के पद से रिटायर हुए।
सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में दक्षता के साथ-साथ उनकी अभिरुचि कविता, गीत, ग़ज़ल, माहिया, व्यंग, अरूज तथा अन्य विविध लेखन में भी रही। एक ही व्यक्ति में इतने गुण होना साधारण बात नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वो विलक्षण प्रतिभा वान हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है कि इतनी उपलब्धियां प्राप्त करने के बाद भी वो बेहद सरल सहज सच्चे इंसान हैं। उनसे बात करके आपको लगेगा जैसे आप अपने किसी परिवार जन से ही बात कर रहे हैं। उनका ये गुण उन्हें सबसे अलग करता है।
इश्क़ भी क्या अजब शै है
रोज़ लगता नया क्यों है
*
ज़ाहिरी तौर पर हों भले हमसुखन
आदमी आदमी से डरा उम्र भर
हमसुखन: आपस में बात करने वाला
*
जादूगरी थी उसकी दलाइल भी बाकमाल
उसके फ़रेब को भी ज़हानत समझ लिया
दलाइल: दलीलें, ज़हानत: प्रतिभा
*
जब सामने खड़ा था भूखा गरीब कोई
फिर ढूंढता है किसको दैर ओ हरम में जाकर
*
जहां सर झुक गया आनन वहीं काबा वहीं काशी
वो चलकर खुद ही आएंगे, बड़ी ताकत मुहब्बत में
*आनन्द पाठक* जी का गीत- ग़ज़ल संग्रह, *मौसम बदलेगा* जिसमें उनकी 99 ग़ज़लें और 9 गीत हैं सन 2022 में 'अयन प्रकाशन' नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। इससे पूर्व आनंद पाठक जी की 9 किताबें मंजर ए आम पर आ चुकी हैं जिन में चार 'व्यंग्य संग्रह' तीन 'गीत-ग़ज़ल संग्रह एक गीति काव्य संग्रह और एक माहिया संग्रह है। इससे पता चलता है कि उनके लेखन का कैनवास कितना विशाल है!
यूं तो मैं उनकी प्रतिभा का कायल उनके ब्लॉग लेखन के दौर से ही रहा हूं ।सन 2018 के विश्व पुस्तक मेले में उनसे पहली मुलाकात हुई जब उन्होंने रोष जताते हुए कहा था कि क्या भाईसाहब जयपुर रहते हुए भी नहीं मिलते हो।जयपुर में उनसे जब जब बात हुई तो ठहाकों से शुरू हो कर ठहाकों पर ही रुकी। उनके बार बार "घर पर आइए" के निमंत्रण को मूर्त रूप देने से पहले ही वो रिटायरमेंट के बाद जयपुर छोड़ कर गुरुग्राम बस गये। देखिए अब कब उनसे मुलाक़ात होती है। खैर!! हमारा उनसे दुबारा मिलना तो जरूर होगा , लेकिन हां आप चाहें तो उनसे उनके मोबाइल नं 8800927181 पर फोन कर उन्हें बधाई दे सकते हैं।
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सभी रिएक्शन:
Archana Verma Singh, Abha Saxena Doonwi और 46 अन्य लोग
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मंगलवार, 4 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 176/63

 अनुभूतियाँ 176/63


701

जब जब छोड. गई तुम मुझको,

नदी प्यार की फिर भी रहती ।

ऊपर ऊपर भले दिखे ना,

भीतर भीतर बहती रहती ।


702

तुम क्या जानो, दिल तेरे बिन

क्या क्या नहीं सहा करता है

नियति मान कर चुप रहता है

कुछ भी नहीं कहा करता है ।


703

राह देखती रहती निशदिन

वही प्रतीक्षारत हैं आँखें

आओगे तुम इक दिन वापस

लटकी अँटकी रहती साँसें


704

मन की सूनी कुटिया मे जब

और नहीं कोई रहता है

तब तेरी यादें रहती हैं

मन जिनसे बातें करता है


-आनन्द पाठक-

सोमवार, 3 मार्च 2025

चन्द माहिए 106/16 [होली]

 चंद माहिए 106/16

1;

होली का है मौसम 

छा जाती मस्ती

जब साथ रहे हमदम ।


2:

कान्हा खेलें होली

भाग रही बच कर

राधा रानी भोली ।


3:

खुशियॊ से भरी झोली

मिल कर खेलेंगे

हम रंग भरी होली


;4:

कुछ रंग गुलाल लिए

राह तेरी देखूँ

फूलों का थाल लिए ।


5

जब होली आती है 

फूल बहक जाते

डाली मुस्काती हैं


-आनन्द.पाठक-





रविवार, 2 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 175/62 [ होली]

 अनुभूतियाँ 175/62


697

होली आई ,तुम भी आओ,

खेलेंगे हम मिल कर होली ।

सात रंग से रँगना, प्रियतम !

प्रीति प्रणय हो या रंगोली ।


698

मार न कान्हा यूँ पिचकारी,

एक रंग मे रँगी चुनरिया ।

चाहे जितना रंग लगा  दे,

चढ़े न दूजो रंग, सँवरिया !


699

होली का यह पर्व खुशी का

प्रेम रंग से तुम रँग देना ।

लाल गुलाल लगा कर सबको,

अपनी बाँहों में भर लेना ।


700

अवधपुरी में सीता खेलें

वृंदावन में राधा रानी । 

रंग लगा कर गले लगाना

होली की यह रीति पुरानी ।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 431 [05- G] : दौलत की भूख ने तुम्हे


ग़ज़ल 431[05-G]

2212---1212--2212---12


दौलत की भूख ने तुम्हे अंधा बना दिया

इस दौड़ में सुकून भी तुमने लुटा दिया


दो-चार बस फ़ुज़ूल इनामात क्या मिले

दस्तार को भी शौक़ से तुमने  गिरा दिया


इल्म.ओ.अदब की रोशनी चुभने लगी उसे

जलता हुआ चिराग़ भी उस ने बुझा दिया


लहजे में अब है तल्ख़ियाँ, लज़्ज़त नहीं रही

आदाब.ओ.तर्बियत मियाँ! तुमने भुला दिया


सत्ता ने चन्द आप को अलक़ाब क्या दिए

अपनी क़लम को आप ने गूँगा बना दिया


कुछ लोग थे कि राह में काँटे बिछा गए

कुछ लोग हैं कि राह से पत्थर हटा दिया


’आनन’ अजीब हाल है लोगों को क्या कहें

था शे’र और का, मगर अपना बता दिया।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को श्री विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] जी ने मेरी एक ग़ज़ल को बड़े ही दिलकश अंदाज़ में अपना स्वर दिया है आप भी सुनें। लिंक पर क्लिक करें और आनन्द उठाएँ


https://www.facebook.com/watch/?v=503360932825231&rdid=yXGK9YMOhcYihyGL


ग़ज़ल 432 [ 06-G ] सच तो कुछ और था-

 ग़ज़ल 432 [06-G)सच तो कुछ और था

2212---1212---2212---12

सच तो कुछ और था मगर तुमने घुमा दिया

चेहरे के रंग ने मुझे  सब कुछ बता दिया ।


देता भी क्या जवाब मैं तुझको, ऎ ज़िंदगी !

तेरे सवाल ने मुझे अब तो थका दिया ।


वैसे तुम्हारे शौक़ में शामिल तो ये न था

देखा कहीं जो बुतकदा तो सर झुका दिया


इतना भी तो सरल न था दर्या का रास्ता

पत्थर को काट काट के रस्ता बना दिया


क्या क्या न हादिसे हुए थे राह-ए-इश्क़ में

करता भी याद कर के क्या सबको भुला दिया


सुनने को दास्तान था तेरी जुबान से

तूने कहाँ से ग़ैर का किस्सा सुना दिया


कुछ शर्त ज़िंदगी की थी हर बार सामने

हर बार शर्त रो के या गा कर निभा दिया ।


क्यों पूछती हैं बिजलियाँ घर का मेरे, पता

’आनन’ का यह मकान है, किसने बता दिया?


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

बुतकदा =मंदिर


शनिवार, 1 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 174/61

 अनुभूतियाँ 174/61


693

शायद मैने ही देरी की

अपनी बात बताने में कुछ

बरसोंं लग जाएंगे शायद

दिल की चाह जताने में कुछ।


694

जब जब दूर गई तू मुझसे

कितने गीत रचे यादों में

ढूँढा करता हूँ सच्चाई

तेरे उन झूठे वादों में ।  


695

दोष किसी को क्या देता मैं

सब अपने कर्मों का फल है

सबको मिलता है उतना ही

 जिसका जितना भाग्य प्रबल है।


696

प्रेम चुनरिया मैने रँग दी,

बाक़ी जो है तुम भर देना।

आजीवन बस रँगी रहूँ मैं,

प्रीति अमर मेरी कर देना ।


-आनन्द पाठक-






शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

अनुभूतियाँ 173/60

689
साथ अगर ना तुम होते तो
कैसे कठिन सफर यह कटता
प्राण वायु ही जब ना हो तो
इस तन का फिर क्या मैं करता

690
नदिया की यह चंचल लहरें
साहिल से क्या क्या बतियाती
चाहे हों पथरीली राहें -
गीत मिलन के गाती जाती

691
मै कैसे यह खुद बतलाता
पूछा तुमने, बात बता दी
बदन तुम्हारा संग़़-ए-मरमर
ओठ गुलाबी, नैन शराबी

692
मन के अंदर द्वंद बहुत है
ग्रंथ कहे कुछ मन कुछ कहता
तेरे घर की राह अनेको
ज्ञानी भी उलझन मे रहता 

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 172/59

 अनुभूतियाँ 172/59

685

बंजारों-सा यह जीवन है

साथ चला करती है माया

साथ साँस जैसे  चलती है

जहाँ जहाँ चलती है काया


686

समय कहाँ रुकता है, प्यारे !

धीरे धीरे चलता रहता ।

अपने कर्मों का जो फ़ल हो

इसी जनम में मिलता रहता ।


687

प्यास मिलन की क्या होती है

भला पूछना क्या आक़िल से 

वक़्त मिले तो कभी पूछना 

किसी तड़पते प्यासे दिल से । 


688

मन का जब दरपन ही धुँधला

खुद को कैसे पहचानोगे ?

राह ग़लत क्या, राह सही क्या

आजीवन कैसे जानोगे ?


-आनन्द.पाठ्क-

[ आक़िल = अक्ल वाला ]


गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

अनुभूतियाँ 171/58

 अनुभूतियां~ 171/58

681

जीवन चलता रहता अविरल

कहीं कठिन पथ, कहीं सरल है

जीवन इक अनबूझ पहेली

कभी शान्त मन ,कभी विकल है ।

682

सोन चिरैया रोज़ सुनाती

अपनी बीती नई कहानी

कभी सुनाती खुल कर हँस कर

कभी आँख में भर कर पानी ।


683

जब से तुम वापस लौटी हो

लौटी साथ बहारें भी हैं ।

चाँद गगन में अब हँसता है

साथ हँस रहे तारे भी हैं ।


684

अगर समझ में कमी रही तो

कब तक रिश्ते बने रहेंगे

स्वार्थ अगर मिल जाए इसमे

कब तक रिश्ते बचे रहेंगे ।


-आनन्द.पाठक-

रविवार, 23 फ़रवरी 2025

विविध 09 : अजय अज्ञात जी से एक मुलाक़ात 23-02-25

विविध 09 : अजय अज्ञात जी से एक मुलाक़ात 23-02-25

मित्रो ! \

अजय कुमार शर्मा "अज्ञात ’सोशल मीडिया, साहित्यिक मंचों का एक जाना पहचाना नाम है । आप एक साहित्यिक संस्था ; परवाज-ए-ग़ज़ल’ के संस्थापक है ।एक साहित्य- प्रेमी, एक ग़ज़लकार है और कई साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित भी हो चुके हैं। आप लगभग एक दर्जन साझा-संकलन का सम्पादन कर चुके हैंऔर आप के स्वयं के  कई गज़ल संग्रह/ काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

आप द्वारा संपादित नवीनतम साझा ग़ज़ल संग्रह -"हरियाणा के शायरों की प्रतिनिधि ग़ज़लें-मंज़र-ए-आम हो चुकी है जिसमें हरियाणा के गण्यमान/उदीयमान गज़लकारों के गज़लें संग्रहित है । यह उनका प्रेम ही कहिए कि इस संग्रह में इस हक़ीर की भी एक ग़ज़ल संकलित है।

  आज दिनांक 23-02-2025 को अजय ’अज्ञात ’ जी स्वयं चल कर मेरे निवास स्थान ’ गुड़गाँव’ पर पधारे और "हरियाणा के शायरों की प्रतिनिधि ग़ज़लें" एक प्रति  अपने हाथों से मुझे भेंट की।  साथ ही अपनी दो और किताबे--हमराह [ ग़ज़ल संग्रह] और गुहर-ए-नायाब [ सह-स्म्पादित]भी भेट की।

निश्चय ही यह मेरे लिए गौरव और सम्मान का क्षण था। एक विशेष गौरवानुभूति हुई।

  इन संग्रहो को फ़ुरसत में विस्तार से पढ़ूँगा और अपनी  राय  भी दूंगा। प्रथम दॄष्टया यह तो स्पष्ट है कि यह कार्य इतना आसान नहीं होता जितना देखने में लगता हैइससे आप की लगन ,गहराई, निस्वार्थ परिश्रम, अभिरुचि का परिचय मिलता है। आप ऐसे ही साहित्य जगत की निस्वार्थ सेवा करते रहें, मेरी शुभकामना है।

आप की संस्था-परवाज़-ए-ग़ज़ल [जो ग़ज़ल विधा की पूर्णतया समर्पित संस्था है ] उत्तरोत्तर प्रगति पर अग्रसरित रहे और परवाज की बुलंदिया हासिल करती रहे यही मेरी कामना है।

  इस संक्षिप्त मुलाकात में ग़ज़ल लेखन के दशा-दिशा की चर्चा के साथ साथ अन्य विषयों पर भी चर्चा हुई ख़ास तौर पर अरूज़ पर।

इन मुलाक़ात के क्षणॊं के कुछ चित्र लगा रहा हूँ

-आनन्द.पाठक-







शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

ग़ज़ल 430 [04G ] : यह झूठ की दुनिया ,मियां !

 ग़ज़ल 430 [04-G)


2212---2212

यह झूठ् की दुनिया ,मियाँ !

सच है यहाँ बे आशियाँ ।


क्यों दो दिलों के बीच की

घटती नहीं है दूरियाँ ।


बस ख़्वाब ही मिलते इधर

मिलती नहीं हैं रोटियाँ ।


इस ज़िंदगी के सामने

क्या क्या नहीं दुशवारियाँ ।


हर रोज़ अब उठने लगीं

दीवार दिल के दरमियाँ ।


तुम चंद सिक्कों के लिए

क्यों बेचते आज़ादियाँ ।


किसको पड़ी देखें कभी

’आनन’ तुम्हारी खूबियाँ ।


-आनन्द.पाठक-

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

अनुभूतियाँ 170/57

अनुभूतियाँ 170/57

677
तुम क्या जानो विरह वेदना
जिसने देखी नहीं जुदाई
होठो पर हो हास भले ही
आँख विरह मे तो भर आई

678
बहुत दिनों के बाद मिली हो
लौट के आया है यह शुभ दिन
भला बुरा जो भी हो कहना
कह लेना फिर और किसी दिन

679
छोड़ो जाने दो, रहने दो
वही दिखावा, वही बहाना
अपने ही दिल की बस सुनना
मेरे दिल को कब पहचाना 

680
तुम गमलों में पली हुई हो
तुम्हे सदा मिलती है छाया
नंगे पाँव चला हूँ अबतक
मैं तपते सहरा से आया ।

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 169/56

 अनुभूतियाँ 169/56


673

ऐसे भी कुछ लोग मिलेंगे

ख़ुद को ख़ुदा समझते रहते

आँखों पर हैं पट्टी बाँधे

अँधियारों में चलते रहते ।


674

दिल जो कहता, कह लेने दो

कहने से मत रोको साथी !

दीपक अभी जला रहने दो

रात अभी ढलने को बाक़ी


675

माना राह बहुत लम्बी है

हमको तो बस चलना साथी

जो रस्मे हों राह रोकती

मिल कर उन्हे बदलना साथी


676

नीड बनाना कितना मुश्किल

उससे मुश्किल उसे बचाना

साध रही है दुनिया कब से

ना जाने कब लगे निशाना ।

-आनन्द पाठक-

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

अनुभूतियाँ 168/55

 अनुभूतियाँ 168/55

669

मुक्त हंसी  जब हँसती हो तुम

हँस उठता है उपवन मधुवन

कोयल भी गाने लगती है 

और हवाएँ छेड़े सरगम ।


670

मछली जाल बचा कर निकले

लेकिन कब तक बच पाती है

प्यास अगर दिल में जग जाए

स्वयं जाल में  फँस जाती है ।


671

अवसरवादी लोग जहाँ हों

ढूँढा करते रहते अवसर

स्वार्थ प्रबल उनके हो जाते

धोखा देते रह्ते  अकसर


672

कितनी बार लड़े, झगड़े हम

रूठे और मनाए भी हैं ।

विरह वेदना में रोए तो

गीत खुशी के गाए भी हैं।


-आनन्द.पाठक-


रविवार, 16 फ़रवरी 2025

गीत 90: बादलों के पंख पर

 गीत 90 : बादलों के पंख पर ---

2122---2122---2122---2122


बादलों के पंख पर मैं जब प्रणय के गीत लिखता

काल की निष्ठुर हवाएँ, क्यों मिटा देती हैं हँस कर


अब तो यादें शेष हैं बस, उन सुखद बीते दिनों की

जब कभी हम-तुम मिला करते थे मधुमय चाँदनी में

पूछती हैं अब लताएँ जो कभी साक्षी बनी थी 

" क्या हुई थी बात तुमसे उन दिनों की यामिनी में ?"


आशियाने पर ही मेरे क्यॊ गिरा करती है बिजली

हादिसे क्यों साथ मेरे ही हुआ करते हैं अकसर ।


क्यों नहीं भाता जगत को प्रेम की भाषा मनोहर

क्यों हमेशा देखता है प्रेम को दूषित नयन से ।

डाल पर बैठे हुए जब दो विहग दुख बाँटते हैं

सोचने लगती है दुनिया क्या न क्या अपने ही मन से


आँधियों से जूझ कर जब आ गई कश्ती किनारे

लोग साहिल पर खड़े क्यों हाथ में ले ईंट-पत्थर ।


छोड़ कर जब से गई तुम कुछ कहे बिन, कुछ सुने बिन

फिर न उसके बाद कोई स्वप्न जागा, चाह जागी

शून्य में जब ढूँढता हूँ मैं कभी चेहरा तुम्हारा

दूर तक जाती नज़र है, लौट कर आती अभागी ।


रात की तनहाइयों में जब कभी तुमको पुकारा

साथ देने आ गए तब चाँद-तारे भी उतर कर ।

बादलों के पंख पर जब----


-आनन्द.पाठक-