मुक्तक 22
;1;
मजदूरों की बस्ती साहिब
जान यहाँ है सस्ती साहिब
जब चाहे आकर उजाड़ दें
’बुधना’ की गृहस्थी साहिब
मुक्तक 22
;1;
मजदूरों की बस्ती साहिब
जान यहाँ है सस्ती साहिब
जब चाहे आकर उजाड़ दें
’बुधना’ की गृहस्थी साहिब
एक सूचना-पुस्तक -प्रकाशन के संदर्भ में
अभी संभावना है
मित्रो
!
आप लोगों को यह सूचित
करते हुए हर्षानुभूति हो रही है कि आप लोगों के आशीर्वाद से और शुभकामनाओं से मेरा
अगली किताब –अभी संभावना है [ ग़ज़ल संग्रह]— प्रकाशित हो कर आ गई है । इसे मै 13TH
पुस्तक तो नहीं कह सकता। वस्तुत: यह मेरे प्रथम ग़ज़ल संग्रह - अभी संभावना है-का
ही संशोधित रूप है। मैं इसे द्वितीय संस्करण का नाम नही दे रहा हूँ अपितु यह पहली
आवॄति की ही पुनरावृति या अधिक से अधिक इसे परिष्कॄत, परिवर्तित, परिशोधित या
परिवर्धित रूप कह सकता हूँ। आप के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मै ऎसा
क्यों कह रहा हूँ या फिर इस आवृति की आवश्यकता क्या थी ? इस प्रश्न का उत्तर मैने
इस संग्रह की भूमिका में विस्तार से लिख दिया है।
इस संग्रह का आशीर्वचन आ0 द्विजेन्द्र ’द्विज’
जी ने लिखा है। द्विज जी स्वयं एक समर्थ ग़ज़लकार है और ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर भी।
। वह एकान्त साहित्य साधक हैं, आत्म मुग्धता से बहुत दूर रहते हैं। वह ग़ज़ल कहते
नहीं अपितु जीते हैं।
यह संशोधित संस्करण आप लोगों के हाथों सौंप रहा हूँ । आप की टिप्पणियों का,
सुझावों का, प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।
दस्तकें देते रहो
तुम हर मकां, हर दर पे ‘आनन’
आदमी में आदमीयत जग उठे संभावना है।’
सादर
-आनन्द.पाठक
‘आनन’ –
--- ------------
पुस्तक
मिलने का पता –
श्री
संजय कुमार
अयन
प्रकाशन
जे-19/39
, राजापुरी, उत्तम नगर
नई
दिल्ली -110 059
Email : ayanprakashan@gmail.com
Web site: www.ayanprakashan,com
Whatsapp 92113
12371
चन्द माहिए : क़िस्त 111/21
:1:
उस पार मेरा माही
टेरेगा जिस दिन
उस दिन तो जाना ही ।
:2:
जब दिल ही नहीं माना
क्या होगा लिख कर
कोई राजीनामा ।
एक सूचना --नए ’यू-ट्यूब ’ चैनेल के बारे में
मित्रो!
अपनी व्यंग्य रचनाओं के लिए मैने अपना एक #youtube_channel# बनाया है - #मुखौटों_की_दुनिया# -
जहाँ आप मेरी व्यंग्य रचनाओं का वाचन सुन सकते हैं और आनन्द उठा सकते हैं।अगर पसंद आए तो subscribe भी कर सकते हैं
www.youtube.com/@333akp
आप ने अगर #subscribe अबतक नहीं किए हों तो कृपया कर दें
सादर
- आनन्द पाठक-
यहाँ क्लिक करें
चंद माहिए : क़िस्त 109/19
:1:
बदरा बरसै रिमझिम
आग लगाता है
तन में मद्धिम मद्धिम ।
:2:
जल प्लावन कर जाता
बादल जब फटता
मन अपना डर जाता ।
:3:
उड़ता तेरा आँचल
नील गगन में ज्यों
उड़ता रहता बादल ।
:4:
कुछ भी ना कहती हो
अन्दर ही अन्दर
बस घुटती रहती हो ।
:5:
क्या तुम को सुनानी है
जैसे सबकी है
अपनी भी कहानी है ।
-आनन्द.पाठक-
[ स्व0] कवि धूमिल जी की प्रेरणा से और क्षमा याचना सहित ]
कविता 031: एक आदमी सड़क पर---
-आनन्द.पाठक-
चन्द माहिए : 107 /17
:1:
ग़ज़ल 442[16-जी] : आदमी में शौक़-ए-उलफ़त
2122---2122---2122---212
साँस ले ले कर ही जीना ज़िंदगी काफी नहीं
ज़िंदगी के रंग में कुछ और रंगत चाहिए ।
अह्ल-ए-दुनिया आप की बातें सुनेगे एक दिन
आप की आवाज़ में कुछ और ताक़त चाहिए ।
जब कि चेहरे पर तुम्हारे गर्द भी है दाग़ भी
सामने जब आईना , फिर क्या वज़ाहत चाहिए ।
कश्ती-ए-हस्ती हमारी और तूफ़ाँ सामने
ख़ौफ़ क्या, बस आप की नज़र-ए-इनायत चाहिए।
जानता हूँ ज़िंदगी की राह मुशकिल, पुरख़तर
आप की बस मेहरबानी ता कयामत चाहिए ।
ढूँढता हर एक दिल ’आनन’ सहारा , हमनशीं
मौज-ए-दर्या को भी साहिल की कराबत चाहिए ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 441[15-G] :
221---2121---1221---212
उनको अना, गुरूर का ऐसा चढ़ा नशा
ख़ुद को वो मानने लगे हैं आजकल ख़ुदा ।
हर दौर के उरूज़ का हासिल यही रहा
परचम बुलंद था जो कभी खाक में मिला ।
रुकता नहीं है वक़्त किसी शख़्स के लिए
तुम कौन तीसमार हो औरों से जो जुदा ।
जिसकी क़लम बिकी हो, ज़ुबाँ भी बिकी हुई
सत्ता के सामने वो भला कब हुआ खड़ा ।
जो सामने सवाल है उसका न ज़िक्र है
बातें इधर उधर की वो कब से सुना रहा ।
क़ायम है ऎतिमाद तो क़ायम है राह-ओ-रब्त
वरना तो आदमी न किसी काम का हुआ ।
’आनन’ ज़रा तू सोच में रद्द-ओ-बदल तो कर
फिर देख ज़िंदगी कभी होती नहीं सज़ा ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
उरूज़ = उत्त्थान, विकास
ऎतिमाद = विश्वास , भरोसा
राह-ओ-रब्त = मेल जोल, मेल मिलाप, दोस्ती
ग़ज़ल 440 [ 14 जी] : एक मुद्दत से वह दुनिया से--
2122---2122---2122
एक मुद्दत से वो दुनिया से ख़फ़ा है ।
मन मुताबिक जब न उसको कुछ मिला है
जख़्म दिल के कर रहे है हक़ बयानी
आदमी हालात से कितना लड़ा है ।
हारने या जीतने से है ज़ियादा
आप का ख़ुद हौसला कितना बड़ा है।
बाज कब आती हवाएँ साज़िशों से
पर चिराग़-ए-इश्क़ कब इन से डरा है।
आदमी की साज़िशो से साफ़ ज़ाहिर
आदमी अख़्लाक़ से कितना गिरा है ।
जोश हो, हिम्मत इरादा हो अगर तो
कौन सा है काम मुश्किल जो रुका है।
ज़िंदगी है इक गुहर नायाब ’आनन’
एक तुहफ़ा है , ख़ुदा ने की अता है ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 439 [13-G]
1222---1222---1222---1222
जो राहें ख़ुद बनाते हैं , उन्हें क्या खौफ़, आफ़त क्या
मुजस्सम ख़ुद विरासत हैं, उधारी की विरासत क्या ।
पले हों ’रेवड़ी’ पर जो, सदा ख़ैरात पर जीते
उन्हें तुम क्यों जगाते हों, करेंगे वो बग़ावत क्या ।
नज़र रहते हुए भी जो, बने कस्दन हैं नाबीना
उन्हें करना नहीं कुछ भी तो फिर शिकवा शिकायत क्या ।
रखूँ उम्मीद क्या उनसे, करेगा वह भला किसका
हवा का रुख़ न पहचाने करेगा वह सियासत क्या ।
मिले वह सामने खुल कर मिलाए हाथ भी हँस कर
नहीं साजिश रचेगा वो, कोई देगा जमानत क्या ।
अगर ना तरबियत सालिम, नहीं अख़्लाक़ ही साबित
बिना बुनियाद के होती कहीं पुख़्ता इमारत क्या ।
करूँ मैं बात क्या ’आनन’, नहीं तहजीब हो जिसमे
पता कुछ भी न हो जिसको, अदब क्या है शराफ़त क्या ।
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियाँ 183/70
:1:
जीवन है तो सुख दुख भी है
राग-रंग भी, मिलन-जुदाई
प्रथम साँस से अन्त साँस तक
जीवन की पटकथा समाई ।
-एक सूचना-
मित्रो !
आप लोगों के आशीर्वाद और स्नेह से , मैने अपने यू-ट्यूब चैनेल बनाए हैं। अब तक आप लोगों ने इस मंच पर मेरी काफी रचनाएँ-जैसे गीत ग़ज़लमाहिए-दोहे-कविताएं और व्यंग्य -पढ़ीं और उत्साहवर्धन किया । अब इन्ही रचनाओं का स्वर पाठ, वाचन मेरे चैनेल पर सुनें और आशीर्वाद दें
चूँकि यह मेरे ’एकल और प्रथम प्रयास है-प्रोफ़ेसनलिज्म न मिले । इस प्रयास में बहुत सी कमियाँ भी होंगी ,आशा करता हूँ कि इसमे उत्त्तरोत्तर सुधार होता जाएगा । आप इसे सब्सक्राइब, लाइक और शेयर करें ।
इसमें मेरी काव्यात्मक रचनाऒं [गीत-ग़ज़ल-माहिए-कविताओ आदि] का स्वर पाठ होगा। आप लय-स्वर-सुर पर ध्यान न दीजिएगा-बस भाव पर ध्यान दीजिएगा।
आप की शुभ कामनाओं का आकांक्षी--
सादर
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियाँ 181/68
721
बार बार क्या कहना है अब
समझाना तुमको मुश्किल है
अपनी ज़िद में दिल ये तुम्हारा
सच सुनने के नाक़ाबिल है ।
722
चाँद सितारे दर्या झरना
कहते सबमे झलक उसी की
जिस दिन दिल ने मान लिया तो
फिर न सुनेगा बात किसी की
723
कौन यहाँ है जो न दुखी है
किसके अपने नहीं मसाइल
आशा की जब एक किरन हो
दूर कहाँ फिर रहता साहिल
724
रोज रोज की किचकिच किचकिच
कर देते हैं रिश्ते बोझिल
खुशबू फैले कोने कोने
समझदार जब होते दो दिल
-आनन्द पाठक-
ग़ज़ल 438 [ 12-]
1222---1222---1222---122
हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है
हमारी ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।
गुजरने को गुज़र जाता समय चाहे भी जैसा हो
मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।
सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से
अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।
मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में
तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।
जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो
यहाँ पर कौन है ऐसा जो उम्र-ए-जाविदाँ है ।
सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी
मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।
जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’
तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।
-आनन्द पाठक-
कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है
ग़ज़ल 437 [11-G]
212---212---212---212
यार मेरा कहीं बेवफ़ा तो नहीं
ऐसा मुझको अभी तक लगा तो नहीं
कत्ल मेरा हुआ, जाने कैसे किया ,
हाथ में उसके ख़ंज़र दिखा तो नहीं
बेरुख़ी, बेनियाज़ी, तुम्हारी अदा
ये मुहब्बत है कोई सज़ा तो नहीं
तुम को क्या हो गया, क्यूँ खफा हो गई
मैने तुम से अभी कुछ कहा तो नहीं
रंग चेहरे का उड़ने लगा क्यों अभी
राज़ अबतक तुम्हारा खुला तो नहीं
लाख कोशिश तुम्हारी शुरू से रही
सच दबा ही रहे, पर दबा तो नहीं ।
वक़्त सुनता है ’आनन’ किसी की कहाँ
जैसा चाहा था तुमने, हुआ तो नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
इस ग़ज़ल को आ0 विनोद कुमार उपाध्याय जी [ लखनऊ] की आवाज़ में सुनें
यहाँ सुनें
ग़ज़ल् 436 [10-]
212---212---212---212--
उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी
क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।
तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते
राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?
दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा
कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की
लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ
क्या बिना आग का यह धुआँ है सही
क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे
रोटियाँ ना सिकीं, व्यर्थ है ’लीडरी’
जिसको होता किसी पर भरोसा नहीं
खुद के साए से डरता रहा है वही ।
हम सफर जब नहीं ,हम सुखन भी नहीं
फिर ये 'आनन' है किस काम की जिंदगी
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियाँ 179/66
713
सत्य कहाँ तक झुठलाओगे
छुपता नहीं, न दब पाएगा ।
ख़ुद को धोखा कब तक दोगे
झूठ कहाँ तक चल पाएगा ।
714
सुख दुख चलते साथ निरन्तर
जबतक जीवन एक सफ़र है
जितना उलझन मन के बाहर
अधिक कहीं मन के अंदर है।
715
वक़्त गुज़रने को गुज़रेगा
भला बुरा या चाहे जैसा
ज़ोर नहीं जो अगर तुम्हारा
ढलना होगा तुमको वैसा
716
क्या करना है तुमको सुन कर
कैसी गुज़र रही है मुझ पर
शायद तुमको खुशी न होगी
ज़िंदा रहता हूँ मर मर कर
-आनन्द.पाठक-
इसी अनुभूतियों कॊ आ0 विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] के स्वर में यहाँ सुनें और आनन्द उठाएँ
https://www.facebook.com/share/v/1CAa5Jw1Ra/
[नोट : यह आलेख फ़ेसबुक से देवमणि पाण्डेय जी के वाल से साभार लिया गया है ]--
आदाब साथियो
आदरणीय Sunil Tripathi जी की पोस्ट से प्रेरित एक साभार आलेख………
◆#ग़ज़ल_यानी_दूसरों_की_ज़मीन_पर_अपनी_खेती◆
*************************************
ग़ज़ल दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती है। बतौर शायर आप भले ही दावा करें कि आपने नई ज़मीन ईजाद की है मगर सच यही है कि आप दूसरों की ज़मीन पर ही शायरी की फ़सल उगाते हैं। कोई ऐसा क़ाफ़िया, रदीफ़ या बहर बाक़ी नहीं है जिसका इस्तेमाल शायरी में न हुआ हो। कोई-कोई ज़मीन तो ऐसी है जिसका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हो चुका है और लगातार होता रहेगा। मसलन शायद ही कोई ऐसा शायर हो जिसने मोमिन साहब की इस ज़मीन पर ग़ज़ल की फ़सल न उगाई हो-
■
तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता.
तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता.
◆
आज़ादी से पहले लखनऊ में एक शायर हुए अर्सी लखनवी। मुशायरों में उनका एक शेर काफ़ी मक़बूल हुआ था-
कफ़न दाबे बगल में घर से मैं निकला हूँ ऐ अर्सी,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.
◆
डॉ.बशीर बद्र ने फ़न का कमाल दिखाया। ऊपर का मिसरा हटाया और बड़ी ख़ूबसूरती से अपना मिसरा लगाया। आप जानते ही हैं कि यही ख़ूबसूरत शेर आगे चलकर शायर बशीर बद्र का पहचान पत्र बन गया-
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.
मैंने डॉ बशीर बद्र से व्यक्तिगत रूप से पूछा था कि क्या आपने जानबूझकर अर्शी लखनवी का यह मिसरा उठाया है। उन्होंने जवाब दिया- "जी हां हमारी यह रिवायत है। ये तो देखिए कि मैं ने एक मिसरा बदलकर इस शेर को कितना ख़ूबसूरत बना दिया।"
◆
भोपाल के मशहूर शायर शेरी भोपाली की एक ग़ज़ल मुशायरों में बहुत पसंद की जाती थी। उसका एक शेर है-
अभी जो दिल में हल्की सी ख़लिश महसूस होती है,
बहुत मुमकिन है कल इसका मुहब्बत नाम हो जाए.
■
अब भोपाल के ही शायर डॉ बशीर बद्र का एक मशहूर शेर देखिए-
वो मेरा नाम सुनकर कुछ ज़रा शर्मा से जाते हैं
बहुत मुमकिन है कल इसका मुहब्बत नाम हो जाए
डॉ बशीर बद्र से सीनियर थे शेरी भोपाली। हो सकता है कि बशीर बद्र ने उनके मिसरे पर तरही ग़ज़ल कही हो।
◆
मुझे लगता है कि ख़याल की सरहदें नहीं होतीं। यानी दुनिया में कोई भी दो शायर एक जैसा सोच सकते हैं। जाने-अनजाने दो फ़नकार शायरी की एक ही ज़मीन पर एक जैसी फ़सल उगा सकते हैं। मैंने सन् 1975 में किसी की पंक्तियाँ सुनी थीं जो अब तक मुझे याद है-
भीग जाती हैं जो पलकें कभी तनहाई में
काँप उठता हूँ कोई जान न ले.
ये भी डरता हूँ मेरी आँखों में
तुझे देख के कोई पहचान न ले.
◆
पाकिस्तान की मशहूर शायरा परवीन शाकिर का भी इसी ख़याल पर एक शेर नज़र आया –
काँप उठती हूँ मैं ये सोचके तनहाई में,
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई.
◆
ख़यालों की ये समानता इशारा करती है कि सोच की सरहदें इंसान द्वारा बनाई गई मुल्क की सरहदों से अलग होती हैं। शायर कैफ़ी आज़मी ने नौजवानी के दिनों में एक ग़ज़ल कही थी। वो इस तरह है-
मैं ढूँढ़ता जिसे हूँ वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिससे हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का इस पर निशां नहीं मिलता
■
निदा फ़ाज़ली साहब जवान हुए तो उन्होंने कैफ़ी साहब के सिलसिले को इस तरह आगे बढ़ाया-
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कभी ज़मी तो कभी आसमां नहीं मिलता
फ़िल्म ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ में शामिल निदा साहब की यह ग़ज़ल भूपिंदर सिंह की आवाज़ में इतनी ज्यादा पसंद की गई कि लोग कैफ़ी साहब की ग़ज़ल भूल गए।
◆
मुशायरे के मंच पर भी दिलचस्प प्रयोग मिलते हैं। कभी-कभी दो शायर एक दूसरे की मौजूदगी में एक ही ज़मीन में एक जैसा नज़र आने वाले शेर पढ़ते हैं। श्रोता ऐसी शायरी का बड़ा लुत्फ़ उठाते हैं। शायर मुनव्वर राना का एक शेर इस तरह मुशायरों में सामने आया-
उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं.
क़द में छोटे हैं मगर लोग बड़े रहते हैं.
■
डॉ.राहत इंदौरी ने अपने निराले अंदाज़ में अपना परचम इस तरह लहराया-
ये अलग बात कि ख़ामोश खड़े रहते हैं.
फिर भी जो लोग बड़े हैं वो बड़े रहते हैं.
◆
दोनों शायरों को मुबारकबाद दीजिए कि उन्होंने अपने इल्मो-हुनर से लोगों को बड़ा बनाया। मुंबई में मुशायरे के मंच पर सबसे पहले हसन कमाल ने ये कलाम सुनाया-
ग़ुरूर टूट गया है, ग़ुमान बाक़ी है.
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है.
■
इसी ज़मीन पर शुजाउद्दीन शाहिद का एक शेर सामने आया-
घरों पे छत न रही सायबान बाक़ी है.
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है.
■
इस पर डॉ.राहत इंदौरी ने फ़ैसला सुनाया-
वो बेवकूफ़ ज़मीं बाँटकर बहुत ख़ुश है,
उसे कहो कि अभी आसमान बाक़ी है.
■
इसके बाद राजेश रेड्डी के तरन्नुम ने कमाल दिखाया-
जितनी बँटनी थी बँट गई ये ज़मीं,
अब तो बस आसमान बाक़ी है.
◆
राजेश रेड्डी बा-कमाल शायर हैं। उनके बारे में मशहूर है कि वे बड़ी पुरानी ज़मीन में बड़ा नया शेर कह लेते हैं। मसलन जोश मल्सियानी का शेर है-
बुत को लाए हैं इल्तिजा करके.
कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा करके.
■
राजेश रेड्डी ने इस पुरानी ज़मीन में नई फ़सल उगाने का ऐसा कमाल दिखाया कि उनके फ़न को जगजीत सिंह जैसे मक़बूल सिंगर ने अपने सुर से सजाया-
घर से निकले थे हौसला करके,
लौट आए ख़ुदा ख़ुदा करके,
◆
"आसमान बाक़ी है"... अभी तक ये तय नहीं हो पाया है कि इस ज़मीन का असली मालिक कौन है। मैंने शायर निदा फ़ाज़ली से इसका ज़िक्र किया। वे मुस्कराए- 'अभी तक इन…..को पता ही नहीं है कि आसमान बँट चुका है। इनको एक हवाई जहाज़ में बिठाकर कहो कि बिना परमीशन लिए किसी दूसरे मुल्क में दाख़िल होकर दिखाएं। फ़ौरन पता चल जाएगा कि आसमान बँटा है या नहीं।
◆
नौजवान शायर आलोक श्रीवास्तव का ‘माँ’ पर एक शेर है जो उनके काव्य संकलन 'आमीन' में प्रकाशित एक ग़ज़ल में शामिल है-
बाबू जी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुई तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा.
■
माँ पर शायर मुनव्वर राना का एक मतला है जिसे असीमित लोकप्रियता हासिल हुई-
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आयी.
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी.
■
मुझे नहीं पता कि इस पर राना साहब का कमेंट क्या है मगर आलोकजी का दावा है कि उनके शेर के पाँच साल बाद राना जी का मतला नज़र आया।
◆
सदियों से ग़ज़ल के क्षेत्र में हमेशा कुछ न कुछ रोचक प्रयोग होते रहते हैं । कभी शायरों के ख़याल टकरा जाते हैं तो कभी मिसरे। ख़ुदा-ए-सुख़न मीर ने लिखा था –
बेख़ुदी ले गई कहाँ हमको,
देर से इंतज़ार है अपना.
■
इसी ख़याल को ग़ालिब साहब ने अपने अंदाज़ में आगे बढ़ाया-
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी,
ख़ुद हमारी ख़बर नहीं आती.
◆
मुझे लगता है कि 'ख़ुदाए-सुख़न मीर' से मिर्ज़ा ग़ालिब काफ़ी प्रभावित थे। उनपर मीर का यह असर साफ़-साफ़ दिखाई देता है। मिसाल के तौर पर दोनों के दो-दो शेर देखिए-
तेज़ यूँ ही न थी शब आतिशे-शौक़,
थी ख़बर गर्म उनके आने की.-मीर तकी मीर
थी ख़बर गर्म उनके आने की,
आज ही घर में बोरिया न हुआ.-मिर्ज़ा ग़ालिब
■
होता है याँ जहां में हर रोज़ो-शब तमाशा.
देखा जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा.-मीर
बाज़ी-चा-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे.
होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे.-मिर्ज़ा ग़ालिब
◆
फ़िल्म उमराव जान में ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित शायर शहरयार की ग़ज़ल का मतला है-
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये.
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये.
■
इस ग़ज़ल ने शहरयार को रातों-रात लोकप्रियता की बुलंदी पर पहुँचा दिया। इस मतले के दोनों मिसरे बिहार के शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी की एक ग़ज़ल से वाबस्ता हैं। उनकी उस ग़ज़ल के शेर देखिए-
■
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये.
ख़ंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये.
■
बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात,
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये.
■
मर जायेंगे मिट जायेंगे हम कौम के लिए,
मिटने न देंगे मुल्क, ये ऐलान लीजिये.
◆
बिस्मिल अज़ीमाबादी का एक और शेर है-
'बिस्मिल' ऐ वतन तेरी इस राह-ए-मुहब्बत में
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
■
इसी ज़मीन पर जिगर मुरादाबादी का भी मशहूर शेर है-
ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
◆
मुझे नहीं पता कि दोनों शायरों में से किसने पहले ये शेर कहा और किसने तरही ग़ज़ल कही। मशहूर शायर-सिने गीतकार शकील बदायूंनी ने भी दूसरों के मिसरे उठाने में हर्ज़ नहीं समझा। उनका एक मशहूर फ़िल्मी गीत है-
ख़ुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं
जहां बजती है शहनाई वहाँ मातम भी होते हैं...(बाबुल)
■
अब शायर दाग़ देहलवी का ये शेर देखिए-
ख़ुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं
जहां बजते हैं नागाड़े वहाँ मातम भी होते हैं
◆
"ऐ मेरे वतन के लोगो" फेम गीतकार पं. प्रदीप से एक बार मैंने पूछा था कि अगर दो रचनाकारों के ख़याल आपस में टकराते हैं तो क्या ये ग़ल़त बात है ? उन्होंने जवाब दिया कि कभी-कभी एक रचनाकार की रचना में शामिल सोच दूसरे रचनाकार को इतनी ज़्यादा अच्छी लगती है कि वह सोच के इस सिलसिले को आगे बढ़ाना चाहता है। यानी वह अपने पहले के रचनाकार की बेहतर सोच का सम्मान करना चाहता है। चरक दर्शन का सूत्र है- चरैवेति चरैवेति, यानी चलो रे…चलो रे…। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने इस ख़याल को आगे बढ़ाया- 'इकला चलो रे।' लोगों को और मुझे भी अकेले चलने का ख़याल बहुत पसंद आया। मैंने इस ख़याल का सम्मान करते हुए एक गीत लिखा और मेरा गीत भी बहुत पसंद किया गया-
चल अकेला… चल अकेला… चल अकेला,
तेरा मेला पीछे छूटा साथी चल अकेला…
◆
एक कहावत है- 'साहित्य से ही साहित्य उपजता है।' मित्रो ! 'भावों की भिड़न्त' का आरोप तो महाकवि निराला पर भी लग चुका है। मेरे ख़याल से अगर कोई शायर किसी दूसरे शायर का मिसरा उठाता है तो उसे उसका ज़िक्र कर देना चाहिए। मिर्ज़ा गालिब के बाद ऐसा लगता था कि ग़ज़ल में अब कुछ नया लिखने को बाक़ी नहीं रह गया है। लेकिन उनके बाद भी कही गई ज़मीन पर, कही गई बहर में और भी बहुत कुछ नया कहा गया। सब ने अपने-अपने अंदाज़ में अपनी बात कहने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती करने का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। लोग अपनी मर्ज़ी से अपनी मनचाही ज़मीन पर मनमाफ़िक फ़सल उगाते रहेंगे।
◆
साभार
- Devmani Pandey
ग़ज़ल 435 [09-G]
2122---1212---22
लोग क्या क्या नहीं कहा करते ,
हम भी सुन कर केअनसुना करते ।
उनके दिल को सुकून मिलता है
जख़्म वो जब मेरे हरा करते ।
ताज झुकता है, तख़्त झुकता है
इश्क़ वाले कहाँ झुका करते ।
कर्ज है ज़िंदगी का जो हम पर
उम्र भर हम उसे अदा करते।
सानिहा दफ्न हो चुका कब का
कब्र क्यों खोद कर नया करते ?
जिनकी गैरत , जमीर मर जाता
चंद टुकड़ो पे वो पला करते ।
ग़ैर से क्या करें गिला ’आनन’
अब तो अपने भी हैं दग़ा करते
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 434 [ 08-G]
1222---1222---1222---1222
कहाँ आसान होता है किसी को यूँ भुला पाना
वो गुज़रे पल, हसीं मंज़र, वो कस्मे याद आ जाना
पहुँच जाता तुम्हारे दर, झुका देता मैं अपना सर
अगर मिलता न मुझको रास्ते में कोई मयख़ाना
नहीं मालूम क्या तुमको मेरे इस्याँ गुनह क्या हैं
अमलनामा में सब कुछ है मुझे क्या और फ़रमाना
शजर बूढ़ा खड़ा हरदम यही बस सोचता रहता
परिंदे तो गए उड़ कर मगर मुझको कहाँ जाना ।
अजनबी सा लगे परदेश, गर मन भी न लगता हो
वही डाली, वही है घर, वही आँगन, चले आना ।
कमी कुछ तो रही होगी हमारी बुतपरस्ती में
तुम्हारी बेनियाजी को कहाँ मैने बुरा माना ।
मुहब्बत पाक होती है तिजारत तो नहीं होती
हमारी बात पर ’आनन’ कभी तुम ग़ौर फ़रमाना
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 433 [ 07-G]
1222---1222---1222----122
रवायत बोझ हो जाए उसे कब तक उठाना
अरे क्या सोचना इतना-’कहेगा क्या ज़माना !’
इशारों में कही बातें इशारों में ही अच्छी
ज़ुबां से क्या बयां करना किसी को क्या बताना
किसी के पैर से कब तक चलोगे तुम कहाँ तक
छुपी ताक़त है अपनी क्यों न उसको आजमाना
हमेशा इश्क. को तुम कोसते, नाक़िस बताते
तुम्हारी सोच क्यों होती नहीं है आरिफ़ाना ।
शराफ़त से अगर बोलो तो कोई सुनता कहाँ है
शराफ़त छोड़ कर बोलो सुने सारा ज़माना ।
तकज़ा है यही इन्सानियत का, शख़्सियत का
ज़ुबां दी है किसी को तो लब-ए-दम तक निभाना।
मुहब्बत भी इबादत से नहीं कमतर है ’आनन’
अगर उसमे न धोखा हो, न हो सजदा बहाना ।
-आनन्द पाठक-
रिपोर्ताज़ 09: मौसम बदलेगा [ ग़ज़ल संग्रह] -पर - नीरज गोस्वामी द्वारा लिखा आलेख
मित्रो !
नीरज गोस्वामी साहित्यिक मंचों के ख़ास तौर पर ग़ज़लो के मंचों के और समीक्षक के रूप में एक सशक्त हस्ताक्षर -हैं
किसी परिचय के मुहताज नहीं । आप ने मेरे ग़ज़ल संग्रह -- मौसम बदलेगा --पर अपनी बेबाक़ राय रखी है। आप भी पढ़ें
यह आलेख उनके ब्लाग पर भी पढ़ सकते है पोस्ट 17-जुलाई-2024 । लिंक नीचे दिया हुआ है।---आनन्द.पाठक-
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किताब मिली - शुक्रिया - 10 --नीरज गोस्वामी द्वारा लिखा गया आलेख