रविवार, 19 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल 447 [21-जी] : बाग़ मेरा न यूँ लुटा होता

 ग़ज़ल 447[21-जी] : बाग़ मेरा यूँ न लुटा होता

2122---1212---22

बाग़ मेरा न यूँ लुटा होता

बाग़बाँ जो जगा रहा होता ।


हाल ग़ैरों से ही सुना तुमने ,

हाल-ए-दिल मुझसे कुछ सुना होता ।


सर उठा कर जो हम नहीं चलते

सर हमारा कटा नहीं होता ।


राह तेरी अलग रही होती

अपनी शर्तों पे जो जिया होता।


द्वार दिल का जो तुम खुला रखते

लौट कर वह नहीं गया होता ।


वक़्त भरता नहीं अगर मेरा

जख़्म-ए-दिल अब तलक हरा होता।



हुस्न और इश्क़ ग़र न हो ’आनन’

ज़िंदगी का जवाज़ क्या होता ?


-आनन्द.पाठक ’आनन’-

जवाज़ = औचित्य




रविवार, 12 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल 446 [ 20- G] : लोग अपने आप पर इतरा रहे हैं

 ग़ज़ल 446[ 20-जी] : लोग अपने आप पर


2122---2122---2122

लोग अपने आप पर इतरा रहे हैं
एक झूठी शान पर इठला रहे  हैं ।

उम्र भर दरबार में जो सर झुकाए,
मान क्या, सम्मान क्या, समझा रहे हैं ।

जो जुगाड़ी तन्त्र से पहुँचें यहाँ तक
ठोक सीना वो हुनर बतला रहे हैं ।

ख़ुदसिताई का लगा जब रोग उनको
इक ’सनद’ सौ-सौ जगह चिपका रहे हैं।

मजहबी दीवार जिनको तोड़ना था 
नफ़रतें हर शहर में फैला रहे हैं ।

यह जहालत है, हिमाकत है कि जुरअत
दम फ़रेबी का वो भरते जा रहे हैं ।

हैफ़ ! उनको क्या कहें अब और ’आनन’
रोशनी को तीरगी बतला रहे हैं ।

-आनन्द पाठक ’आनन’

हैफ़ = अफ़सोस


शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल 445 [19-G] : जिन्हे कुछ न करना

ग़ज़ल 445 [19-जी]: जिन्हे कुछ न करना 

122---122---122---122

जिन्हें कुछ न करना, न दुख ही जताना
ग़म.ए.दिल फिर अपना उन्हें क्या सुनाना

अँधेरों की ही वह हिमायत है करता
कभी रोशनी के  म'आनी न जाना

जिसे सरफिरा कह के ख़ारिज़ किया है
बदल देगा इक दिन वही यह जमाना

वो कहता है कुछ और कुछ सोचता है
पलट जाने का वह खिलाड़ी पुराना ।

वो परचम लिए झूठ का चल रहा है
वही चंद बेजान नारे लगाना ।

सियासत में उसको सभी लगता जायज़
लहू हो बहाना कि बस्ती जलाना ।

तकारीर उनकी तो कुछ और 'आनन'
हक़ीक़त में उनको अमल में न लाना ।

-आनन-

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

ग़जल 444 [18-G] : रोज़ सपने नया दिखाता है

ग़ज़ल 444 [ 18-जी: " रोज़ सपने नया दिखाता है


2122  --1212--22

रोज़ सपनें नए दिखाता है
जाने क्या क्या हमें बताता है

यह हुनर है कमाल है उसका
वो हवा में महल बनाता है

आग-सा वह बयान दे दे कर
बारहा वह हमें डराता है ।

जब तलक 'वोट' की ज़रूरत है
दर पे आकर वह सर झुकाता है

छोड़िए बात क्या करें उसकी
खु़द की गैरत जो बेच खाता है

साज़िशों मे रहा मुलव्वस वह
खुद को मासूम-सा दिखाता है

खुद गरज हो गया है वो, 'आनन'
खुद से आगे न देख पाता है ।

-आनन-

सोमवार, 22 सितंबर 2025

अभी संभावना है --एक स्पष्टीकरण --रिपोर्ताज


 

[ मित्रो ! पिछली पोस्ट में मैने लिखा था कि इस संस्करण को मैं द्वितीय संस्करण का नाम नहीं दे रहा हूँ। क्यों नहीं दे रहा हूँ, इसका स्पष्टीकरण इस भूमिका में कर दिया हूँ।आप भी पढ़ें।]

 

अभी संभावना है -- ग़ज़ल संग्रह की भूमिका से--

==  =====  =====

मैं स्वीकार करता हूँ ------

 

अभी संभावना है- [ गीत ग़ज़ल संग्रह] की यह संशोधित आवृति आप के हाथों में है। मैं इसे द्वितीय संस्करण का नाम नही दे रहा हूँ अपितु यह पहली आवॄति की पुनरावृति या अधिक से अधिक इसे परिष्कॄत, परिवर्तित, परिशोधित या परिवर्धित रूप कह सकते हैं। आप के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मै ऎसा क्यों कह रहा हूँ या फिर इस आवृति की आवश्यकता ही क्या थी ?

मेरी पहली पुस्तक –शरणम श्रीमती जी-[ व्यंग्य संग्रह] थी जो सन 2005 में प्रकाशित हुई थी। ठीक उसके बाद मेरी दूसरी पुस्तक- अभी संभावना है—[गज़ल गीत संग्रह] थी जो सन 2007 में प्रकाशित हुई थी और वह मेरा प्रथम ग़ज़ल संग्रह था, जिसमें मेरी कुल 68 ग़ज़लें, 21 गीत संग्रहित थे।

17-18 साल बाद, आज जब मैं मुड़ कर देखता हूँ तो मैं यह निस्संकोच स्वीकार करता हूँ –उसमें ग़ज़ल कहाँ थी ? शे’रियत कहाँ थी ,ग़ज़लियत कहाँ थी, तग़ज़्ज़ुल कहाँ था? बस नाम मात्र की ’तथाकथित’ कुछ ग़ज़लनुमा चीज़ थी मगर वो ग़ज़ल न थी। न क़ाफ़िया, न रदीफ़, न बह्र, न वज़न, न अर्कान, न अरूज़ । बस कुछ जुमले, कुछ अधकचरी तुकबंदी-सी कोई चीज़ थी जिन्हें उन दिनों मैं ग़ज़ल समझता था। उस वक़्त मुझे ये सब इस्तेलाहात [परिभाषाएँ] मालूम न थे। इधर उधर से कुछ पढ़ कर, कुछ लोगो से सुन सुना कर तुकबंदिया करने लगा था। वह एक मात्र बाल सुलभ-प्रयास था, न ग़ज़लियत, न तगज़्ज़ुल, न शे’रियत। यह बात मैने पहली आवृति में खुले मन से स्वीकार भी किया और लिखा भी था ।

मुझे आज भी यह सब स्वीकार करने में रंच मात्र भी संकोच नहीं। कारण उर्दू मेरी मादरी ज़ुबान नहीं। वक्त बीतता गया । अनुभव होता गया। मैं अन्य विधाओं जैसे व्यंग्य, माहिया, दोहा, गीत अनुभूतियां, मुक्तक, कविता आदि के लेखन में व्यस्त हो गया। साथ ही अरूज़ का सम्यक अध्ययन भी करने लग गया। स्वयं सर संधान करने लग गया। शरद तैलंग साहब का एक शे’र है-

      सिर्फ़ तुकबन्दियाँ काम देंगी नहीं

      शायरी कीजिए शायरी की तरह ।

- आज मैं यह स्वीकार करता हूँ कि पुस्तक की पहली आवृति किसी मुस्तनद उस्ताद को दिखा लेना चाहिए था तो फिर ऐसी नौबत न आती। अफ़सोस ! ऐसा हो न सका। शायरी को शायरी की तरह न कर सका। आज भी नहीं कर सकता।

शायरी को शायरी की तरह करने के लिए ज़रूरी था कि या तो कोई मुस्तनद [ प्रामाणिक] उस्ताद मिलते या अरूज़ [ ग़ज़ल का व्याकरण] पढ़्ता और समझता। पहला विकल्प तो हासिल न हो सका। कारण कि किसी ने मुझे ’शागिर्द’ बनाया ही नहीं, न ही मुझे शागिर्द बनाने के योग्य समझा। न ही किसी ने ’गण्डा’ बाँधा । सो मैने स्वाध्याय पर ही भरोसा किया।


      मगर इसमें भी एक समस्या थी। अरूज़ की जितनी प्रामाणिक किताबे थी सब उर्दू लिपि [ रस्म उल ख़त] में थी। फिर भी मैने स्वाध्याय से काम भर या काम चलाऊ उर्दू सीखना शुरु किया । “आए थे हरि भजन को , ओटन लगे कपास”। अल्हम्द्लल्लाह , ख़ुदा ख़ुदा कर कुछ कुछ उर्दू, किताबों से पढ़ना सीखा। अरूज़ की किताबों का अध्ययन किया, इन्टर्नेट पर तत्संबधित सामग्री का मुताअ’ला [ अध्ययन ] किया । अभी बहुत कुछ सीखना है। सीखने का सफ़र खत्म नहीं होता। निरन्तर चलता रहता है। जितना समझ सका, उतना मैने अपने एक ब्लाग “उर्दू बह्र पर एक बातचीत “ [
www.arooz.co.in] के नाम से, यकज़ा [ एक जगह ] फ़राहम कर दिया जिससे मेरे वो हिंदीदाँ दोस्त जो शायरी से ज़ौक-ओ-शौक़ फ़रमाते हैं, लगाव रखते हैं।मुस्तफ़ीद [ लाभान्वित ] हो सकें

इतने के बावज़ूद, मैने कभी खुद को शायर होने का दावा नहीं किया और न कभी कर सकता हूँ । बस एक अदब आशना  हूँ।

            न आलिम, न शायर, न उस्ताद ’आनन’

            अदब से मुहब्बत, अदब आशना  हूँ ।

ख़ैर, सोचा कि अब वक़्त आ गया है कि अपने उस पहले ग़ज़ल संग्रह -अभी संभावना है – में जो कमियाँ या ख़ामियाँ रह गई थीं उन्हे यथा संभव अब दुरुस्त कर दिया जाए। एक विकल्प यह था कि जो हो गया सो हो गया और जैसे है उसे वैसे ही छोड़ दें। As it is, where it is| मगर सारी रचनाएं मेरी ही थीं, मेरा ही सृजन था, कैसे छोड़ सकता था भला। यथाशक्ति सुधार करना ही बेहतर समझा ।

 यह काम इतना आसान भी नहीं था, मगर नामुमकिन भी नहीं था। अत: उन तमाम [68] ग़ज़लों और गीतों को स्वप्रयास से सुधारना शुरु किया । ग़ज़लो और गीतों का क्रम भी वही रखा जो पहली आवृति में था। मुझे यक़ीन था यह काम एक दिन में नहीं होगा, मगर ’एक दिन’ होगा ज़रूर। शनै: शनै: एक दिन यह भी काम पूर्ण हो गया, जो अब आप लोगों के हाथॊं में है।

अनुभव के आधार पर, एक बात ज़रूर कहना चाहूँगा। । किसी विकृति, टेढ़े-मेढ़े, जर्जर भवन का जीर्णोंद्धार कर, उसे सही एवं सुकृति भवन बनाने से  आसान है नया सृजन ही कर देना। ख़ैर, इस आवृति में कोशिश यही रही कि पुरानी ग़जलॊ का केन्द्रीय भाव [core structure] यथा संभव वही रहे, मगर बहर में रहे,वज़न में रहे, कम से कम  रदीफ़ तो सही रहे-क़ाफ़िया तो सही रहे। मूल भावना यही थी कि ग़ज़ल का मयार [स्तर,standard, भावपक्ष] जो भी हो जैसा भी हो, कम अज कम कलापक्ष, व्याकरण पक्ष, अरूज़ के लिहाज़ से तो सही हो । और यही कोशिश यथा संभव मैने इस संशोधित /परिवर्धित आवृति में की है।

      मयार/ शे’रियत/ ग़ज़लियत/ तग़ज़्ज़ुल तो ख़ैर हर शायर का अपना अंदाज़-ए-बयाँ होता है,अलग होता है, मुख़्तलिफ़ होता जो.उसकी क़ाबिलियत. उसके हुनर, उसके फ़न उसके फ़हम उसकी सोच, सोच की बुलन्दी, तख़य्युल वग़ैरह पर मुन्हसर [ निर्भर] होता है। इस पर मुझे विशेष कुछ नहीं कहना है। इसके लिए सही अधिकारी आप लोग हैं, पाठकगण हैं।

      यह संशोधित संस्करण आप लोगों के हाथों सौंप रहा हूँ । आप की टिप्पणियों का, सुझावों का, प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।

चलते चलते एक बात और—

शायरी [ या किसी फ़न] मेंहर्फ़--आख़िरकुछ नहीं होता।

सादर

 

-आनन्द.पाठक ‘आनन’ -

==  ===========  =========

 यह पुस्तक अमेजान पर भी उपलब्ध है --लिंक नीचे दिया हुआ है

https://amzn.in/d/eYVHK38


वैसे भी पुस्तक प्राप्ति के लिए आप संपर्क कर सकते है_

श्री संजय कुमार

अयन प्रकाशन

जे-19/39 , राजापुरी, उत्तम नगर

नई दिल्ली -110 059

Email : ayanprakashan@gmail.com

Web site: www.ayanprakashan,com

Whatsapp  92113 12371

 

सोमवार, 15 सितंबर 2025

मुक्तक 22

 मुक्तक 22

;1;

मजदूरों की बस्ती साहिब

जान यहाँ है सस्ती साहिब

जब चाहे आकर उजाड़ दें

’बुधना’ की गृहस्थी साहिब

शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

एक सूचना : मेरी पुस्तक-अभी संभावना है- प्रकाशन के संदर्भ में--एक रिपोर्ट

 


[ मित्रो!

पिछली पोस्ट में मैने सूचित किया था कि मेरा अगला ग़ज़ल संग्रह -अभी संभावना है -का संशोधित रूप प्रकाशित हो कर आ गया है। साथ में यह भी सूचित किया था कि इस पुस्तक का आशीर्वचन आदरणीय द्विजेन्द्र ’द्विज’ जी ने लिखा है। जो ग़ज़ल समझते हैं जानते हैं वह ’द्विज जी’ को जानते होंगे। चूँकि द्विज जी एकान्त साहित्य साधक है, आत्म प्रचार प्रसार से, आत्मश्लाघा से, आत्म मुग्धता से बहुत दूर रहते हैं, संभव है बहुत से लोग नहीं भी जानते होंगे।
ख़ैर
इस पुस्तक के बारे में आज उन्हीं का संक्षिप्त आलेख यहाँ लगा रहा हूँ। आप भी पढ़े, आनन्द उठाएँ और आशीर्वाद दें।
--- === ---ऽऽऽऽऽऽ -
प्रस्तुत काव्य संकलन सुविख्यात व्यंग्यकार, ग़ज़लकार एवं गीतकार श्री आनन्द पाठक ’आनन’ के प्रथम ग़ज़ल गीत संग्रह ‘अभी संभावना है’ का परिवर्तित, परिवर्धित, परिष्कृत व परिशोधित संस्करण है।
2007 में प्रथम काव्य संग्रह ‘अभी संभावना है’ के प्रकाशन के पश्चात भी उन्होंने दर्जन से अधिक उत्कृष्ट काव्य संकलन साहित्य जगत को दिये हैं लेकिन अपने लेखन के निरंतर परिशोधन व परिष्कार के संस्कार ने उन्हें इस आवृति / संस्करण के लिए प्रेरित किया है। यह उनके व्यक्तित्व की विशालता है।
विशुद्ध साहित्यिक पृष्ठभूमि से आने वाले श्री आनन्द पाठक ’ आनन’ विविध छान्दसिक और गद्यात्मक विधाओं के गंभीर अध्येता हैं । चिराभ्यस्त ( कोहनामशक) शाइर हैं । कथ्य और शिल्प की सूक्ष्मताओं को आत्मसात उन्हें लेकर अपने अन्वेषणों को विभिन्न संचार माध्यमों से सुधी पाठक जगत के साथ साझा भी करते हैं। उनकी व्यक्तित्व की सहजता सरलता और तरलता का प्रतिबिंब उनकी शायरी में देखा जा सकता है।
इस सहृदय रचनाकार के लेखन की मूल प्रेरणा उनका समग्र सामाजिक राजनैतिक और आध्यात्मिक परिवेश है जो उनकी रचनाओं में हार्दिकता के साथ प्रमुखता से झलकता है।
पाठक साहिब मानवता के अस्तित्व की संभावनाओं के प्रति आशान्वित शायर हैं। उनकी शाइरी समय की क्रूर सच्चाइयों को लेकर उनके चिंतन मंथन का प्रतिबिम्ब है। समकाल के क्रूर सत्य, समकाल की विविध विडंबनाएं,विद्रूपताएँ और विकृतियाँ उनकी रचनात्मकता में बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रतिबिम्बित होते हुए देखे जा सकते हैं। उनका संवेदना सम्पन्न अंतर्मन और इनकी रचनात्मकता उनके गीतों ग़ज़लों माहियों और व्यंग्यों के सहज सम्प्रेषण के साथ सुधी पाठक के मनमस्तिष्क से संवाद करते हैं । जीवन के तमाम मौसमों के विभिन्न रंगों और और उनकी छटाओं का आकलन बारीक़ी से करते हैं और उन्हें अपनी विशिष्ट छाप के साथ प्रस्तुत करते हैं। उनके यहाँ कथ्य की नवीनता आकर्षित करती है। उनका सृजन आदमी में आदमीयत जगाने की संभावनाओं से सपन्न सृजन है। आनन साहिब का एक शे’र है:
प्रस्तुत संग्रह में उनकी इन्हीं दस्तकों की अनुगूँज सुनी जा सकती है। उनके प्रथम काव्य संग्रह ‘अभी संभावना है’ की सार्थक द्वितीय आवृत्ति के प्रकाशन के लिए शुभकामनाओं सहित,
सादर,
धर्मशाला, 1, अगस्त 2025
मोबाइल: 94184 65008
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कुछ मित्रॊं का प्रश्न था कि क्या यह पुस्तक ’अमेजान’ पर उपलब्ध है “
प्रकाशक महोदय ही विपणन [ मार्केटिंग] का कार्य करते है अत: उन्होने इसे ’अमेजान’ प्लेटफ़ार्म पर लगा दिया है जिसका लिंक नीचे लगा दिया है।
वैसे भी पुस्तक प्राप्ति के लिए आप संपर्क कर सकते है_
श्री संजय कुमार
अयन प्रकाशन
जे-19/39 , राजापुरी, उत्तम नगर
नई दिल्ली -110 059
Email : ayanprakashan@gmail.com
Web site: www.ayanprakashan,com
Whatsapp 92113 12371
--आनन्द पाठक-


गुरुवार, 11 सितंबर 2025

एक सूचना -मेरी पुस्तक -अभी संभावना है-- प्रकाशन के संदर्भ में

 



एक सूचना-पुस्तक -प्रकाशन के संदर्भ में
अभी संभावना है

मित्रो !

आप लोगों को यह सूचित करते हुए हर्षानुभूति हो रही है कि आप लोगों के आशीर्वाद से और शुभकामनाओं से मेरा अगली किताब –अभी संभावना है [ ग़ज़ल संग्रह]—  प्रकाशित हो कर आ गई है । इसे मै 13TH पुस्तक तो नहीं कह सकता। वस्तुत: यह मेरे प्रथम ग़ज़ल संग्रह - अभी संभावना है-का ही संशोधित रूप है। मैं इसे द्वितीय संस्करण का नाम नही दे रहा हूँ अपितु यह पहली आवॄति की ही पुनरावृति या अधिक से अधिक इसे परिष्कॄत, परिवर्तित, परिशोधित या परिवर्धित रूप कह सकता हूँ। आप के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मै ऎसा क्यों कह रहा हूँ या फिर इस आवृति की आवश्यकता क्या थी ? इस प्रश्न का उत्तर मैने इस संग्रह की भूमिका में विस्तार से लिख दिया है।

      इस संग्रह का आशीर्वचन आ0 द्विजेन्द्र ’द्विज’ जी ने लिखा है। द्विज जी स्वयं एक समर्थ ग़ज़लकार है और ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर भी। । वह एकान्त साहित्य साधक हैं, आत्म मुग्धता से बहुत दूर रहते हैं। वह ग़ज़ल कहते नहीं अपितु जीते हैं।
यह संशोधित संस्करण आप लोगों के हाथों सौंप रहा हूँ । आप की टिप्पणियों का, सुझावों का, प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।

दस्तकें देते रहो तुम हर मकां, हर दर पे ‘आनन’

आदमी में आदमीयत जग  उठे संभावना है।’


सादर

-आनन्द.पाठक ‘आनन’ –

---                ------------

पुस्तक मिलने का पता –

श्री संजय कुमार

अयन प्रकाशन

जे-19/39 , राजापुरी, उत्तम नगर

नई दिल्ली -110 059

Email : ayanprakashan@gmail.com

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Whatsapp  92113 12371

 

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

गीत 092 : स्वर्ग यहीं है, नर्क यहीं है-

 गीत 092 : स्वर्ग यहीं है, नर्क यहीं है

स्वर्ग यहीं है , नर्क यहीं है
बाक़ी सव प्रवचन की बातें ।

            मोह पाश में जकड़ा प्राणी
            तीरथ तीरथ घूम रहा है ।
            मन की व्यथा प्रबल है इतनी
            पत्थर पत्थर चूम रहा है ।
मन के अंदर ज्योति जगा ले
कट जाएँगी काली  रातें ।

            एक भरोसा रख तो मन में ,
            क्यों रखता है मन में उलझन ?
             वह तेरा आराध्य अगर है
            फिर क्यों रहता है विचलित मन।
जीवन है तो आएँगे ही
आँधी, तूफ़ाँ झंझावातें ।

            सुख दुख तो जीवन का क्रम है
            उतरा करते हैं आँगन में ।
            कभी अँधेरा , कभी उजाला ,
            नदियाँ भी सूखीं  सावन में ।
अपना अपना दर्द सभी का
अपनी अपनी हैं सौगातें ।

-आनन्द.पाठक- 

शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

ग़ज़ल 443[17-जी] : किसी के मिलन की --

ग़ज़ल : 443 [17-जी]
122---122---122---122


ग़ज़ल हूँ, किसी का मैं  हर्फ़-ए-वफ़ा  हूँ ।
किसी के  मिलन की, विरह की कथा हूँ ।
 
तवारीख़ में हर ग़ज़ल की गवाही
मैं हर दौर का इक सफ़ी आइना हूँ ।

कभी ’हीर’ राँझा’ की बन कर कहानी
किसी की तड़पती हुई मैं सदा हूँ ।

कभी ’मीर’ ग़ालिब’ , कभी दाग़, मोमिन
उन्हीं की मै  ख़ुशबू  का इक सिलसिला हूँ ।

ख़याल-ए-सुख़न हूँ निहाँ हर ग़ज़ल में
ग़ज़लगो, सुख़नदाँ का मैं आशना हूँ ।

ज़माने का ग़म हो कि ग़म यार का हो
हक़ीक़त बयानी की तर्ज़-ए-अदा हूँ ।

ग़ज़ल हूँ , अदब की रवायत हूँ ’आनन’
ज़माने की आवाज़ का तरज़ुमा हूँ । 

-आनन्द.पाठक-  

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

चंद माहिए 111/21

 चन्द माहिए : क़िस्त 111/21

:1: 

उस पार मेरा माही

टेरेगा जिस दिन

उस दिन तो जाना ही ।


:2:

जब दिल ही नहीं माना

क्या होगा लिख कर

कोई राजीनामा ।



बुधवार, 13 अगस्त 2025

एक सूचना : नए यू-ट्यूब चैनेल के बारे में

  एक सूचना --नए ’यू-ट्यूब ’ चैनेल के बारे में 

गुरुवार, 17 जुलाई 2025

चंद माहिए 110/20

:1: 
बारिश लगती है भली
खेल रहे बच्चे
कागज की नाव चली

:2:
सबने है ये माना
पिंजरे से इक दिन
पंछी को उड़ जाना ।

:3:
क्यॊं आँखें हैं पुरनम
लेकर चलती हो
क्यों दुनिया भर का ग़म ।

:4:
सावन भी अब बीता
आई न जब तुम तो
मौसम फ़ीका फ़ीका ।

:5:
फिर घिर आए बादल
भीगेंगा जब तन
मन फिर होगा पागल ।

-आनन्द.पाठक-

चन्द माहिये: 109/19

चंद माहिए : क़िस्त 109/19 


:1:

बदरा बरसै रिमझिम

आग लगाता है

तन में मद्धिम मद्धिम ।


:2:

जल प्लावन कर जाता

बादल जब फटता

मन अपना डर जाता ।


:3:

उड़ता तेरा आँचल

नील गगन में ज्यों

उड़ता रहता बादल ।


:4:

कुछ भी ना कहती हो

अन्दर ही अन्दर 

बस घुटती रहती हो ।


:5:

क्या तुम को सुनानी है

जैसे सबकी है

अपनी भी कहानी है ।


-आनन्द.पाठक-


शनिवार, 12 जुलाई 2025

चन्द माहिए 108/18 : सावन पर

 सावन आया --- चन्द माहिए सावन पे
क़िस्त:  108/18
:1:
शिव भक्तों के दम से 
गूँज रहीं राहें
जय भोले बम बम से ।
2
सावन में मन निर्मल
काँवड़िए निकले
ले ले कर पावन जल ।
:3:
सावन में पावन काम
काँवड़ ले जाना
भोले बाबा के धाम ।
:4:
जय जय बाबा भोले 
गूँज उठा मंदिर
 जब मिल कर सब बोले ।
:5:
लेकर अपना काँवर
आया हूँ  मैं भी
भोले बाबा के घर ।

-आनन्द.पाठक-


इन्ही माहिए को आ0 विनोद कुमार उप[ध्याय जी [ लखनऊ ] के स्वर में 
यहाँ सुने-
https://www.facebook.com/share/v/1M5r81jkdh/




कविता 031: एक आदमी सड़क पर

 [ स्व0] कवि धूमिल जी की प्रेरणा से और  क्षमा याचना सहित ]

कविता 031: एक आदमी सड़क पर---


एक आदमी सड़क पर
दूसरे आदमी को पीट रहा है।
एक तीसरा आदमी भी है
जो न पीट रहा है, न पिट रहा है
न रोक रहा है।
वह मोबाइल से *रील* बना रहा है चैन से।
मैं पूछता हूँ वह तीसरा आदमी कौन है?
समाज इस पर मौन है ।


-आनन्द.पाठक-



शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

चन्द माहिए 107/17

 चन्द माहिए : 107 /17

:1:

प्रवचन तो अच्छा है
लेकिन मन भी क्या
उतना ही सच्चा है ?

:2:
क्यों  फेर रहा माला
साफ़ ज़रा कर लें
मन पर जो पड़ा जाला

:3:
मन साध नहीं ्पाया
चंदन टीका ही
केवल तुझको भाया

:4:
कंठी टीका माला
दंड कमंडल भी
मन फिर भी है काला

:5:
दुनिया को सिखाते हो
भगवाधारी बन
खुद कब अपनाते हो ?

-आनन्द पाठक-

सोमवार, 7 जुलाई 2025

ग़ज़ल 442 [16-G) : आदमी में शौक़-ए-उल्फ़त --

 ग़ज़ल  442[16-जी] : आदमी में शौक़-ए-उलफ़त 

2122---2122---2122---212


आदमी में शौक़-ए-उल्फ़त और रहमत चाहिए
सोच में हो सादगी, दिल में दियानत चाहिए ।


साँस ले ले कर ही जीना ज़िंदगी काफी नहीं 

ज़िंदगी के रंग में कुछ और रंगत  चाहिए ।


अह्ल-ए-दुनिया आप की बातें सुनेगे  एक दिन

आप की आवाज़ में कुछ और ताक़त चाहिए ।



जब कि चेहरे पर तुम्हारे गर्द भी है दाग़ भी

सामने जब आईना , फिर क्या वज़ाहत चाहिए ।


कश्ती-ए-हस्ती हमारी और तूफ़ाँ सामने

ख़ौफ़ क्या, बस आप की नज़र-ए-इनायत चाहिए।



जानता हूँ ज़िंदगी की राह मुशकिल, पुरख़तर

आप की बस मेहरबानी ता कयामत  चाहिए ।


ढूँढता हर एक दिल ’आनन’ सहारा , हमनशीं

मौज-ए-दर्या को भी साहिल की कराबत चाहिए ।


-आनन्द.पाठक-





बुधवार, 2 जुलाई 2025

ग़ज़ल 441-[15-जी ]: उनको अना ग़ुरूर का ऐसा चढ़ा--

 ग़ज़ल 441[15-G] : 

221---2121---1221---212


उनको अना, गुरूर का ऐसा चढ़ा नशा

ख़ुद को वो मानने लगे हैं आजकल ख़ुदा ।


हर दौर के उरूज़ का हासिल यही रहा

परचम बुलंद था जो कभी खाक में मिला ।


रुकता नहीं है वक़्त किसी शख़्स के लिए

तुम कौन तीसमार हो औरों से जो जुदा ।


जिसकी क़लम बिकी हो, ज़ुबाँ भी बिकी हुई

सत्ता के सामने वो भला कब हुआ खड़ा ।


जो सामने सवाल है उसका न ज़िक्र है

बातें इधर उधर की वो कब से सुना रहा ।


क़ायम है ऎतिमाद तो क़ायम है राह-ओ-रब्त

वरना तो आदमी न किसी काम का हुआ ।



’आनन’ ज़रा तू सोच में रद्द-ओ-बदल तो कर

फिर देख ज़िंदगी  कभी  होती नहीं  सज़ा ।



-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 
उरूज़ = उत्त्थान, विकास

ऎतिमाद = विश्वास , भरोसा

राह-ओ-रब्त = मेल जोल, मेल मिलाप, दोस्ती




शनिवार, 28 जून 2025

ग़ज़ल 440 [14-G)] : एक मुद्दत से वह दुनिया से--

 ग़ज़ल 440 [ 14 जी] : एक मुद्दत से वह दुनिया से--


2122---2122---2122

एक मुद्दत से वो  दुनिया से ख़फ़ा है ।

  मन मुताबिक जब न उसको कुछ मिला है 


जख़्म दिल के कर रहे है हक़ बयानी

आदमी हालात से कितना लड़ा है ।


हारने या जीतने से है ज़ियादा

आप का ख़ुद हौसला कितना बड़ा है।


बाज कब आती हवाएँ साज़िशों से

पर चिराग़-ए-इश्क़ कब इन से डरा है।


आदमी की साज़िशो से साफ़ ज़ाहिर

आदमी अख़्लाक़ से कितना गिरा है ।


जोश हो, हिम्मत इरादा हो अगर तो

कौन सा है काम मुश्किल जो रुका है।


ज़िंदगी है इक गुहर नायाब ’आनन’

एक तुहफ़ा है , ख़ुदा ने की अता है ।


-आनन्द.पाठक-





गुरुवार, 19 जून 2025

ग़ज़ल 439 [ 13-G) : जो राहें ख़ुद बनाते हैं--

 ग़ज़ल 439 [13-G]


1222---1222---1222---1222


जो राहें ख़ुद बनाते हैं , उन्हें क्या खौफ़, आफ़त क्या

मुजस्सम ख़ुद विरासत हैं, उधारी की विरासत क्या ।


पले हों ’रेवड़ी’ पर जो, सदा ख़ैरात पर जीते

उन्हें तुम क्यों जगाते हों, करेंगे वो बग़ावत क्या ।


नज़र रहते हुए भी जो, बने कस्दन हैं नाबीना

उन्हें करना नहीं कुछ भी तो फिर शिकवा शिकायत क्या ।


रखूँ उम्मीद क्या उनसे, करेगा वह भला किसका

हवा का रुख़ न पहचाने करेगा वह सियासत क्या ।


मिले वह सामने खुल कर मिलाए हाथ भी हँस कर

नहीं साजिश रचेगा वो, कोई देगा जमानत क्या ।


अगर ना तरबियत सालिम, नहीं अख़्लाक़ ही साबित

बिना बुनियाद के होती कहीं पुख़्ता इमारत क्या ।


करूँ मैं बात क्या ’आनन’, नहीं तहजीब हो जिसमे

पता कुछ भी न हो जिसको, अदब क्या है शराफ़त क्या ।


-आनन्द.पाठक-


सोमवार, 16 जून 2025

अनुभूतियाँ 183/70

 अनुभूतियाँ 183/70

:1:

जीवन है तो सुख दुख भी है

राग-रंग भी, मिलन-जुदाई

प्रथम साँस से अन्त साँस तक

जीवन की पटकथा समाई ।


शुक्रवार, 30 मई 2025

गीत 091 : चंदन वन की शीतल मंद सुगंध हवाएँ

 गीत 091: चंदन वन की शीतल मंद सुगंध हवाएँ


चंदन वन की शीतल मंद सुगन्ध हवाएँ
वातायन तक आती हैं तो आने दो ।

        उपवन उपवन फूल खिलेंगे हर घर में
        सत्कर्मों सदभावों से जब सीचोंगे ।
        फिर बसंत हरियाली लेकर आएगा
        जब नफ़रत के बीज नहीं तुम बोओगे।

 
नील गगन में  मुक्त कंठ से सोन चिरैया
गीत प्रेम का गाती है तो गाने दो ।

        हर मन में इक प्यास अधूरी रहती है
        जीने को मिल जाता एक सहारा है ।
        आजीवन बेचैन रहा करता है मन 
        ढूँढा करता अपना एक किनारा है ।

मत रोको इन  चंचल बहती नदियों को तुम
सागर से मिलने को जाती, जाने दो ।

        आज नही तो कल मौसम बदलेगा ही
        सूरज की किरणे प्राची से  निकलेंगी 
        छँटना है दुख का अँधियारा, सत्त्य यही
        नई हवा से नई फ़िज़ाएँ बदलेंगी ।


आसमान को नापेंगे ज़ाँबाज परिंदे
उड़ने को तैयार, इन्हें उड़ जाने दो ।

-आनन्द.पाठक-

इस गीत को मेरे यू-ट्यूब्चनेल चैनेल आवाज़ का सफ़र में सुने--




मंगलवार, 27 मई 2025

-एक सूचना- My you Tube channels

  -एक सूचना-

मित्रो !

आप लोगों के आशीर्वाद और स्नेह से , मैने अपने यू-ट्यूब चैनेल बनाए हैं। अब तक आप लोगों ने इस मंच पर मेरी काफी रचनाएँ-जैसे गीत ग़ज़लमाहिए-दोहे-कविताएं और व्यंग्य -पढ़ीं और उत्साहवर्धन किया । अब इन्ही रचनाओं का स्वर पाठ, वाचन मेरे चैनेल पर सुनें और आशीर्वाद दें

चूँकि यह मेरे ’एकल और प्रथम प्रयास है-प्रोफ़ेसनलिज्म न मिले । इस प्रयास में बहुत सी कमियाँ भी होंगी ,आशा करता हूँ कि इसमे उत्त्तरोत्तर सुधार होता जाएगा । आप इसे सब्सक्राइब, लाइक और शेयर करें ।


आवाज़ का सफ़र

www.youtube.com/@33akp

इसमें मेरी काव्यात्मक रचनाऒं [गीत-ग़ज़ल-माहिए-कविताओ आदि] का स्वर पाठ होगा। आप लय-स्वर-सुर पर ध्यान न दीजिएगा-बस भाव पर  ध्यान दीजिएगा


मुखौटों की दुनिया 

www.youtube.com/@333akp

आप की शुभ कामनाओं का आकांक्षी--

सादर 

-आनन्द.पाठक-



शनिवार, 3 मई 2025

अनुभूतियाँ 182/69

 अनुभूतियाँ 182/69

:1:
नाम तुम्हारा ले कर कोई
ढोंगी बाबा भरमाता है ।
शायद उसको पता नहीं है
मेरा तुम से क्या नाता है ।

:2:
रात भले हो जितनी लम्बी
सूरज को फिर उगना ही है।
आशा की किरणें उतरेंगी
घना अँधेरा छँटना ही है ।

:3:
युद्ध स्वयं ही लड़ना पड़ता
अपने बल पर, अपने दम पर
जीत उसी को हासिल होती
जो रहता है सत्य, धरम पर ।

:4:
जिस दिन तुम से बात न होती
वो दिन फिर बेगाना लगता 
मन खोया खोया सा रहता
अपना घर अनजाना लगता ।

-आनन्द.पाठक-


मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

अनुभूतियाँ 181/68

 अनुभूतियाँ 181/68


721

बार बार क्या कहना है अब

समझाना तुमको मुश्किल है

अपनी ज़िद में दिल ये तुम्हारा

सच सुनने के नाक़ाबिल है ।

722

चाँद सितारे दर्या झरना

कहते सबमे झलक उसी की

जिस दिन दिल ने मान लिया तो

फिर न सुनेगा बात किसी की

723

कौन यहाँ है जो न दुखी है

किसके अपने नहीं मसाइल

आशा की जब एक किरन हो

दूर कहाँ फिर रहता साहिल

724

रोज रोज की किचकिच किचकिच

कर देते हैं रिश्ते बोझिल

खुशबू फैले कोने कोने

समझदार जब होते दो दिल


-आनन्द पाठक-

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

ग़ज़ल 438 [12- G] : हमारी दास्ताँ में ही--

 ग़ज़ल 438 [ 12-]

1222---1222---1222---122


हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है

हमारी ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।


गुजरने को गुज़र जाता समय चाहे भी जैसा हो

मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।


सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से

अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।


मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में

तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।


जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो

यहाँ पर कौन है ऐसा जो उम्र-ए-जाविदाँ है ।


सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी 

मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।


जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’

तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।


-आनन्द पाठक-

कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है


रविवार, 30 मार्च 2025

ग़ज़ल 437S [11-G] : यार मेरा कहीं बेवफ़ा तो नहीं

 ग़ज़ल 437 [11-G]

212---212---212---212


यार मेरा कहीं  बेवफ़ा तो नहीं

 ऐसा मुझको अभी तक लगा तो नहीं


कत्ल मेरा हुआ, जाने कैसे किया ,

हाथ में उसके ख़ंज़र दिखा तो नहीं


बेरुख़ी, बेनियाज़ी, तुम्हारी अदा

ये मुहब्बत है कोई सज़ा तो नहीं


तुम को क्या हो गया, क्यूँ खफा हो गई

मैने तुम से अभी कुछ कहा तो नहीं


रंग चेहरे का उड़ने लगा क्यों अभी 

राज़ अबतक तुम्हारा खुला तो नहीं


लाख कोशिश तुम्हारी शुरू से रही

सच दबा ही रहे, पर दबा तो नहीं ।


वक़्त सुनता है ’आनन’ किसी की कहाँ

जैसा चाहा था तुमने, हुआ तो नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को आ0 विनोद कुमार उपाध्याय जी [ लखनऊ] की आवाज़ में सुनें

यहाँ सुनें

https://www.facebook.com/share/v/1JErAJexTa/

बुधवार, 26 मार्च 2025

ग़ज़ल् 436 [10-G] : उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी

 ग़ज़ल् 436 [10-]

212---212---212---212--


उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी

क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।


तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते

राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?


दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा

कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की


लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ

क्या बिना आग का यह धुआँ है सही


क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे

रोटियाँ ना सिकीं, व्यर्थ है ’लीडरी’


जिसको होता किसी पर भरोसा नहीं

खुद के साए से डरता रहा है वही ।


हम सफर जब नहीं ,हम सुखन भी नहीं

फिर ये 'आनन' है किस काम की जिंदगी

-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 180/67

 अनुभूतियाँ 180/67

717
मुझे ग़लत ही समझा सबने
कभी किसी ने दिया साथ क्या ?
तुमने भी गर समझा ऐसा
तो फिर इसमें नई बात क्या ।

718
साथ निभाने वाली बातें
मैं कब भूला, तुम ही भूली ।
याद दिला कर भी क्या होगा
तुम्हें नही जब करनी पूरी ।

719
कौन तुम्हारे साथ खड़ा था
किसने बना रखी थी दूरी ।
उन्हे परखना, उन्हें समझना
तुमने समझा नही ज़रूरी

720
आँखों के सपनों की ख़ातिर
गिरते, उठते, थकते, चलते
और ज़िंदगी कट जाती है
सुख दुख के साए में पलते

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 25 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 179/66

 अनुभूतियाँ 179/66

713

सत्य कहाँ तक झुठलाओगे

छुपता नहीं, न दब पाएगा ।

ख़ुद को धोखा कब तक दोगे

झूठ कहाँ तक चल पाएगा ।


714

सुख दुख चलते साथ निरन्तर

जबतक जीवन एक सफ़र है

जितना उलझन मन के बाहर

अधिक कहीं मन के अंदर है।


715

वक़्त गुज़रने को गुज़रेगा

भला बुरा या चाहे जैसा

ज़ोर नहीं जो अगर तुम्हारा

ढलना होगा तुमको वैसा


716

क्या करना है तुमको सुन कर

कैसी गुज़र रही है मुझ पर

शायद तुमको खुशी न होगी
ज़िंदा रहता हूँ मर मर कर


-आनन्द.पाठक-


इसी अनुभूतियों कॊ आ0  विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] के स्वर में यहाँ सुनें और आनन्द उठाएँ

https://www.facebook.com/share/v/1CAa5Jw1Ra/