सोमवार, 29 दिसंबर 2025

ग़ज़ल 457 [31-जी] : ख़्वाब में जब से देखा है --

 ग़ज़ल  457 [31-G]
212---212---212---212

ख़्वाब में जब से देखा है अक्स-ए-क़मर
जुस्तजू बस उसी का रहा उम्र भर ।

दिल जो होने लगे आरिफ़ाना अगर
तो समझना कि होने को है इक सहर ।

ख़ुशनुमा एक एहसास दिल में तो है 
वह भले ही न आता कहीं हो नज़र ।

जब तलक लौ लगी थी नहीं आप से
मन भटकता रहा बस इधर से उधर ।

बात कैसे सुनोगे, वह क्या कह रहा
दिल पे ग़ालिब तुम्हारे है जब शोर-ओ-सर ।

यूँ ही सजदे में रहने से क्या फ़ायदा
सर तो सजदे में है और तू बाख़बर ।

आख़िरत से तू ’आनन’ परेशान क्यों
राह-ए-हक़ में अगर है तो क्या ख़ौफ़ डर ।

-आनन्द पाठक ’आनन’-

अक्स-ए-क़मर = चाँद की छवि
ग़ालिब   = प्रभाव
शोर-ओ-सर = कोलाहल
आख़िरत से = परलोक से

शनिवार, 27 दिसंबर 2025

गीत 093 : आँकड़ो का खेल जारी है--

 एक नवगीत 

2122---2122--2 =16

आँकड़ों का खेल जारी है, सच दबा है, झूठ भारी है ।

भीड़ देखी हो गए गदगद

तालियों की भीख माँगे हैं ।

रोशनी चुभती उन्हे हरदम

पास उनके सौ बहाने हैं ।

भाषणों में नौकरी तो है, अस्ल में बेरोजगारी है ।

आँकड़ों का खेल जारी है ------


हाथ जोड़े आ रहे है हो जो

सर झुका कर ’वोट’ माँगोगे ।

सैकड़ों सपने दिखा कर तुम’

बाद सब कुछ भूल जाओगे ।

वायदों पर वायदे करना, भूलना आदत तुम्हारी है ।

आँकड़ों का खेल जारी है ------


मुफ़्त की है रेवड़ी सबको,

एक धेला भी नहीं देना ।

बात लाखों की, हज़ारों की

बस उन्हे तो ’वोट’ है लेना।

बात में जादूगरी उनकी, सोच में भी होशियारी है ।

आँकड़ों का खेल जारी है ------


-आनन्द.पाठक ’आनन’-


शुक्रवार, 26 दिसंबर 2025

ग़ज़ल 456[30-जी] अब न मिलता कोई शख़्स है

 

ग़ज़ल 456 [30-जी] : अब न मिलता कोई शख़्स है--
212---212---212---212


अब न मिलता कोई शख़्स है मोतबर
जिस पे कर लूँ भरोसा मैं दिल खोल कर

तुमको खुशबू मिले जो कभी राह में
सोचना यह थी उनकी कभी रहगुज़र

तुम मिले क्या मुझे दिल ये रोशन हुआ
इक अंँधेरे में जैसे हुई हो सहर  ।

वक़्त ने क्या न ढाए हैं मुझ पर सितम
फिर भी बिखरा नहीं हूँ अभी टूट कर

तेरी चाहत जिधर ले के चल तू मुझे
तू ही रस्ता दिखा ऎ मेरे  राहबर ।

ढूँढता ही रहा , वो न हासिल हुआ
ख़्वाब में जो था चेहरा रहा उम्र भर

तेरे सजदे में होने से क्या फायदा
सर तो सजदे में  है और तू बाखबर ?

चल पड़े हो जो ’आनन’ रह-ए-इश्क़ में
कू-ए-जानाँ से आना नहीं लौट कर ।

-आनन्द पाठक ’आनन’

मोतबर = विश्वसनीय, जिस पर एतबार किया जा सके

कू-ए-जानाँ = प्रेयसी की गली 

बुधवार, 24 दिसंबर 2025

अनुभूतियाँ 185/72

 अनुभूतियाँ 185/72

;1;
 ऐसे भी कुछ लोग यहाँ है ,
धन के मद में , सदा अहम में ।
व्यर्थ दिखावा करते रहते ,
जीते रहते एक भरम में ।

:2:
सिर्फ़ दिखावा, झूठी आभा
ज़हर घुला मधुरिम बानी में
समझ रहे हैं हम भी कुछ कुछ
क्या तुम हो, कितने पानी में ।

:3:
तुमने देखी होगी दुनिया
 मैने भी है  दुनिया देखी
सत्य हमेशा सच रहता है
भले बघारो जितना शेखी

:4:
अपने ही मुँह मिठ्ठू बनना
आत्म मुग्धता में ही रहना
पता नहीं है शायद तुमको
कूएँ से बाहर भी दुनिया ।

-आनन्द.पाठक ’आनन’-

सोमवार, 22 दिसंबर 2025

अभी संभावना है---पुस्तक समीक्षा --समीक्षक श्री राम अवध विश्वकर्मा





 [ नोट ;-समीक्षक आ0 राम अवध विश्वकर्मा जी के बारे में ----

ग्वालियर निवासी आ0 रामअवध विश्वकर्मा जी स्वयं एक साहित्यकार ,ग़ज़लकार है, एक समीक्षक भी हैं। आप की कई साहित्यिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं जैसे-मेहमान भी लटकते है-चाकू खटकेदार है अब--इसकी टोपी उसके सर-तंग आ गया सूरज--आदि आदि।आप ने गद्य व्यंग्य - मुफ़्तख़ोरी ज़िंदाबाद जो काफी चर्चित रही।
 आप की सबसे चर्चित पुस्तक -ज़दीद रुबाईयात [ रुबाई संग्रह] है। चर्चित इसलिए कि आजकल ग़ज़ल के ज़माने में रुबाइयाँ कम लिखी  पढ़ी या सुनी जा रही हैं ।
हाल में  ही आप की कृतियों पर शिवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में -: राम अवध विश्वकर्मा की ग़ज़लों में व्यंग्य;- के संदर्भ में शोधकार्य सम्पन्न  हुआ है।-------आनन्द.पाठक ’आनन’-
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पुस्तक समीक्षा--अभी सम्भावना है [ आनन्द पाठक’आनन’]
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उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिला में जन्मे श्री आनंद पाठक उपनाम 'आनन' से गीत गजल माहिया दोहे मुक्तक अनुभूतियां व्यंग्य  लेखन बड़ी कुशलता से लिखते हैं। यदा कदा विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में एवं साझा संकलन में आपकी रचनाएं प्रकाशित भी होती रहती हैं। इन सब के अलावा विभिन्न सोशल मीडिया साहित्यिक मंचों पर आप सक्रिय रहते हैं। आपके लेख अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं जो रुचिकर एवं ग्राह्य  होते हैं। आपका एक महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय कार्य  www.arooz.co.in वेव साइट जिसमें  ग़ज़ल एवं रुबाई आदि के व्याकरण पर विस्तृत चर्चा सरल भाषा में की गई है।  मेरा मानना है कि इस  वेवसाइट पर अरूज़ पढ़ने के बाद ग़ज़ल लिखने वालों को ग़ज़ल की बारीकियां सीखने के लिए अन्यत्र भटकने की आवश्यकता महसूस नहीं होगी।  भारत संचार निगम लिमिटेड से मुख्य अभियंता [सिविल]  पद से सेवानिवृत होने के बावजूद आपके स्वभाव में नम्रता, सरलता होना आपकी विशेषता है। अब तक आपकी 12 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। 'अभी संभावना है' सन 2007 में प्रकाशित पुस्तक गीत गजल संग्रह की यह संशोधित आवृत्ति है। श्री आनंद पाठक जी ने बड़े उदार मन से यह स्वीकार किया है की 2007 में प्रकाशित इस पुस्तक में व्याकरण की दृष्टि से बहुत सी गलतियां थीं जिसे उन्होंने सुधार कर पुनः प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में 66 ग़ज़लें और 21 गीत हैं।
भूख, गरीबी, संघर्ष, जुल्म,दर्द  एवं राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक विद्रूपताओं के प्रति निर्भीकता से अपनी बात श्री आनन्द पाठक 'आनन' जी  ग़ज़ल एवं गीत के माध्यम से पाठक के सामने रखते हैं।
पुस्तक 'अभी सम्भावना है' अदम्य जिजीविषा (जीने की इच्छा), आशावाद और निरंतर संघर्ष का प्रतीक हैं। कवि इस पुस्तक  के माध्यम से जीवन के प्रति एक जुझारू दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहा है जो इस पुस्तक की पहली ग़ज़ल का प्रथम  शेर  इसकी पुष्टि करता है।

'कीजिए मत रोशनी मद्धम, अभी संभावना है,
कुछ अभी बाकी सफ़र है, तीरगी' से सामना है।'

मजलूमों में बहुत ताकत होती है। अगर वह अपनी पर आ जाये तो वह  जुल्म करने वाले तानाशाह को उसकी औकात दिखा सकता है। उसके महल की ईंट से ईंट बजा सकता है। इस सम्बन्ध में उनका एक शेर देखें।

'भूखे मजलूमों की ताकत शायद तुमने जाना न कभी
बुनियाद  हिलाते महलों के लम्हात नहीं देखे होंगे'


काजल की कोठरी से बेदाग बचकर निकल आना बहुत मुश्किल होता है। इंकिलाब के हिमायती के रथ का पहिया किस प्रकार कुर्सी के चक्कर में फंसकर स्वार्थ के दलदल में धॅंस जाता है उनका यह शेर बख़ूबी बयान करता है।

'फ़क़त  कुर्सी निग़ाहों में जहां था स्वार्थ का दलदल
तुम्हारा इंक़िलाबी रथ वहीं अब तक धॅंसा होगा'


सत्ता लोलुप राजनेताओं का कोई  ईमान नहीं होता है। वे सत्ता के लोभ में अपने सिद्धांत को त्याग कर अपने आप को बेंच देते हैं। ऐसे राजनेताओं पर कटाक्ष करता हुआ 'आनन' जी का यह शेर आज भी ताजा लगता है।

'जिसको कुर्सी अज़ीज़ होती है
उसको बिकते यहां वहां देखा'


धार्मिक पाखंडियों पर एक कटाक्ष देखें-

'राम कथा' कहते फिरते थे गांव गली में वाचक बन
'दिल्ली' जाकर ही जाने क्यों 'रावण' की पहचान बने

टेलीविज़न चैनल पर जो बहस जनता  के आम मुद्दों पर होनी चाहिए थी वह न होकर निरर्थक बातों पर होती रहती है इसी बात से दुखी होकर कवि कहते हैं -

'बहस करनी अगर हो तो करो मुफ़लिस की रोटी पर
न टीवी पर करो बस बैठकर बेकार की बातें'


उनके गीत भी मन को छू लेने वाले हैं। इस पुस्तक  एक गीत
'मत छूना प्रिय मुझको अपने स्नेहिल हाथों से' का निम्नलिखित बन्द
वैराग्य और अत्यंत दुख के मिश्रण से भरा हुआ  है। इसमें उस स्थिति का वर्णन है जहाँ इंसान भौतिक दुनिया की निस्सारता को समझ चुका है और अपने भीतर के घावों के साथ अकेला रहना चाहता है। यह कविता संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है।

तन का पिंजरा रह जाएगा उड़ जायेगी सोन चिरैया,
खाली पिंजरा दो कौडी का क्या सोना क्या चांदी भैया!
इतनी ठेस लगी है मन में इतने खोंच लगे जीवन में,
सिलने की कोशिश मत करना तार-तार मैं हो जाऊँगी।
पोर-पोर तक दर्द भरा है....

एक अन्य गीत की  इन पंक्तियों में एक ऐसी स्थिति का वर्णन किया है जहाँ समर्पण और प्रेम की बार-बार अनदेखी की गई है।
 जब प्रेम और स्वागत (वन्दनवार) का कोई मूल्य ही न बचा हो, तो दिखावे की सजावट करना निरर्थक है।
आत्मीयता, मनुहार (अनुनय-विनय) और स्नेह भरे आमंत्रण को बार-बार ठुकराया गया है।
जीवन भावनाओं के बजाय केवल समझौतों और 'शर्तों की भाषा' में उलझकर रह गया है, जहाँ निस्वार्थ प्रेम के लिए कोई स्थान नहीं है।
जब जीवन में केवल दुखों और नकारात्मकता (अंधियारों) का बोलबाला हो, तो वहाँ आशा की किरण (ज्योति पुंज) की बात करना भी अर्थहीन प्रतीत होता है।

जब मेरी देहरी को ठुकरा कर ही जाना,
फिर बोलो वन्दनवार सजा कर क्या होगा?

आँखों के नेह निमन्त्रण की प्रत्याशा में
आँचल के शीतल छाँवों की अभिलाषा में
हर बार गई ठुकराई मेरी मनुहारें-
हर बार जिन्दगी कटी शर्त की भाषा में
जब अंधियारों की ही केवल सुनवाई हो
फिर ज्योति पुंज  की बात सुना कर क्या होगा


इस प्रकार पुस्तक की सभी ग़ज़लें व गीत पठनीय हैं।
पुस्तक का नाम - अभी संभावना है
प्रकाशक- अयन  प्रकाशन उत्तम नगर नई दिल्ली
कवि- आनंद पाठक 'आनन'
मो.   8800927181
मूल्य- ₹ 360/-हार्डबाउन्ड

समीक्षक - राम अवध विश्वकर्मा
मो. 9479328400

बुधवार, 17 दिसंबर 2025

ग़ज़ल 455[29-जी] : हज़ारों बार बातें हो चुकी

 ग़ज़ल 455[29-जी] : हज़ारों बार बातें हो चुकी-

1222---1222---1222---1222

हज़ारों बार बातें हो चुकीं, क्या उनको दुहराना ।

मसाइल हो चुके जो हल उन्हे क्यों फिर से उलझाना ।


तुम्हें शौक़-ए-अदावत है , मुझे शौक़-ए-मुहब्बत है

वफ़ा भी चीज कोई है , कभी तुमने नहीं माना ।


निगाहें क्या झुकीं पलभर, लबों पर क्या हुई ज़ुम्बिश

ये दुनिया भर की सरगोशी बना देती है अफ़साना ।


तुम्हारा मुंतज़िर हूँ मैं, तुम्हारी रहगुज़र में हूँ 

ख़याल-ओ-ख़्वाब में तुम हो, नहीं बच कर निकल जाना ।



पस-ए-पर्दा रहोगे तुम पहेली बन के यूँ कबतक

इधर बेचैन हैं आँखे ,ज़रा तुम सामने आना ।


सिफ़त क्या है मुहब्बत की, नहीं मालूम क्या तुमको ?

चले इस राह पर जब हो, नहीं अब लौट कर जाना ।


हवाओं के मुक़ाबिल तुम जलाते हो चिराग़ ’आनन’

बहुत मुशकिल हुआ करता चिराग़ों को बचा पाना ।


-आनन्द पाठक ’आनन’-

मसाइल = मसले, समस्यायें

मुंतज़िर = प्रतीक्षक
पस-ए-पर्दा = पर्दे के पीछे

सिफ़त = विशेष गुण

मंगलवार, 16 दिसंबर 2025

ग़ज़॒ल 454 [28-जी] बदज़ुबानी पर उतर आने लगा वो--


ग़ज़ल 454 [28-जी] : बदज़ुबानी पर उतर आने लगा वो--

  2122---2122---2122

बदज़ुबानी पर उतर आने लगा वो

पस्ती.ए.अख़्लाक़ दिखलाने लगा वो


जब से उसने छोड़ दी अपनी शराफ़त 

और भी नंगा नज़र आने लगा वो ।


खुद लिखा अपना क़सीदा ख़ुद पढ़ा जब

बेसबब खुद पर ही इतराने लगा वो ।


ख़ुद गरज़ था या कि कुछ मज़बूरियाँ थीं

सत्य की हर बात झुठलाने लगा वो ।


हाथ में उसके बग़ावत की क़लम है

गीत चारण की तरह गाने लगा वो ।


जब दलीलें थीं नहीं कुछ पास उसके

बेसबब मुझ पर ही चिल्लाने लगा वो ।


जब गिला शिकवा किए हम उस से ’आनन’

बारहा झूठी कसम खाने लगा वो ।


-आनन्द.पाठक ’आनन’

पस्ती ए अख़लाक़ = चारित्रिक पतन

रविवार, 14 दिसंबर 2025

ग़ज़ल 453 [ 27-जी] : नहीं छुपती छुपाने से

 ग़ज़ल 453 [ 27-जी] : नहीं छुपती मुहब्बत है जमाने में
1222---1222---1222---1222-

नहीं छुपती मुहब्बत है जमाने में छुपाने से  ।
बयां सब राज़ हो जाते निगाहों के झुकाने से ॥

समझ जाती है दुनिया यह, सही क्या है ग़लत क्या है
निगाहों की बयानी से, ज़ुबाँ के लड़खड़ाने से ।

हवा में गूँजती रहती, मुहब्बत के हैं अफ़साने
नहीं मरती कभी यादें किसी के दूर जाने से ।

मनाज़िल और भी तो हैं नहीं बस एक ही मंज़िल
उमीदे जाग जाती हैं ज़रा हिम्मत जगाने से ।

निकाब-ए-रुख उठा कर वह कभी आएँगे इस जानिब
इसी उम्मीद में बैठा हुआ हूँ, इक ज़माने से ।

मरासिम अब नहीं वैसे कि जैसे थे कभी पहले
कि दिल गुलज़ार था अपना तुम्हारे आने जाने से ।

अगर दिल पाक हो ’आनन’ अना की क़ैद ना हो तो
नहीं कुछ दूसरा बढ़ कर मुहब्बत के ख़ज़ाने से।

-आनन्द.पाठक ’आनन’--



सोमवार, 8 दिसंबर 2025

ग़ज़ल 452[26-G] : भरोसा तोड़ कर वह

 ग़ज़ल 452 : भरोसा तोड़ कर

1222---1222---1222


भरोसा तोड़ कर वह मुस्कराता है

कि जैसे दिल पे वह ख़ंज़र चलाता है ।


नहीं रहता वो अपने क़ौल पर क़ायम

किसी को कुछ, किसी को कुछ बताता है।


न जाने सोचता रहता वो क्या हरदम

हवा में बारहा लिखता मिटाता है ।


मुहब्बत का नशा उसको चढ़ा ऐसा

वो अपने आप को ही भूल जाता है ।


न लौटेंगे गए जो छोड़ कर तुझको

तो फिर उम्मीद क्या उनसे लगाता है ।


परिंदे लौट कर अब फिर न आएँगे

इसी ग़म में शजर फिर टूट जाता है ।


असर होना नहीं जब उस पे कुछ ’आनन’

अबस तू जख़्म अपना क्यों दिखाता है ।


-आनन्द.पाठक ’आनन’-


अबस = व्यर्थ



रविवार, 7 दिसंबर 2025

ग़ज़ल 451 [25-G ] : ज़ुबाँ देकर किसी को--

 ग़ज़ल 451 [ 25-G ] ज़ुबाँ दे कर किसी को --

1222---1222-----1222-

ज़ुबाँ देकर किसी को, फिर मुकर जाना
मगर उसने इसे अपना हुनर माना ।

मुहब्बत में फ़ना की बात करता है
न आता इश्क़ में जिसको तड़प जाना ।

पढ़ा वो भी जो लिख्खा था नहीं तुमने ,
उभर आया था ख़ुद ही हर्फ़-ए-अफ़साना ।

तुम्हारी बेनियाज़ी बेरुखी का  भी--
नहीं उनका कभी मैने बुरा माना ।

तलाश-ए-हक़ में मुद्दत से भटकता हूँ
जो अंदर है उसे अबतक न पहचाना ।

तुम्हारी बात भी सुन लेंगे ऎ ज़ाहिद!
अभी चलते हैं दोनों साथ मयख़ाना ।

यही इक आरज़ू है आख़िरी ’आनन’
निकलता दम हो जब मेरा, चले आना ।

-आनन्द.पाठक ’आनन’-


सोमवार, 1 दिसंबर 2025

ग़ज़ल 450 [ 24-G] : जिधर ज़र है, तुम्हे तो बस--

 

ग़ज़ल 450 [ 24-जी] : जिधर ज़र है, तुम्हे तो बस--

1222---1222---1222

जिधर ज़र है,  तुम्हें तो बस उधर जाना
कि अपना क्या, है अपना दिल फ़क़ीराना ।

बदलते लोग कुछ ऐसे ज़माने में
कि जैसे रंग गिरगिट का बदल जाना ।

करें क्या बात उनसे दोस्ती का हम
जिन्हे आता नहीं रिश्ते निभा पाना

कहानी एक ही जैसी सभी की है ,
करोगे क्या मेरा सुनकर भी अफ़साना ।

गुज़र जाएगी अपनी मुफ़लिसी इक दिन
किसी के सामने क्या हाथ फैलाना ।

कभी है ज़िंदगी में शादमानी तो 
कभी ग़म से मेरा रहता है याराना ।

यहीं  है राह-ए- मयख़ाना भी ,मसजिद भी 
तुम्ही अब तय करो ’आनन’ किधर जाना ।

-आनन्द. पाठक ’आनन’-



रविवार, 23 नवंबर 2025

ग़ज़ल 449[23-G) : ग़रज़ थी उनकी --

 ग़ज़ल 449[23-जी] :  ग़रज़ थी उनकी --

1212---1122---1212---22

ग़रज़ थी उनकी, उन्हे जब मेरी ज़रूरत थी
हर एक बात में उनकी, भरी  हलावत थी ।

चलो कि लौट चलें फिर से अपनी दुनिया में
जहाँ सुकून था, ईमान था, मुहब्बत थी ।

झुका के सर जो हुकूमत के साथ बैठा है
नफ़स नफ़स में भरी कल तलक बग़ावत थी।

मिला दिया है ज़माने ने ख़ाक में उसको
सुना है उसको भी सच बोलने की आदत थी ।

वही हुए हैं ख़फ़ा, दूर बेसबब मुझसे
जो हम ख़याल थे, जिनसे मेरी क़राबत थी।

नई हवा का असर, वो ज़ुबान से पलटे
ज़ुबान जिनकी कभी लाज़िमी जमानत   थी।

तुम्हारे दौर में इनसानियत कहाँ ’आनन’
वो दौर और था, लोगों में जब शराफ़त थी ।

-आनन्द.पाठक ’आनन’



शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

अनुभूतियाँ 184/71

 अनुभूतियाँ 184/71

:1:
माली अगर सँवारे गुलशन
प्रेम भाव से मनोयोग से ।
ख़ुशबू फ़ैले दूर दूर तक
डाली डाली के सुयोग से।

:2:
बदले कितने रूप शब्द ने
तत्सम से लेकर तदभव तक
कितने क्रम से गुज़रा करतीं
जड़ी बूटियाँ ज्यों आसव तक ॥

3
सबका अपना अपना जीवन
सुख दुख सबके अपने अपने
सबकी अपनी अपनी मंजिल
कुछ हासिल कुछ टूटे सपने

4
जो वह कह दे सत्य वही बस
भरा हुआ यह उसके मन में
आँखे बंद किया रहता है
नहीं देखता वातायन में

-आनन्द.पाठक ’आनन’-

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल 448 [22-G] : तुम्हारे झूठ का हम ऎतबार क्या करते--

 ग़ज़ल 448 [22-जी] : तुम्हारे झूठ का हम ऎतबार क्या करते--

1212---1122---1212---22

तुम्हारे झूठ का हम ऐतबार क्या करते

कहोगे सच न जो तुम, इन्तज़ार क्या करते।


 हमारी बात न सुनना, न दर्द ही सुनना ,

गुहार आप से हम बार बार क्या करते।


ज़ुबान दे के भी तुमको मुकर ही जाना है

तुम्ही बता दो कि तुमसे क़रार क्या करते।


वो साज़िशों में ही दिन रात मुब्तिला रहता,

बना के अपना उसे राज़दार क्या करते ।


हज़ार बार बताए उन्हें न वो समझे ,

न उनको ख़ुद पे रहा इख्तियार क्या करते।


लगा के बैठ गए दाग़ खुद ही दामन पर

यही खयाल चुभा बार बार, क्या करते ।


मक़ाम सब का यहाँ एक ही है जब 'आनन'

दिल.ए.ग़रीब को हम सोगवार क्या करते ।

-आनन्द पाठक ’आनन’






रविवार, 19 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल 447 [21-जी] : बाग़ मेरा न यूँ लुटा होता

 ग़ज़ल 447[21-जी] : बाग़ मेरा यूँ न लुटा होता

2122---1212---22

बाग़ मेरा न यूँ लुटा होता

बाग़बाँ जो जगा रहा होता ।


हाल ग़ैरों से ही सुना तुमने ,

हाल-ए-दिल मुझसे कुछ सुना होता ।


सर उठा कर जो हम नहीं चलते

सर हमारा कटा नहीं होता ।


राह तेरी अलग रही होती

अपनी शर्तों पे जो जिया होता।


द्वार दिल का जो तुम खुला रखते

लौट कर वह नहीं गया होता ।


वक़्त भरता नहीं अगर मेरा

जख़्म-ए-दिल अब तलक हरा होता।



हुस्न और इश्क़ ग़र न हो ’आनन’

ज़िंदगी का जवाज़ क्या होता ?


-आनन्द.पाठक ’आनन’-

जवाज़ = औचित्य




रविवार, 12 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल 446 [ 20- G] : लोग अपने आप पर इतरा रहे हैं

 ग़ज़ल 446[ 20-जी] : लोग अपने आप पर


2122---2122---2122

लोग अपने आप पर इतरा रहे हैं
एक झूठी शान पर इठला रहे  हैं ।

उम्र भर दरबार में जो सर झुकाए,
मान क्या, सम्मान क्या, समझा रहे हैं ।

जो जुगाड़ी तन्त्र से पहुँचें यहाँ तक
ठोक सीना वो हुनर बतला रहे हैं ।

ख़ुदसिताई का लगा जब रोग उनको
इक ’सनद’ सौ-सौ जगह चिपका रहे हैं।

मजहबी दीवार जिनको तोड़ना था 
नफ़रतें हर शहर में फैला रहे हैं ।

यह जहालत है, हिमाकत है कि जुरअत
दम फ़रेबी का वो भरते जा रहे हैं ।

हैफ़ ! उनको क्या कहें अब और ’आनन’
रोशनी को तीरगी बतला रहे हैं ।

-आनन्द पाठक ’आनन’

हैफ़ = अफ़सोस


शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

ग़ज़ल 445 [19-G] : जिन्हे कुछ न करना

ग़ज़ल 445 [19-जी]: जिन्हे कुछ न करना 

122---122---122---122

जिन्हें कुछ न करना, न दुख ही जताना
ग़म.ए.दिल फिर अपना उन्हें क्या सुनाना

अँधेरों की ही वह हिमायत है करता
कभी रोशनी के  म'आनी न जाना

जिसे सरफिरा कह के ख़ारिज़ किया है
बदल देगा इक दिन वही यह जमाना

वो कहता है कुछ और कुछ सोचता है
पलट जाने का वह खिलाड़ी पुराना ।

वो परचम लिए झूठ का चल रहा है
वही चंद बेजान नारे लगाना ।

सियासत में उसको सभी लगता जायज़
लहू हो बहाना कि बस्ती जलाना ।

तकारीर उनकी तो कुछ और 'आनन'
हक़ीक़त में उनको अमल में न लाना ।

-आनन-

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

ग़जल 444 [18-G] : रोज़ सपने नया दिखाता है

ग़ज़ल 444 [ 18-जी: " रोज़ सपने नया दिखाता है


2122  --1212--22

रोज़ सपनें नए दिखाता है
जाने क्या क्या हमें बताता है

यह हुनर है कमाल है उसका
वो हवा में महल बनाता है

आग-सा वह बयान दे दे कर
बारहा वह हमें डराता है ।

जब तलक 'वोट' की ज़रूरत है
दर पे आकर वह सर झुकाता है

छोड़िए बात क्या करें उसकी
खु़द की गैरत जो बेच खाता है

साज़िशों मे रहा मुलव्वस वह
खुद को मासूम-सा दिखाता है

खुद गरज हो गया है वो, 'आनन'
खुद से आगे न देख पाता है ।

-आनन-

सोमवार, 22 सितंबर 2025

अभी संभावना है --एक स्पष्टीकरण --रिपोर्ताज


 

[ मित्रो ! पिछली पोस्ट में मैने लिखा था कि इस संस्करण को मैं द्वितीय संस्करण का नाम नहीं दे रहा हूँ। क्यों नहीं दे रहा हूँ, इसका स्पष्टीकरण इस भूमिका में कर दिया हूँ।आप भी पढ़ें।]

 

अभी संभावना है -- ग़ज़ल संग्रह की भूमिका से--

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मैं स्वीकार करता हूँ ------

 

अभी संभावना है- [ गीत ग़ज़ल संग्रह] की यह संशोधित आवृति आप के हाथों में है। मैं इसे द्वितीय संस्करण का नाम नही दे रहा हूँ अपितु यह पहली आवॄति की पुनरावृति या अधिक से अधिक इसे परिष्कॄत, परिवर्तित, परिशोधित या परिवर्धित रूप कह सकते हैं। आप के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मै ऎसा क्यों कह रहा हूँ या फिर इस आवृति की आवश्यकता ही क्या थी ?

मेरी पहली पुस्तक –शरणम श्रीमती जी-[ व्यंग्य संग्रह] थी जो सन 2005 में प्रकाशित हुई थी। ठीक उसके बाद मेरी दूसरी पुस्तक- अभी संभावना है—[गज़ल गीत संग्रह] थी जो सन 2007 में प्रकाशित हुई थी और वह मेरा प्रथम ग़ज़ल संग्रह था, जिसमें मेरी कुल 68 ग़ज़लें, 21 गीत संग्रहित थे।

17-18 साल बाद, आज जब मैं मुड़ कर देखता हूँ तो मैं यह निस्संकोच स्वीकार करता हूँ –उसमें ग़ज़ल कहाँ थी ? शे’रियत कहाँ थी ,ग़ज़लियत कहाँ थी, तग़ज़्ज़ुल कहाँ था? बस नाम मात्र की ’तथाकथित’ कुछ ग़ज़लनुमा चीज़ थी मगर वो ग़ज़ल न थी। न क़ाफ़िया, न रदीफ़, न बह्र, न वज़न, न अर्कान, न अरूज़ । बस कुछ जुमले, कुछ अधकचरी तुकबंदी-सी कोई चीज़ थी जिन्हें उन दिनों मैं ग़ज़ल समझता था। उस वक़्त मुझे ये सब इस्तेलाहात [परिभाषाएँ] मालूम न थे। इधर उधर से कुछ पढ़ कर, कुछ लोगो से सुन सुना कर तुकबंदिया करने लगा था। वह एक मात्र बाल सुलभ-प्रयास था, न ग़ज़लियत, न तगज़्ज़ुल, न शे’रियत। यह बात मैने पहली आवृति में खुले मन से स्वीकार भी किया और लिखा भी था ।

मुझे आज भी यह सब स्वीकार करने में रंच मात्र भी संकोच नहीं। कारण उर्दू मेरी मादरी ज़ुबान नहीं। वक्त बीतता गया । अनुभव होता गया। मैं अन्य विधाओं जैसे व्यंग्य, माहिया, दोहा, गीत अनुभूतियां, मुक्तक, कविता आदि के लेखन में व्यस्त हो गया। साथ ही अरूज़ का सम्यक अध्ययन भी करने लग गया। स्वयं सर संधान करने लग गया। शरद तैलंग साहब का एक शे’र है-

      सिर्फ़ तुकबन्दियाँ काम देंगी नहीं

      शायरी कीजिए शायरी की तरह ।

- आज मैं यह स्वीकार करता हूँ कि पुस्तक की पहली आवृति किसी मुस्तनद उस्ताद को दिखा लेना चाहिए था तो फिर ऐसी नौबत न आती। अफ़सोस ! ऐसा हो न सका। शायरी को शायरी की तरह न कर सका। आज भी नहीं कर सकता।

शायरी को शायरी की तरह करने के लिए ज़रूरी था कि या तो कोई मुस्तनद [ प्रामाणिक] उस्ताद मिलते या अरूज़ [ ग़ज़ल का व्याकरण] पढ़्ता और समझता। पहला विकल्प तो हासिल न हो सका। कारण कि किसी ने मुझे ’शागिर्द’ बनाया ही नहीं, न ही मुझे शागिर्द बनाने के योग्य समझा। न ही किसी ने ’गण्डा’ बाँधा । सो मैने स्वाध्याय पर ही भरोसा किया।


      मगर इसमें भी एक समस्या थी। अरूज़ की जितनी प्रामाणिक किताबे थी सब उर्दू लिपि [ रस्म उल ख़त] में थी। फिर भी मैने स्वाध्याय से काम भर या काम चलाऊ उर्दू सीखना शुरु किया । “आए थे हरि भजन को , ओटन लगे कपास”। अल्हम्द्लल्लाह , ख़ुदा ख़ुदा कर कुछ कुछ उर्दू, किताबों से पढ़ना सीखा। अरूज़ की किताबों का अध्ययन किया, इन्टर्नेट पर तत्संबधित सामग्री का मुताअ’ला [ अध्ययन ] किया । अभी बहुत कुछ सीखना है। सीखने का सफ़र खत्म नहीं होता। निरन्तर चलता रहता है। जितना समझ सका, उतना मैने अपने एक ब्लाग “उर्दू बह्र पर एक बातचीत “ [
www.arooz.co.in] के नाम से, यकज़ा [ एक जगह ] फ़राहम कर दिया जिससे मेरे वो हिंदीदाँ दोस्त जो शायरी से ज़ौक-ओ-शौक़ फ़रमाते हैं, लगाव रखते हैं।मुस्तफ़ीद [ लाभान्वित ] हो सकें

इतने के बावज़ूद, मैने कभी खुद को शायर होने का दावा नहीं किया और न कभी कर सकता हूँ । बस एक अदब आशना  हूँ।

            न आलिम, न शायर, न उस्ताद ’आनन’

            अदब से मुहब्बत, अदब आशना  हूँ ।

ख़ैर, सोचा कि अब वक़्त आ गया है कि अपने उस पहले ग़ज़ल संग्रह -अभी संभावना है – में जो कमियाँ या ख़ामियाँ रह गई थीं उन्हे यथा संभव अब दुरुस्त कर दिया जाए। एक विकल्प यह था कि जो हो गया सो हो गया और जैसे है उसे वैसे ही छोड़ दें। As it is, where it is| मगर सारी रचनाएं मेरी ही थीं, मेरा ही सृजन था, कैसे छोड़ सकता था भला। यथाशक्ति सुधार करना ही बेहतर समझा ।

 यह काम इतना आसान भी नहीं था, मगर नामुमकिन भी नहीं था। अत: उन तमाम [68] ग़ज़लों और गीतों को स्वप्रयास से सुधारना शुरु किया । ग़ज़लो और गीतों का क्रम भी वही रखा जो पहली आवृति में था। मुझे यक़ीन था यह काम एक दिन में नहीं होगा, मगर ’एक दिन’ होगा ज़रूर। शनै: शनै: एक दिन यह भी काम पूर्ण हो गया, जो अब आप लोगों के हाथॊं में है।

अनुभव के आधार पर, एक बात ज़रूर कहना चाहूँगा। । किसी विकृति, टेढ़े-मेढ़े, जर्जर भवन का जीर्णोंद्धार कर, उसे सही एवं सुकृति भवन बनाने से  आसान है नया सृजन ही कर देना। ख़ैर, इस आवृति में कोशिश यही रही कि पुरानी ग़जलॊ का केन्द्रीय भाव [core structure] यथा संभव वही रहे, मगर बहर में रहे,वज़न में रहे, कम से कम  रदीफ़ तो सही रहे-क़ाफ़िया तो सही रहे। मूल भावना यही थी कि ग़ज़ल का मयार [स्तर,standard, भावपक्ष] जो भी हो जैसा भी हो, कम अज कम कलापक्ष, व्याकरण पक्ष, अरूज़ के लिहाज़ से तो सही हो । और यही कोशिश यथा संभव मैने इस संशोधित /परिवर्धित आवृति में की है।

      मयार/ शे’रियत/ ग़ज़लियत/ तग़ज़्ज़ुल तो ख़ैर हर शायर का अपना अंदाज़-ए-बयाँ होता है,अलग होता है, मुख़्तलिफ़ होता जो.उसकी क़ाबिलियत. उसके हुनर, उसके फ़न उसके फ़हम उसकी सोच, सोच की बुलन्दी, तख़य्युल वग़ैरह पर मुन्हसर [ निर्भर] होता है। इस पर मुझे विशेष कुछ नहीं कहना है। इसके लिए सही अधिकारी आप लोग हैं, पाठकगण हैं।

      यह संशोधित संस्करण आप लोगों के हाथों सौंप रहा हूँ । आप की टिप्पणियों का, सुझावों का, प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।

चलते चलते एक बात और—

शायरी [ या किसी फ़न] मेंहर्फ़--आख़िरकुछ नहीं होता।

सादर

 

-आनन्द.पाठक ‘आनन’ -

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 यह पुस्तक अमेजान पर भी उपलब्ध है --लिंक नीचे दिया हुआ है

https://amzn.in/d/eYVHK38


वैसे भी पुस्तक प्राप्ति के लिए आप संपर्क कर सकते है_

श्री संजय कुमार

अयन प्रकाशन

जे-19/39 , राजापुरी, उत्तम नगर

नई दिल्ली -110 059

Email : ayanprakashan@gmail.com

Web site: www.ayanprakashan,com

Whatsapp  92113 12371

 

सोमवार, 15 सितंबर 2025

मुक्तक 22

 मुक्तक 22

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मजदूरों की बस्ती साहिब

जान यहाँ है सस्ती साहिब

जब चाहे आकर उजाड़ दें

’बुधना’ की गृहस्थी साहिब

शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

एक सूचना : मेरी पुस्तक-अभी संभावना है- प्रकाशन के संदर्भ में--एक रिपोर्ट

 


[ मित्रो!

पिछली पोस्ट में मैने सूचित किया था कि मेरा अगला ग़ज़ल संग्रह -अभी संभावना है -का संशोधित रूप प्रकाशित हो कर आ गया है। साथ में यह भी सूचित किया था कि इस पुस्तक का आशीर्वचन आदरणीय द्विजेन्द्र ’द्विज’ जी ने लिखा है। जो ग़ज़ल समझते हैं जानते हैं वह ’द्विज जी’ को जानते होंगे। चूँकि द्विज जी एकान्त साहित्य साधक है, आत्म प्रचार प्रसार से, आत्मश्लाघा से, आत्म मुग्धता से बहुत दूर रहते हैं, संभव है बहुत से लोग नहीं भी जानते होंगे।
ख़ैर
इस पुस्तक के बारे में आज उन्हीं का संक्षिप्त आलेख यहाँ लगा रहा हूँ। आप भी पढ़े, आनन्द उठाएँ और आशीर्वाद दें।
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प्रस्तुत काव्य संकलन सुविख्यात व्यंग्यकार, ग़ज़लकार एवं गीतकार श्री आनन्द पाठक ’आनन’ के प्रथम ग़ज़ल गीत संग्रह ‘अभी संभावना है’ का परिवर्तित, परिवर्धित, परिष्कृत व परिशोधित संस्करण है।
2007 में प्रथम काव्य संग्रह ‘अभी संभावना है’ के प्रकाशन के पश्चात भी उन्होंने दर्जन से अधिक उत्कृष्ट काव्य संकलन साहित्य जगत को दिये हैं लेकिन अपने लेखन के निरंतर परिशोधन व परिष्कार के संस्कार ने उन्हें इस आवृति / संस्करण के लिए प्रेरित किया है। यह उनके व्यक्तित्व की विशालता है।
विशुद्ध साहित्यिक पृष्ठभूमि से आने वाले श्री आनन्द पाठक ’ आनन’ विविध छान्दसिक और गद्यात्मक विधाओं के गंभीर अध्येता हैं । चिराभ्यस्त ( कोहनामशक) शाइर हैं । कथ्य और शिल्प की सूक्ष्मताओं को आत्मसात उन्हें लेकर अपने अन्वेषणों को विभिन्न संचार माध्यमों से सुधी पाठक जगत के साथ साझा भी करते हैं। उनकी व्यक्तित्व की सहजता सरलता और तरलता का प्रतिबिंब उनकी शायरी में देखा जा सकता है।
इस सहृदय रचनाकार के लेखन की मूल प्रेरणा उनका समग्र सामाजिक राजनैतिक और आध्यात्मिक परिवेश है जो उनकी रचनाओं में हार्दिकता के साथ प्रमुखता से झलकता है।
पाठक साहिब मानवता के अस्तित्व की संभावनाओं के प्रति आशान्वित शायर हैं। उनकी शाइरी समय की क्रूर सच्चाइयों को लेकर उनके चिंतन मंथन का प्रतिबिम्ब है। समकाल के क्रूर सत्य, समकाल की विविध विडंबनाएं,विद्रूपताएँ और विकृतियाँ उनकी रचनात्मकता में बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रतिबिम्बित होते हुए देखे जा सकते हैं। उनका संवेदना सम्पन्न अंतर्मन और इनकी रचनात्मकता उनके गीतों ग़ज़लों माहियों और व्यंग्यों के सहज सम्प्रेषण के साथ सुधी पाठक के मनमस्तिष्क से संवाद करते हैं । जीवन के तमाम मौसमों के विभिन्न रंगों और और उनकी छटाओं का आकलन बारीक़ी से करते हैं और उन्हें अपनी विशिष्ट छाप के साथ प्रस्तुत करते हैं। उनके यहाँ कथ्य की नवीनता आकर्षित करती है। उनका सृजन आदमी में आदमीयत जगाने की संभावनाओं से सपन्न सृजन है। आनन साहिब का एक शे’र है:
प्रस्तुत संग्रह में उनकी इन्हीं दस्तकों की अनुगूँज सुनी जा सकती है। उनके प्रथम काव्य संग्रह ‘अभी संभावना है’ की सार्थक द्वितीय आवृत्ति के प्रकाशन के लिए शुभकामनाओं सहित,
सादर,
धर्मशाला, 1, अगस्त 2025
मोबाइल: 94184 65008
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कुछ मित्रॊं का प्रश्न था कि क्या यह पुस्तक ’अमेजान’ पर उपलब्ध है “
प्रकाशक महोदय ही विपणन [ मार्केटिंग] का कार्य करते है अत: उन्होने इसे ’अमेजान’ प्लेटफ़ार्म पर लगा दिया है जिसका लिंक नीचे लगा दिया है।
वैसे भी पुस्तक प्राप्ति के लिए आप संपर्क कर सकते है_
श्री संजय कुमार
अयन प्रकाशन
जे-19/39 , राजापुरी, उत्तम नगर
नई दिल्ली -110 059
Email : ayanprakashan@gmail.com
Web site: www.ayanprakashan,com
Whatsapp 92113 12371
--आनन्द पाठक-


गुरुवार, 11 सितंबर 2025

एक सूचना -मेरी पुस्तक -अभी संभावना है-- प्रकाशन के संदर्भ में

 



एक सूचना-पुस्तक -प्रकाशन के संदर्भ में
अभी संभावना है

मित्रो !

आप लोगों को यह सूचित करते हुए हर्षानुभूति हो रही है कि आप लोगों के आशीर्वाद से और शुभकामनाओं से मेरा अगली किताब –अभी संभावना है [ ग़ज़ल संग्रह]—  प्रकाशित हो कर आ गई है । इसे मै 13TH पुस्तक तो नहीं कह सकता। वस्तुत: यह मेरे प्रथम ग़ज़ल संग्रह - अभी संभावना है-का ही संशोधित रूप है। मैं इसे द्वितीय संस्करण का नाम नही दे रहा हूँ अपितु यह पहली आवॄति की ही पुनरावृति या अधिक से अधिक इसे परिष्कॄत, परिवर्तित, परिशोधित या परिवर्धित रूप कह सकता हूँ। आप के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मै ऎसा क्यों कह रहा हूँ या फिर इस आवृति की आवश्यकता क्या थी ? इस प्रश्न का उत्तर मैने इस संग्रह की भूमिका में विस्तार से लिख दिया है।

      इस संग्रह का आशीर्वचन आ0 द्विजेन्द्र ’द्विज’ जी ने लिखा है। द्विज जी स्वयं एक समर्थ ग़ज़लकार है और ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर भी। । वह एकान्त साहित्य साधक हैं, आत्म मुग्धता से बहुत दूर रहते हैं। वह ग़ज़ल कहते नहीं अपितु जीते हैं।
यह संशोधित संस्करण आप लोगों के हाथों सौंप रहा हूँ । आप की टिप्पणियों का, सुझावों का, प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।

दस्तकें देते रहो तुम हर मकां, हर दर पे ‘आनन’

आदमी में आदमीयत जग  उठे संभावना है।’


सादर

-आनन्द.पाठक ‘आनन’ –

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पुस्तक मिलने का पता –

श्री संजय कुमार

अयन प्रकाशन

जे-19/39 , राजापुरी, उत्तम नगर

नई दिल्ली -110 059

Email : ayanprakashan@gmail.com

Web site: www.ayanprakashan,com

Whatsapp  92113 12371

 

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

गीत 092 : स्वर्ग यहीं है, नर्क यहीं है-

 गीत 092 : स्वर्ग यहीं है, नर्क यहीं है

स्वर्ग यहीं है , नर्क यहीं है
बाक़ी सव प्रवचन की बातें ।

            मोह पाश में जकड़ा प्राणी
            तीरथ तीरथ घूम रहा है ।
            मन की व्यथा प्रबल है इतनी
            पत्थर पत्थर चूम रहा है ।
मन के अंदर ज्योति जगा ले
कट जाएँगी काली  रातें ।

            एक भरोसा रख तो मन में ,
            क्यों रखता है मन में उलझन ?
             वह तेरा आराध्य अगर है
            फिर क्यों रहता है विचलित मन।
जीवन है तो आएँगे ही
आँधी, तूफ़ाँ झंझावातें ।

            सुख दुख तो जीवन का क्रम है
            उतरा करते हैं आँगन में ।
            कभी अँधेरा , कभी उजाला ,
            नदियाँ भी सूखीं  सावन में ।
अपना अपना दर्द सभी का
अपनी अपनी हैं सौगातें ।

-आनन्द.पाठक- 

शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

ग़ज़ल 443[17-जी] : किसी के मिलन की --

ग़ज़ल : 443 [17-जी]
122---122---122---122


ग़ज़ल हूँ, किसी का मैं  हर्फ़-ए-वफ़ा  हूँ ।
किसी के  मिलन की, विरह की कथा हूँ ।
 
तवारीख़ में हर ग़ज़ल की गवाही
मैं हर दौर का इक सफ़ी आइना हूँ ।

कभी ’हीर’ राँझा’ की बन कर कहानी
किसी की तड़पती हुई मैं सदा हूँ ।

कभी ’मीर’ ग़ालिब’ , कभी दाग़, मोमिन
उन्हीं की मै  ख़ुशबू  का इक सिलसिला हूँ ।

ख़याल-ए-सुख़न हूँ निहाँ हर ग़ज़ल में
ग़ज़लगो, सुख़नदाँ का मैं आशना हूँ ।

ज़माने का ग़म हो कि ग़म यार का हो
हक़ीक़त बयानी की तर्ज़-ए-अदा हूँ ।

ग़ज़ल हूँ , अदब की रवायत हूँ ’आनन’
ज़माने की आवाज़ का तरज़ुमा हूँ । 

-आनन्द.पाठक-  

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

चंद माहिए 111/21

 चन्द माहिए : क़िस्त 111/21

:1: 

उस पार मेरा माही

टेरेगा जिस दिन

उस दिन तो जाना ही ।


:2:

जब दिल ही नहीं माना

क्या होगा लिख कर

कोई राजीनामा ।



बुधवार, 13 अगस्त 2025

एक सूचना : नए यू-ट्यूब चैनेल के बारे में

  एक सूचना --नए ’यू-ट्यूब ’ चैनेल के बारे में