अनुभूतियाँ 181/68
721
बार बार क्या कहना है अब
समझाना तुमको मुश्किल है
अपनी ज़िद में दिल ये तुम्हारा
सच सुनने के नाक़ाबिल है ।
अनुभूतियाँ 181/68
721
बार बार क्या कहना है अब
समझाना तुमको मुश्किल है
अपनी ज़िद में दिल ये तुम्हारा
सच सुनने के नाक़ाबिल है ।
ग़ज़ल 438 [ 12-]
1222---1222---1222---122
हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है
हमारी ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।
गुजरने को गुज़र जाता समय चाहे भी जैसा हो
मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।
सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से
अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।
मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में
तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।
जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो
यहाँ पर कौन है ऐसा जो उम्र-ए-जाविदाँ है ।
सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी
मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।
जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’
तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।
-आनन्द पाठक-
कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है
ग़ज़ल 437 [11-G]
212---212---212---212
यार मेरा कहीं बेवफ़ा तो नहीं
ऐसा मुझको अभी तक लगा तो नहीं
कत्ल मेरा हुआ, जाने कैसे किया ,
हाथ में उसके ख़ंज़र दिखा तो नहीं
बेरुख़ी, बेनियाज़ी, तुम्हारी अदा
ये मुहब्बत है कोई सज़ा तो नहीं
तुम को क्या हो गया, क्यूँ खफा हो गई
मैने तुम से अभी कुछ कहा तो नहीं
रंग चेहरे का उड़ने लगा क्यों अभी
राज़ अबतक तुम्हारा खुला तो नहीं
लाख कोशिश तुम्हारी शुरू से रही
सच दबा ही रहे, पर दबा तो नहीं ।
वक़्त सुनता है ’आनन’ किसी की कहाँ
जैसा चाहा था तुमने, हुआ तो नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
इस ग़ज़ल को आ0 विनोद कुमार उपाध्याय जी [ लखनऊ] की आवाज़ में सुनें
यहाँ सुनें
ग़ज़ल् 436 [10-]
212---212---212---212--
उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी
क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।
तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते
राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?
दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा
कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की
लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ
क्या बिना आग का यह धुआँ है सही
क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे
रोटियाँ ना सिकीं, व्यर्थ है ’लीडरी’
जिसको होता किसी पर भरोसा नहीं
खुद के साए से डरता रहा है वही ।
हम सफर जब नहीं ,हम सुखन भी नहीं
फिर ये 'आनन' है किस काम की जिंदगी
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियाँ 179/66
713
सत्य कहाँ तक झुठलाओगे
छुपता नहीं, न दब पाएगा ।
ख़ुद को धोखा कब तक दोगे
झूठ कहाँ तक चल पाएगा ।
714
सुख दुख चलते साथ निरन्तर
जबतक जीवन एक सफ़र है
जितना उलझन मन के बाहर
अधिक कहीं मन के अंदर है।
715
वक़्त गुज़रने को गुज़रेगा
भला बुरा या चाहे जैसा
ज़ोर नहीं जो अगर तुम्हारा
ढलना होगा तुमको वैसा
716
क्या करना है तुमको सुन कर
कैसी गुज़र रही है मुझ पर
शायद तुमको खुशी न होगी
ज़िंदा रहता हूँ मर मर कर
-आनन्द.पाठक-
इसी अनुभूतियों कॊ आ0 विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] के स्वर में यहाँ सुनें और आनन्द उठाएँ
https://www.facebook.com/share/v/1CAa5Jw1Ra/
[नोट : यह आलेख फ़ेसबुक से देवमणि पाण्डेय जी के वाल से साभार लिया गया है ]--
आदाब साथियो
आदरणीय Sunil Tripathi जी की पोस्ट से प्रेरित एक साभार आलेख………
◆#ग़ज़ल_यानी_दूसरों_की_ज़मीन_पर_अपनी_खेती◆
*************************************
ग़ज़ल दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती है। बतौर शायर आप भले ही दावा करें कि आपने नई ज़मीन ईजाद की है मगर सच यही है कि आप दूसरों की ज़मीन पर ही शायरी की फ़सल उगाते हैं। कोई ऐसा क़ाफ़िया, रदीफ़ या बहर बाक़ी नहीं है जिसका इस्तेमाल शायरी में न हुआ हो। कोई-कोई ज़मीन तो ऐसी है जिसका बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हो चुका है और लगातार होता रहेगा। मसलन शायद ही कोई ऐसा शायर हो जिसने मोमिन साहब की इस ज़मीन पर ग़ज़ल की फ़सल न उगाई हो-
■
तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता.
तुम हमारे किसी तरह न हुए,
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता.
◆
आज़ादी से पहले लखनऊ में एक शायर हुए अर्सी लखनवी। मुशायरों में उनका एक शेर काफ़ी मक़बूल हुआ था-
कफ़न दाबे बगल में घर से मैं निकला हूँ ऐ अर्सी,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.
◆
डॉ.बशीर बद्र ने फ़न का कमाल दिखाया। ऊपर का मिसरा हटाया और बड़ी ख़ूबसूरती से अपना मिसरा लगाया। आप जानते ही हैं कि यही ख़ूबसूरत शेर आगे चलकर शायर बशीर बद्र का पहचान पत्र बन गया-
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए.
मैंने डॉ बशीर बद्र से व्यक्तिगत रूप से पूछा था कि क्या आपने जानबूझकर अर्शी लखनवी का यह मिसरा उठाया है। उन्होंने जवाब दिया- "जी हां हमारी यह रिवायत है। ये तो देखिए कि मैं ने एक मिसरा बदलकर इस शेर को कितना ख़ूबसूरत बना दिया।"
◆
भोपाल के मशहूर शायर शेरी भोपाली की एक ग़ज़ल मुशायरों में बहुत पसंद की जाती थी। उसका एक शेर है-
अभी जो दिल में हल्की सी ख़लिश महसूस होती है,
बहुत मुमकिन है कल इसका मुहब्बत नाम हो जाए.
■
अब भोपाल के ही शायर डॉ बशीर बद्र का एक मशहूर शेर देखिए-
वो मेरा नाम सुनकर कुछ ज़रा शर्मा से जाते हैं
बहुत मुमकिन है कल इसका मुहब्बत नाम हो जाए
डॉ बशीर बद्र से सीनियर थे शेरी भोपाली। हो सकता है कि बशीर बद्र ने उनके मिसरे पर तरही ग़ज़ल कही हो।
◆
मुझे लगता है कि ख़याल की सरहदें नहीं होतीं। यानी दुनिया में कोई भी दो शायर एक जैसा सोच सकते हैं। जाने-अनजाने दो फ़नकार शायरी की एक ही ज़मीन पर एक जैसी फ़सल उगा सकते हैं। मैंने सन् 1975 में किसी की पंक्तियाँ सुनी थीं जो अब तक मुझे याद है-
भीग जाती हैं जो पलकें कभी तनहाई में
काँप उठता हूँ कोई जान न ले.
ये भी डरता हूँ मेरी आँखों में
तुझे देख के कोई पहचान न ले.
◆
पाकिस्तान की मशहूर शायरा परवीन शाकिर का भी इसी ख़याल पर एक शेर नज़र आया –
काँप उठती हूँ मैं ये सोचके तनहाई में,
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई.
◆
ख़यालों की ये समानता इशारा करती है कि सोच की सरहदें इंसान द्वारा बनाई गई मुल्क की सरहदों से अलग होती हैं। शायर कैफ़ी आज़मी ने नौजवानी के दिनों में एक ग़ज़ल कही थी। वो इस तरह है-
मैं ढूँढ़ता जिसे हूँ वो जहाँ नहीं मिलता
नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता
वो तेग़ मिल गई जिससे हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का इस पर निशां नहीं मिलता
■
निदा फ़ाज़ली साहब जवान हुए तो उन्होंने कैफ़ी साहब के सिलसिले को इस तरह आगे बढ़ाया-
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कभी ज़मी तो कभी आसमां नहीं मिलता
फ़िल्म ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ में शामिल निदा साहब की यह ग़ज़ल भूपिंदर सिंह की आवाज़ में इतनी ज्यादा पसंद की गई कि लोग कैफ़ी साहब की ग़ज़ल भूल गए।
◆
मुशायरे के मंच पर भी दिलचस्प प्रयोग मिलते हैं। कभी-कभी दो शायर एक दूसरे की मौजूदगी में एक ही ज़मीन में एक जैसा नज़र आने वाले शेर पढ़ते हैं। श्रोता ऐसी शायरी का बड़ा लुत्फ़ उठाते हैं। शायर मुनव्वर राना का एक शेर इस तरह मुशायरों में सामने आया-
उन घरों में जहाँ मिट्टी के घड़े रहते हैं.
क़द में छोटे हैं मगर लोग बड़े रहते हैं.
■
डॉ.राहत इंदौरी ने अपने निराले अंदाज़ में अपना परचम इस तरह लहराया-
ये अलग बात कि ख़ामोश खड़े रहते हैं.
फिर भी जो लोग बड़े हैं वो बड़े रहते हैं.
◆
दोनों शायरों को मुबारकबाद दीजिए कि उन्होंने अपने इल्मो-हुनर से लोगों को बड़ा बनाया। मुंबई में मुशायरे के मंच पर सबसे पहले हसन कमाल ने ये कलाम सुनाया-
ग़ुरूर टूट गया है, ग़ुमान बाक़ी है.
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है.
■
इसी ज़मीन पर शुजाउद्दीन शाहिद का एक शेर सामने आया-
घरों पे छत न रही सायबान बाक़ी है.
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है.
■
इस पर डॉ.राहत इंदौरी ने फ़ैसला सुनाया-
वो बेवकूफ़ ज़मीं बाँटकर बहुत ख़ुश है,
उसे कहो कि अभी आसमान बाक़ी है.
■
इसके बाद राजेश रेड्डी के तरन्नुम ने कमाल दिखाया-
जितनी बँटनी थी बँट गई ये ज़मीं,
अब तो बस आसमान बाक़ी है.
◆
राजेश रेड्डी बा-कमाल शायर हैं। उनके बारे में मशहूर है कि वे बड़ी पुरानी ज़मीन में बड़ा नया शेर कह लेते हैं। मसलन जोश मल्सियानी का शेर है-
बुत को लाए हैं इल्तिजा करके.
कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा करके.
■
राजेश रेड्डी ने इस पुरानी ज़मीन में नई फ़सल उगाने का ऐसा कमाल दिखाया कि उनके फ़न को जगजीत सिंह जैसे मक़बूल सिंगर ने अपने सुर से सजाया-
घर से निकले थे हौसला करके,
लौट आए ख़ुदा ख़ुदा करके,
◆
"आसमान बाक़ी है"... अभी तक ये तय नहीं हो पाया है कि इस ज़मीन का असली मालिक कौन है। मैंने शायर निदा फ़ाज़ली से इसका ज़िक्र किया। वे मुस्कराए- 'अभी तक इन…..को पता ही नहीं है कि आसमान बँट चुका है। इनको एक हवाई जहाज़ में बिठाकर कहो कि बिना परमीशन लिए किसी दूसरे मुल्क में दाख़िल होकर दिखाएं। फ़ौरन पता चल जाएगा कि आसमान बँटा है या नहीं।
◆
नौजवान शायर आलोक श्रीवास्तव का ‘माँ’ पर एक शेर है जो उनके काव्य संकलन 'आमीन' में प्रकाशित एक ग़ज़ल में शामिल है-
बाबू जी गुज़रे, आपस में सब चीज़ें तक़्सीम हुई तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा.
■
माँ पर शायर मुनव्वर राना का एक मतला है जिसे असीमित लोकप्रियता हासिल हुई-
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आयी.
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी.
■
मुझे नहीं पता कि इस पर राना साहब का कमेंट क्या है मगर आलोकजी का दावा है कि उनके शेर के पाँच साल बाद राना जी का मतला नज़र आया।
◆
सदियों से ग़ज़ल के क्षेत्र में हमेशा कुछ न कुछ रोचक प्रयोग होते रहते हैं । कभी शायरों के ख़याल टकरा जाते हैं तो कभी मिसरे। ख़ुदा-ए-सुख़न मीर ने लिखा था –
बेख़ुदी ले गई कहाँ हमको,
देर से इंतज़ार है अपना.
■
इसी ख़याल को ग़ालिब साहब ने अपने अंदाज़ में आगे बढ़ाया-
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी,
ख़ुद हमारी ख़बर नहीं आती.
◆
मुझे लगता है कि 'ख़ुदाए-सुख़न मीर' से मिर्ज़ा ग़ालिब काफ़ी प्रभावित थे। उनपर मीर का यह असर साफ़-साफ़ दिखाई देता है। मिसाल के तौर पर दोनों के दो-दो शेर देखिए-
तेज़ यूँ ही न थी शब आतिशे-शौक़,
थी ख़बर गर्म उनके आने की.-मीर तकी मीर
थी ख़बर गर्म उनके आने की,
आज ही घर में बोरिया न हुआ.-मिर्ज़ा ग़ालिब
■
होता है याँ जहां में हर रोज़ो-शब तमाशा.
देखा जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा.-मीर
बाज़ी-चा-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे.
होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे.-मिर्ज़ा ग़ालिब
◆
फ़िल्म उमराव जान में ज्ञानपीठ अवार्ड से सम्मानित शायर शहरयार की ग़ज़ल का मतला है-
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये.
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये.
■
इस ग़ज़ल ने शहरयार को रातों-रात लोकप्रियता की बुलंदी पर पहुँचा दिया। इस मतले के दोनों मिसरे बिहार के शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी की एक ग़ज़ल से वाबस्ता हैं। उनकी उस ग़ज़ल के शेर देखिए-
■
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये.
ख़ंजर को अपने और ज़रा तान लीजिये.
■
बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात,
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिये.
■
मर जायेंगे मिट जायेंगे हम कौम के लिए,
मिटने न देंगे मुल्क, ये ऐलान लीजिये.
◆
बिस्मिल अज़ीमाबादी का एक और शेर है-
'बिस्मिल' ऐ वतन तेरी इस राह-ए-मुहब्बत में
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
■
इसी ज़मीन पर जिगर मुरादाबादी का भी मशहूर शेर है-
ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
◆
मुझे नहीं पता कि दोनों शायरों में से किसने पहले ये शेर कहा और किसने तरही ग़ज़ल कही। मशहूर शायर-सिने गीतकार शकील बदायूंनी ने भी दूसरों के मिसरे उठाने में हर्ज़ नहीं समझा। उनका एक मशहूर फ़िल्मी गीत है-
ख़ुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं
जहां बजती है शहनाई वहाँ मातम भी होते हैं...(बाबुल)
■
अब शायर दाग़ देहलवी का ये शेर देखिए-
ख़ुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं
जहां बजते हैं नागाड़े वहाँ मातम भी होते हैं
◆
"ऐ मेरे वतन के लोगो" फेम गीतकार पं. प्रदीप से एक बार मैंने पूछा था कि अगर दो रचनाकारों के ख़याल आपस में टकराते हैं तो क्या ये ग़ल़त बात है ? उन्होंने जवाब दिया कि कभी-कभी एक रचनाकार की रचना में शामिल सोच दूसरे रचनाकार को इतनी ज़्यादा अच्छी लगती है कि वह सोच के इस सिलसिले को आगे बढ़ाना चाहता है। यानी वह अपने पहले के रचनाकार की बेहतर सोच का सम्मान करना चाहता है। चरक दर्शन का सूत्र है- चरैवेति चरैवेति, यानी चलो रे…चलो रे…। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने इस ख़याल को आगे बढ़ाया- 'इकला चलो रे।' लोगों को और मुझे भी अकेले चलने का ख़याल बहुत पसंद आया। मैंने इस ख़याल का सम्मान करते हुए एक गीत लिखा और मेरा गीत भी बहुत पसंद किया गया-
चल अकेला… चल अकेला… चल अकेला,
तेरा मेला पीछे छूटा साथी चल अकेला…
◆
एक कहावत है- 'साहित्य से ही साहित्य उपजता है।' मित्रो ! 'भावों की भिड़न्त' का आरोप तो महाकवि निराला पर भी लग चुका है। मेरे ख़याल से अगर कोई शायर किसी दूसरे शायर का मिसरा उठाता है तो उसे उसका ज़िक्र कर देना चाहिए। मिर्ज़ा गालिब के बाद ऐसा लगता था कि ग़ज़ल में अब कुछ नया लिखने को बाक़ी नहीं रह गया है। लेकिन उनके बाद भी कही गई ज़मीन पर, कही गई बहर में और भी बहुत कुछ नया कहा गया। सब ने अपने-अपने अंदाज़ में अपनी बात कहने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि दूसरों की ज़मीन पर अपनी खेती करने का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। लोग अपनी मर्ज़ी से अपनी मनचाही ज़मीन पर मनमाफ़िक फ़सल उगाते रहेंगे।
◆
साभार
- Devmani Pandey
ग़ज़ल 435 [09-G]
2122---1212---22
लोग क्या क्या नहीं कहा करते ,
हम भी सुन कर केअनसुना करते ।
उनके दिल को सुकून मिलता है
जख़्म वो जब मेरे हरा करते ।
ताज झुकता है, तख़्त झुकता है
इश्क़ वाले कहाँ झुका करते ।
कर्ज है ज़िंदगी का जो हम पर
उम्र भर हम उसे अदा करते।
सानिहा दफ्न हो चुका कब का
कब्र क्यों खोद कर नया करते ?
जिनकी गैरत , जमीर मर जाता
चंद टुकड़ो पे वो पला करते ।
ग़ैर से क्या करें गिला ’आनन’
अब तो अपने भी हैं दग़ा करते
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 434 [ 08-G]
1222---1222---1222---1222
कहाँ आसान होता है किसी को यूँ भुला पाना
वो गुज़रे पल, हसीं मंज़र, वो कस्मे याद आ जाना
पहुँच जाता तुम्हारे दर, झुका देता मैं अपना सर
अगर मिलता न मुझको रास्ते में कोई मयख़ाना
नहीं मालूम क्या तुमको मेरे इस्याँ गुनह क्या हैं
अमलनामा में सब कुछ है मुझे क्या और फ़रमाना
शजर बूढ़ा खड़ा हरदम यही बस सोचता रहता
परिंदे तो गए उड़ कर मगर मुझको कहाँ जाना ।
अजनबी सा लगे परदेश, गर मन भी न लगता हो
वही डाली, वही है घर, वही आँगन, चले आना ।
कमी कुछ तो रही होगी हमारी बुतपरस्ती में
तुम्हारी बेनियाजी को कहाँ मैने बुरा माना ।
मुहब्बत पाक होती है तिजारत तो नहीं होती
हमारी बात पर ’आनन’ कभी तुम ग़ौर फ़रमाना
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 433 [ 07-G]
1222---1222---1222----122
रवायत बोझ हो जाए उसे कब तक उठाना
अरे क्या सोचना इतना-’कहेगा क्या ज़माना !’
इशारों में कही बातें इशारों में ही अच्छी
ज़ुबां से क्या बयां करना किसी को क्या बताना
किसी के पैर से कब तक चलोगे तुम कहाँ तक
छुपी ताक़त है अपनी क्यों न उसको आजमाना
हमेशा इश्क. को तुम कोसते, नाक़िस बताते
तुम्हारी सोच क्यों होती नहीं है आरिफ़ाना ।
शराफ़त से अगर बोलो तो कोई सुनता कहाँ है
शराफ़त छोड़ कर बोलो सुने सारा ज़माना ।
तकज़ा है यही इन्सानियत का, शख़्सियत का
ज़ुबां दी है किसी को तो लब-ए-दम तक निभाना।
मुहब्बत भी इबादत से नहीं कमतर है ’आनन’
अगर उसमे न धोखा हो, न हो सजदा बहाना ।
-आनन्द पाठक-
रिपोर्ताज़ 09: मौसम बदलेगा [ ग़ज़ल संग्रह] -पर - नीरज गोस्वामी द्वारा लिखा आलेख
मित्रो !
नीरज गोस्वामी साहित्यिक मंचों के ख़ास तौर पर ग़ज़लो के मंचों के और समीक्षक के रूप में एक सशक्त हस्ताक्षर -हैं
किसी परिचय के मुहताज नहीं । आप ने मेरे ग़ज़ल संग्रह -- मौसम बदलेगा --पर अपनी बेबाक़ राय रखी है। आप भी पढ़ें
यह आलेख उनके ब्लाग पर भी पढ़ सकते है पोस्ट 17-जुलाई-2024 । लिंक नीचे दिया हुआ है।---आनन्द.पाठक-
https://www.facebook.com/neeraj.goswamy.16
किताब मिली - शुक्रिया - 10 --नीरज गोस्वामी द्वारा लिखा गया आलेख
अनुभूतियाँ 176/63
701
जब जब छोड. गई तुम मुझको,
नदी प्यार की फिर भी रहती ।
ऊपर ऊपर भले दिखे ना,
भीतर भीतर बहती रहती ।
702
तुम क्या जानो, दिल तेरे बिन
क्या क्या नहीं सहा करता है
नियति मान कर चुप रहता है
कुछ भी नहीं कहा करता है ।
703
राह देखती रहती निशदिन
वही प्रतीक्षारत हैं आँखें
आओगे तुम इक दिन वापस
लटकी अँटकी रहती साँसें
704
मन की सूनी कुटिया मे जब
और नहीं कोई रहता है
तब तेरी यादें रहती हैं
मन जिनसे बातें करता है
-आनन्द पाठक-
चंद माहिए 106/16
1;
होली का है मौसम
छा जाती मस्ती
जब साथ रहे हमदम ।
2:
कान्हा खेलें होली
भाग रही बच कर
राधा रानी भोली ।
3:
खुशियॊ से भरी झोली
मिल कर खेलेंगे
हम रंग भरी होली
;4:
कुछ रंग गुलाल लिए
राह तेरी देखूँ
फूलों का थाल लिए ।
5
जब होली आती है
फूल बहक जाते
डाली मुस्काती हैं
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियाँ 175/62
697
होली आई ,तुम भी आओ,
खेलेंगे हम मिल कर होली ।
सात रंग से रँगना, प्रियतम !
प्रीति प्रणय हो या रंगोली ।
698
मार न कान्हा यूँ पिचकारी,
एक रंग मे रँगी चुनरिया ।
चाहे जितना रंग लगा दे,
चढ़े न दूजो रंग, सँवरिया !
699
होली का यह पर्व खुशी का
प्रेम रंग से तुम रँग देना ।
लाल गुलाल लगा कर सबको,
अपनी बाँहों में भर लेना ।
700
अवधपुरी में सीता खेलें
वृंदावन में राधा रानी ।
रंग लगा कर गले लगाना
होली की यह रीति पुरानी ।
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 431[05-G]
2212---1212--2212---12
दौलत की भूख ने तुम्हे अंधा बना दिया
इस दौड़ में सुकून भी तुमने लुटा दिया
दो-चार बस फ़ुज़ूल इनामात क्या मिले
दस्तार को भी शौक़ से तुमने गिरा दिया
इल्म.ओ.अदब की रोशनी चुभने लगी उसे
जलता हुआ चिराग़ भी उस ने बुझा दिया
लहजे में अब है तल्ख़ियाँ, लज़्ज़त नहीं रही
आदाब.ओ.तर्बियत मियाँ! तुमने भुला दिया
सत्ता ने चन्द आप को अलक़ाब क्या दिए
अपनी क़लम को आप ने गूँगा बना दिया
कुछ लोग थे कि राह में काँटे बिछा गए
कुछ लोग हैं कि राह से पत्थर हटा दिया
’आनन’ अजीब हाल है लोगों को क्या कहें
था शे’र और का, मगर अपना बता दिया।
-आनन्द.पाठक-
इस ग़ज़ल को श्री विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] जी ने मेरी एक ग़ज़ल को बड़े ही दिलकश अंदाज़ में अपना स्वर दिया है आप भी सुनें। लिंक पर क्लिक करें और आनन्द उठाएँ
https://www.facebook.com/watch/?v=503360932825231&rdid=yXGK9YMOhcYihyGL
ग़ज़ल 432 [06-G)सच तो कुछ और था
2212---1212---2212---12
सच तो कुछ और था मगर तुमने घुमा दिया
चेहरे के रंग ने मुझे सब कुछ बता दिया ।
देता भी क्या जवाब मैं तुझको, ऎ ज़िंदगी !
तेरे सवाल ने मुझे अब तो थका दिया ।
वैसे तुम्हारे शौक़ में शामिल तो ये न था
देखा कहीं जो बुतकदा तो सर झुका दिया
इतना भी तो सरल न था दर्या का रास्ता
पत्थर को काट काट के रस्ता बना दिया
क्या क्या न हादिसे हुए थे राह-ए-इश्क़ में
करता भी याद कर के क्या सबको भुला दिया
सुनने को दास्तान था तेरी जुबान से
तूने कहाँ से ग़ैर का किस्सा सुना दिया
कुछ शर्त ज़िंदगी की थी हर बार सामने
हर बार शर्त रो के या गा कर निभा दिया ।
क्यों पूछती हैं बिजलियाँ घर का मेरे, पता
’आनन’ का यह मकान है, किसने बता दिया?
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
बुतकदा =मंदिर
अनुभूतियाँ 174/61
693
शायद मैने ही देरी की
अपनी बात बताने में कुछ
बरसोंं लग जाएंगे शायद
दिल की चाह जताने में कुछ।
694
जब जब दूर गई तू मुझसे
कितने गीत रचे यादों में
ढूँढा करता हूँ सच्चाई
तेरे उन झूठे वादों में ।
695
दोष किसी को क्या देता मैं
सब अपने कर्मों का फल है
सबको मिलता है उतना ही
जिसका जितना भाग्य प्रबल है।
696
प्रेम चुनरिया मैने रँग दी,
बाक़ी जो है तुम भर देना।
आजीवन बस रँगी रहूँ मैं,
प्रीति अमर मेरी कर देना ।
-आनन्द पाठक-
अनुभूतियाँ 172/59
685
बंजारों-सा यह जीवन है
साथ चला करती है माया
साथ साँस जैसे चलती है
जहाँ जहाँ चलती है काया
686
समय कहाँ रुकता है, प्यारे !
धीरे धीरे चलता रहता ।
अपने कर्मों का जो फ़ल हो
इसी जनम में मिलता रहता ।
687
प्यास मिलन की क्या होती है
भला पूछना क्या आक़िल से
वक़्त मिले तो कभी पूछना
किसी तड़पते प्यासे दिल से ।
688
मन का जब दरपन ही धुँधला
खुद को कैसे पहचानोगे ?
राह ग़लत क्या, राह सही क्या
आजीवन कैसे जानोगे ?
-आनन्द.पाठ्क-
[ आक़िल = अक्ल वाला ]
अनुभूतियां~ 171/58
681
जीवन चलता रहता अविरल
कहीं कठिन पथ, कहीं सरल है
जीवन इक अनबूझ पहेली
कभी शान्त मन ,कभी विकल है ।
682
सोन चिरैया रोज़ सुनाती
अपनी बीती नई कहानी
कभी सुनाती खुल कर हँस कर
कभी आँख में भर कर पानी ।
683
जब से तुम वापस लौटी हो
लौटी साथ बहारें भी हैं ।
चाँद गगन में अब हँसता है
साथ हँस रहे तारे भी हैं ।
684
अगर समझ में कमी रही तो
कब तक रिश्ते बने रहेंगे
स्वार्थ अगर मिल जाए इसमे
कब तक रिश्ते बचे रहेंगे ।
विविध 09 : अजय अज्ञात जी से एक मुलाक़ात 23-02-25
मित्रो ! \
अजय कुमार शर्मा "अज्ञात ’सोशल मीडिया, साहित्यिक मंचों का एक जाना पहचाना नाम है । आप एक साहित्यिक संस्था ; परवाज-ए-ग़ज़ल’ के संस्थापक है ।एक साहित्य- प्रेमी, एक ग़ज़लकार है और कई साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित भी हो चुके हैं। आप लगभग एक दर्जन साझा-संकलन का सम्पादन कर चुके हैंऔर आप के स्वयं के कई गज़ल संग्रह/ काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।
आप द्वारा संपादित नवीनतम साझा ग़ज़ल संग्रह -"हरियाणा के शायरों की प्रतिनिधि ग़ज़लें-मंज़र-ए-आम हो चुकी है जिसमें हरियाणा के गण्यमान/उदीयमान गज़लकारों के गज़लें संग्रहित है । यह उनका प्रेम ही कहिए कि इस संग्रह में इस हक़ीर की भी एक ग़ज़ल संकलित है।
आज दिनांक 23-02-2025 को अजय ’अज्ञात ’ जी स्वयं चल कर मेरे निवास स्थान ’ गुड़गाँव’ पर पधारे और "हरियाणा के शायरों की प्रतिनिधि ग़ज़लें" एक प्रति अपने हाथों से मुझे भेंट की। साथ ही अपनी दो और किताबे--हमराह [ ग़ज़ल संग्रह] और गुहर-ए-नायाब [ सह-स्म्पादित]भी भेट की।
निश्चय ही यह मेरे लिए गौरव और सम्मान का क्षण था। एक विशेष गौरवानुभूति हुई।
इन संग्रहो को फ़ुरसत में विस्तार से पढ़ूँगा और अपनी राय भी दूंगा। प्रथम दॄष्टया यह तो स्पष्ट है कि यह कार्य इतना आसान नहीं होता जितना देखने में लगता हैइससे आप की लगन ,गहराई, निस्वार्थ परिश्रम, अभिरुचि का परिचय मिलता है। आप ऐसे ही साहित्य जगत की निस्वार्थ सेवा करते रहें, मेरी शुभकामना है।
आप की संस्था-परवाज़-ए-ग़ज़ल [जो ग़ज़ल विधा की पूर्णतया समर्पित संस्था है ] उत्तरोत्तर प्रगति पर अग्रसरित रहे और परवाज की बुलंदिया हासिल करती रहे यही मेरी कामना है।
इस संक्षिप्त मुलाकात में ग़ज़ल लेखन के दशा-दिशा की चर्चा के साथ साथ अन्य विषयों पर भी चर्चा हुई ख़ास तौर पर अरूज़ पर।
इन मुलाक़ात के क्षणॊं के कुछ चित्र लगा रहा हूँ
-आनन्द.पाठक-
ग़ज़ल 430 [04-G)
2212---2212
यह झूठ् की दुनिया ,मियाँ !
सच है यहाँ बे आशियाँ ।
क्यों दो दिलों के बीच की
घटती नहीं है दूरियाँ ।
बस ख़्वाब ही मिलते इधर
मिलती नहीं हैं रोटियाँ ।
इस ज़िंदगी के सामने
क्या क्या नहीं दुशवारियाँ ।
हर रोज़ अब उठने लगीं
दीवार दिल के दरमियाँ ।
तुम चंद सिक्कों के लिए
क्यों बेचते आज़ादियाँ ।
किसको पड़ी देखें कभी
’आनन’ तुम्हारी खूबियाँ ।
-आनन्द.पाठक-
अनुभूतियाँ 169/56
673
ऐसे भी कुछ लोग मिलेंगे
ख़ुद को ख़ुदा समझते रहते
आँखों पर हैं पट्टी बाँधे
अँधियारों में चलते रहते ।
674
दिल जो कहता, कह लेने दो
कहने से मत रोको साथी !
दीपक अभी जला रहने दो
रात अभी ढलने को बाक़ी
675
माना राह बहुत लम्बी है
हमको तो बस चलना साथी
जो रस्मे हों राह रोकती
मिल कर उन्हे बदलना साथी
676
नीड बनाना कितना मुश्किल
उससे मुश्किल उसे बचाना
साध रही है दुनिया कब से
ना जाने कब लगे निशाना ।
-आनन्द पाठक-
अनुभूतियाँ 168/55
669
मुक्त हंसी जब हँसती हो तुम
हँस उठता है उपवन मधुवन
कोयल भी गाने लगती है
और हवाएँ छेड़े सरगम ।
670
मछली जाल बचा कर निकले
लेकिन कब तक बच पाती है
प्यास अगर दिल में जग जाए
स्वयं जाल में फँस जाती है ।
671
अवसरवादी लोग जहाँ हों
ढूँढा करते रहते अवसर
स्वार्थ प्रबल उनके हो जाते
धोखा देते रह्ते अकसर
672
कितनी बार लड़े, झगड़े हम
रूठे और मनाए भी हैं ।
विरह वेदना में रोए तो
गीत खुशी के गाए भी हैं।
-आनन्द.पाठक-
गीत 90 : बादलों के पंख पर ---
2122---2122---2122---2122
बादलों के पंख पर मैं जब प्रणय के गीत लिखता
काल की निष्ठुर हवाएँ, क्यों मिटा देती हैं हँस कर
अब तो यादें शेष हैं बस, उन सुखद बीते दिनों की
जब कभी हम-तुम मिला करते थे मधुमय चाँदनी में
पूछती हैं अब लताएँ जो कभी साक्षी बनी थी
" क्या हुई थी बात तुमसे उन दिनों की यामिनी में ?"
आशियाने पर ही मेरे क्यॊ गिरा करती है बिजली
हादिसे क्यों साथ मेरे ही हुआ करते हैं अकसर ।
क्यों नहीं भाता जगत को प्रेम की भाषा मनोहर
क्यों हमेशा देखता है प्रेम को दूषित नयन से ।
डाल पर बैठे हुए जब दो विहग दुख बाँटते हैं
सोचने लगती है दुनिया क्या न क्या अपने ही मन से
आँधियों से जूझ कर जब आ गई कश्ती किनारे
लोग साहिल पर खड़े क्यों हाथ में ले ईंट-पत्थर ।
छोड़ कर जब से गई तुम कुछ कहे बिन, कुछ सुने बिन
फिर न उसके बाद कोई स्वप्न जागा, चाह जागी
शून्य में जब ढूँढता हूँ मैं कभी चेहरा तुम्हारा
दूर तक जाती नज़र है, लौट कर आती अभागी ।
रात की तनहाइयों में जब कभी तुमको पुकारा
साथ देने आ गए तब चाँद-तारे भी उतर कर ।
बादलों के पंख पर जब----
-आनन्द.पाठक-