रविवार, 18 दिसंबर 2022

अनुभूतियाँ : क़िस्त 027

 अनुभूतियाँ : क़िस्त 027 ओके


105

मौन किसी का समझा, मैने

स्वप्न मेरा साकार हुआ है,

एक भरम था वह भी मेरा

अर्पण कब स्वीकार हुआ है

 

106

 राह अलग जब चलना ही था

साथ चली फिर क्यों इतने दिन ?

एक भुलावा था, जाने दो

कितना जीना है अब तुम बिन

 

107

तुम ने भी तो देखा होगा

आँधी, तूफ़ाँ, बिजली, पानी,

तोड़ सकीं हैं कब ये हमको

जीने की जब हमने ठानी ।

 

108

कभी कभी जब अँधियारे में

दिख जाती है एक रोशनी

मानॊ मुझको बुला रही हो

फिर जीने को नई ज़िंदगी ।


-आनन्द.पाठक-


 

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