अनुभूतियाँ 030 ओके
117
राहगुज़र जो नहीं तुम्हारी
राह हमारे लिए व्यर्थ है ,
अगर सफ़र में साथ नहीं तुम
सफ़र हमारा, बिना अर्थ है ।
118
ॠषिवर, मुनिवर, ज्ञानी, ध्यानी
बात यही सब समझाते हैं
कर्म तुम्हारा, नियति तुम्हारी
दोनों अलग अलग बातें हैं
119
पहले ही मालूम मुझे था
अपनी सीमाएँ मजबूरी
सफ़र शुरू होने से पहले
तुमने स्वयं बना ली दूरी ।
120
सूरज चढ़ता सुबह अगर तो
शाम शाम तक ढलना ही है,
समय चक्र है घूमा करता
मौसम यहाँ बदलना ही है ।
-आनन्द.पाठक-
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